गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 5
जैसे जीव शरीर के अन्दर रहता है, वैसे ईश्वर को भी किसी सीमा के अन्दर बाँध लेना, यह ईश्वर के स्वरूप के अनुरूप नहीं है। देश, काल के घेरे में जीव रहता है। जीव का उद्धार करने के लिए - उसको देश, काल के घेरे से बचाने के लिए परमेश्वर कभी देश, काल के घेरे में आता है। यही उसकी करुणा है। उसको अवतार कहते हैं -जैसे कोई कुएँ में गिरा हो तो बाहर का आदमी जानबूझकर उसको निकालने के लिए कुएँ में उतरता है। कोई जेलखाने में हो तो प्रेम से उसको आश्वस्त देने के लिए बाहर के लोग भी जेल में आते हैं। यह जीव बहुत ही सीमित क्षेत्र में कैद हो गया है और उसमें इतना रम गया है, इतना रम गया है कि अपने घेरे से बाहर की वस्तु को वह पसन्द नहीं करता है। आओ परमेश्वर को इस शरीर में भी देखें कहाँ है और बाहर भी देखें कि कहाँ है? उपनिषद् में इस प्रकार वर्णन प्राप्त है - ‘वह बाहर भी है, वह भीतर भी है। वह अमूर्त है, अजन्मा है। वह दिव्य है, वह परमात्मा है। वह इसी शरीर में है।’ निराकार परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है तो निराकार को पकड़ने के लिए आप कहाँ जायेंगे? आप जानते हैं जिन समाजों में जिन मजहबों में, ईश्वर को नितान्त निराकार मानते हैं, जैसे ईसाई, मुसलमान, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, उनके यहाँ न तो भगवान का दर्शन होता, न तो भगवान का अवतार होता। वे भगवान को नमस्कार करते हैं। वे भगवान से प्रार्थना करते हैं और भगवान की आज्ञा मानकर, विश्वास करके भगवान की आज्ञा पर-उसके अनुसार चलने पर प्रयास करते हैं। जैसे मुसलमान नमस्कार-प्रधान है। ईसाई प्रार्थना-प्रधान है और आर्य समाज में नमस्कार भी है, प्रार्थना भी है और अपने चरित्र के द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास है। जिसमें जो गुण हो उसे स्वीकार करना चाहिए। सनातन धर्म का जो परमेश्वर है वह केवल निराकार नहीं है, साकार भी है। केवल निर्गुण नहीं है, सगुण भी है। यह वैदिक परमेश्वर है। यह जो सब दिखायी पड़ता है वह एक ही सब बना हुआ है। एक ही है यह और बना हुआ है सब। ईसाई, मुसलमान और आर्यसमाजी यह नहीं मानते कि ईश्वर सब हो गया है। वे ऐसा मानते हैं कि ईश्वर ने सब बनाया। बना नहीं है, बनया है। आर्य-समाजी प्रकृति भी मानते हैं, जीव भी मानते हैं, कर्म भी मानते हैं और ईश्वर जीव को कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरों में देखता भी है। ईसाई, मुसलमान का ईश्वर बना देता है। पहले से वे प्रकृति, जीव, कर्म इनको नहीं मानते। यह ईश्वर ने अपने आदेश से ‘कुन’ ’कुन’, कहकर बना दिया। वैदिक धर्म का कहना है कि बिना नहीं दिया या किसी चीज से बनाया नहीं बल्कि स्वयं बन गया। ‘स एकधा भवति, द्विधा भवति - त्रिधा भवति - पन्चधा भवति - सप्तधा भवति।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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