गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 4
भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। समुद्र में जैसे तरंग हो, फेन हो, बुदबुदा हो या उसका कोई भी अन्य रूप क्यों न हो, वह समुद्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में चाहे वह प्रकृति हो, ब्रह्माण्ड हो; धरती हो अथवा पिण्ड हो, वह परमात्मा के स्वरूप से अलग नहीं होता। भगवान् ने स्वयं कहा है-मत्तः परतरं नान्यक्किन्चिदस्ति धनन्जय[1] और इसी बात का ज्ञान अभय की प्रतिष्ठा है। जो इस अभय की प्रतिष्ठा को जान लेता है, वह निर्भय हो जाता है। जैसे समुद्र में मगरमच्छ रहते हैं, मगर रहते हैं, बड़े-बड़े काटने-पीटनेवाले जीव-जन्तु होते हैं, परन्तु समुद्र को उनसे डर नहीं लगता कि ये हमको काट लेंगे। इसी प्रकार उन जानवरों को भी डर नहीं लगता कि समुद्र में हम डूब जायेंगे। समुद्र भी निर्भय है और समुद्र में रहने वाले वे हिंसक प्राणी भी निर्भय हैं। इसी प्रकार परमात्मा का जो यह स्वरूप है इसमें प्रकृति और कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड, हिरण्यगर्भ, महाविष्णु, महाशिव, एक-एक ब्रह्माण्ड में ब्रह्म, विष्णु तथा महेश अलग-अलग और ये पिण्ड, शरीर तथा इनमें जीव अलग-अलग हैं, परन्तु हैं ये सब परमात्मा का विलास। एकं सद् बहुधा कल्पयन्ति श्रुति कहती है, एक परमात्मा परिपूर्ण है; उसके बारे में बहुत्व की कल्पना होती है-बहुधा कल्पयन्ति। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति सत्य एक हैः विद्वान् लोग उसे अनेक रीतियों से वर्णित करते हैं। एकं वै सद् विबभूव विश्वम्-एक ही सत्य है वह सम्पूर्ण विश्व के रूप में प्रकट हो रहा है। वह एक प्रधानतः आत्मा है। देखिये न, आत्मा से बुद्धि है, आत्सा से मन है, आत्मा से अन्तःकरण है, आत्मा से इन्द्रियाँ हैं, आत्मा से शरीर है और आत्मा से ही यह सम्पूर्ण विश्व मालूम पड़ रहा है। इसमें जीव है कि ईश्वर है, कि मिट्टी है कि पानी है, यह सब आत्मदृष्टि से ही ज्ञात होता है। आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं और यह सब भगवान् से बना है, भगवान् में है, भगवान् का ही रूप है तथा भगवान् के सिवा और कुछ नहीं-यह भागवत दृष्टि है। स्पन्द दृष्टि है कि आत्मा से सब है और आत्मा ही सब है। सब कुछ आत्मा के स्पन्दन से ही मानने को स्पन्द दृष्टि बोलते हैं; आत्मा हिल गया और सृष्टि दिखने लग गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता-7.7
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