गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 7
गीता के तीसरे अध्याय में कर्म की चर्चा चली। उसमें मुख्य प्रश्न उपस्थित हुआ कि कर्म कैसे होते हैं? और कर्म किस प्रकार करने चाहिए? भगवान ने समाधान करते हुए कहाः मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । इसमें कर्मानुष्ठान का सार-सार आ जाता है। प्रकृति से कर्म होते हैं, प्रकृति के गुणों से कर्म होते हैं, पंचायत की प्रेरणा से कर्म होते हैं, अहंकार से कर्म होते हैं, ईश्वर की प्रेरणा से कर्म होते हैं- इन अनेक मतों का संग्रह गीता में है। कर्मशास्त्र का तो कोष ही है गीता। भगवान ने कर्मानुष्ठान का जो सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग बताया, वह यह है कि मुझमें सब कर्मों का संन्यास कर दो। यहाँ संन्यास शब्द सम्प्रदाय विशेष का वाचक नहीं, सं = सम्यक्, न्यास = स्थापना, सम्यक् माने भली-भाँति और स्थापना माने पूर्णरूप से निक्षेप। अर्थात कर्मों का सम्पूर्ण रूप से पूरा-का-पूरा भार भगवान के ऊपर डाल दो; क्योंकि वे प्रेरक हैं, निर्वाहक हैं और फलदाता है। यह समर्पण कैसे होगा? संसार में जैसे गोदान, भूदान होता है, वैसे नहीं होगा। संन्यस्याध्यात्म-चेतसा-अपने शरीर के भीतर जो क्रिया-प्रक्रिया हो रही है, उसका नाम है अध्यात्म। अतः भीतर दृष्टि ले जाओ और देखो कि इस यन्त्र का संचालन कैसे हो रहा है। एक बार की बात है, मैंने किसी महात्मा से कहा कि मैं कर्म करने में स्वतन्त्र हूँ। उन्होंने कहा कि अच्छा बताओ तुम अगले क्षण क्या करोगे? मैंने कहा कि जो चाहूँगा करूँगा। बोले ठीक है, यही बताओ क्या चाहोगे? मैं चुप हो गया। मनुष्य अगले क्षण कैसी इच्छा करेगा, क्या करेगा इसका ज्ञान नारायण के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता। यदि हम इच्छा नहीं करेंगे तो कर्म में स्वातन्त्र्य का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे जीवन में जो प्रवृत्तियाँ हैं वे केवल ज्ञान की किरणों से हो रही हैं, रस की किरणों से हो रही हैं अथवा केवल सत्ता में आकृतियाँ बन रही हैं। सत्ता में आकार बनते हैं, ज्ञान में प्रवृत्तियाँ होती हैं और रस में तरंग उठती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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