गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 3
प्रश्न: कल परमपूज्य स्वामी जी ने जो कहा, उस पर एक प्रश्न है। चौथे श्लोक में नाना प्रकार के योनियों की त्रिगुणमयी माया-रूप योनि और ब्रह्म, बीजप्रद पिता कहा गया है। पाँचवें श्लोक के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुण जीवात्मा को बाँधते है। यहाँ तक तो समझ में आता है कि अपने त्रिगुणात्मक आचरणों से जीवात्मा बार-बार जन्मान्तर में बँधता रहता है; किन्तु आद्य स्थिति में जब जीवात्मा विशुद्ध चैतन्य था, उसे परमात्मा ने अपने से पृथक् प्रपंच में क्यों डाला? उत्तर: वैसे उन्होंने कल ध्यान से सुना होता तो इस प्रश्न का उत्तर उसमें आ गया था। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों अनादि होते हैं। प्रकृतिं पुरुषं विद्धîनादी उभावपि। प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। अनादि हैं माने किसी काल में उत्पन्न नहीं हुए हैं। यदि आप मानोगे कि जीवात्मा और प्रकृति दोनों काल में हुए हैं, तो जगत का मूलतत्त्व काल ही हो जायगा। वहाँ तो जगत का मूल तत्त्व परमात्मा है और वह अनादि प्रकृति के संयोग से सबका उत्पादक है-
क्षेत्र भी अनादि है, क्षेत्रज्ञ भी अनादि है और इनका संयोग भी अनादि है। महाप्रयल के समय में ये जो योनियाँ हैं, अर्थात स्त्री है, पुरुष है, पशु है, पक्षी है-ये सब शरीर नहीं रहते हैं और जब सृष्टि होती है तब ये शरीर उत्पन्न हो जाते हैं। और अविद्यावान जो जीव है, वह महाप्रयल के समय शान्त रहता है और सृष्टि के समय शरीरधारी होकर अपना कोई काम करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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