गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 9
छठे अध्याय में भगवान का जो उपदेश है, उसका नाम अर्जुन ने साम्ययोग रखा है- योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन। इसमें जो ध्यान का वर्णन है, वह बुद्धि योग के लिए उपयोगी है। इससे मनुष्य की प्रज्ञा शुद्ध होती है, व्यवस्थित होती है। मनुष्य की बुद्धि में एक तो चाहिए पवित्रता और दूसरी चाहिए पदार्थावगाहिनी शक्ति। जिस वस्तु पर विचार करें, बिलकुल ठीक-ठीक करें। उसमें पक्षपात न हो और उसके द्वारा जो निश्चय हो उसमें स्थिरता हो। यह नहीं कि प्रतिदिन निश्चय बदलता रहे। एक जज साहब हमारे मित्र थे। वे मुकदमा सुनने के बाद फैसला लिखवाते समय दृढ़ नहीं रह पाते थे। एक दिन एक फैसला लिखावें तो दूसरे दिन दूसरा फैसला। अन्तिम फैसला लिखवाने में उन्हें कई दिन लग जाते थे। तो, निर्णय में स्थिरता चाहिए, पवित्रता चाहिए, सूक्ष्मता चाहिए। एक बात और, केवल पहले की घटनाओं के आधार पर निर्णय नहीं होना चाहिए। वर्तमान में कैसा है और भविष्य में इसका क्या परिणाम होगा, यह देख-समझकर निर्णय होना चाहिए। कोई बात कानून से तो ठीक हो और उसके पीछे वास्तविकता भी हो, लेकिन उससे देश में दंगा-फसाद फैलने की सम्भावना हो तो दबा देना ही उचित है। जिसका परिणाम शुभ नहीं, वह निर्णय गलत है। जज की बुद्धि केवल प्रमाण और साक्ष्य की अनुगामिनी न होकर परिणाम-दर्शिनी भी होनी चाहिए। आपको भी अपनी पत्नी के साथ, भाई के साथ जज होना पड़ता है। अपने परिवार-पड़ोसी के साथ उचित व्यवहार करना पड़ता है। अतः औचित्य के निर्णय का सामर्थ्य आपके अन्दर होना चाहिए। भागवत में एक बात कही हुई है कि मनुष्य कितना भी अधिक बुद्धिमान हो, कितना भी बड़ा गुणी हो, परन्तु यदि उसमें थोड़ा भी लोभ मिल गया तो मानो उसके शरीर पर कोढ़ हो गया- यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणा:। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.23.16
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