गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 6
यतन्तोऽप्यकृतात्मनो नैनं पश्यन्त्यचेतसः। प्रयत्न तो करते हैं, परन्तु साधन-सम्पत्ति के द्वारा अपने हृदय को निर्माण नहीं किया है। अकृतात्मा-माने अपने अन्तरण की शुद्धि के लिए कोई प्रयास नहीं किया है और ‘अचेतसः’। गुरुसम्प्रदाय से रहित हैं। वे कितना भी प्रयत्न करें, उन्हे इस आत्मा का दर्शन नहीं होता। बाहर की वस्तुओं का जो अनुभव होता है, उसक में शम, दम आदि साधन की आवश्यकता नहीं रहती है। घड़ा देखते है, कपड़ा देखते है, स्त्री देखते हैं, पुरुष देखते हैं। मेज देखते हैं। लेकिन यह जो वस्तु है, यह सर्वान्तर है। सबके भीतर है। बाहर की चीज को देखने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता होती है। इसमें चाहिए कृतात्मा। अकृतात्मा को इसका दर्शन नहीं होता। जिसने विवेक, वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान, मुमुक्षा आदि के द्वारा अपने आत्मा का सम्पादन कर लिया है, वह पात्र है। इसमें जो अलग की चीजें जुड़ गयी हैं, उनसे अपने को अलग कर चुका है। लोक में तो देखो कैसा व्यवहार होता है। एक किसान के घर गये, उसके बैल देखने लगे। उसने कहा-महाराज, और बैल तो सब बैल हैं पर यह बैल तो मेरा प्राण है। और सब तो हमारे प्यारे हैं ही, पर यह पुत्र तो मेरा आत्मा ही है। यहाँ जो प्राण का विवेक है, आत्मा का विवेक है, वह कौन-सा प्राण है। जिसको तुम बैल बता रहे हो। वह कौन-सा आत्मा है जिसको तुम पुत्र-शिष्य बता रहे हो। विवेक करके जो बैल को प्राण समझनेवाला है, उसको अलग समझो। इतना विवेक तो हम कर पाते हैं। लेकिन वह अलग किया हुआ क्या है- यह बात केवल अलग कर देने से ही मालूम नहीं पड़ती। क्योंकि वह तो अलग किया जाता है और फिर मिलता है- फिर अलग किया जाता है। मैं एक स्त्री-पुरुष को जानता हूँ- जब उनमें लड़ाई होती है तो तालाक हो जाता है। फिर थोड़े दिनों के बाद मेल हो जाता है तो फिर ब्याह कर लेते हैं। यह तो दुनिया की चीजें हैं इनसे तो मिनिट के लिए मिलते हैं मिनिट के लिए अलग होते हैं। दिन भर में कितनी बार मिलते है और कितनी बार अलग होते हैं यह केवल थोड़ी देर के लिए विचार मन में हो जाय कि यह मरा नहीं है और यह मैं नहीं हूँ। ‘न एते मम’ और ‘नाहं एते स्याम’। ये मेरे नहीं हैं और आँख बन्द करके बैठ भी गये। थोड़ा स्तम्भवत्-खम्भे की तरह शरीर बन भी गया, पीठ की रीढ़ सीधी हो गयी या दोनों आँखें स्थिर हो गयीं-सिर सीधा हो गया बैठ गये। परन्तु इससे आत्मा का दर्शन नहीं होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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