गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 10
माँ मैं तुम्हारा अनुसन्धान करता हूँ। तुम्हारा ध्यान करता हूँ। एक सरस्वती वह है जो ब्रह्मा के मुख से निकलीं। वाग्देवी, वेदवाणी और एक सरस्वती गीता है, जो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुई है। यह गीता-सरस्वती-गीता-भारती हमारी माँ हैं। माँ का अनुसन्धान करना चाहिए। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव।[1] आओ गीता पर ध्यान दें। हमको बचपन की एक स्मृति है। किसी सन्त के पास जाकर हम उससे कहते कि हमको भगवान का दर्शन करा दें। एक सन्त से मैंने यही बात कह दी-मुझे भगवान का दर्शन करा दीजिये। वे तो नाराज हो गये। आजकल जैसे हमलोग लल्लो-चप्पो करते हैं न! वैसे पहले के फकीर लोग नहीं करते थे। वे तो बहुत खड़कझंझारी होते थे। डाँट देते थे। उन्होंने डाँट दिया। तुम भगवान का दर्शन करना चाहते हो? यह सब क्या हो रहा है। तुम्हें सूर्य, चन्द्रमा दिखते हैं कि नहीं? तुम्हें धरती, पानी, आग, हवा, अष्टमूर्ति भगवान शंकर का दर्शन होता है कि नहीं? यह विराट्रूप का जो दर्शन हो रहा है, यह विराट कौन है? इतना दर्शन दे रहे हैं तुमको भगवान, इतनी-दर्शन, योग्य वस्तुएँ, पशु बनकर आ गये, पक्षी बनकर आ गये! वृक्ष बनकर आ गये! सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे बनकर आ गये। स्त्री, पुरुष बनकर आ गये! इतने रूपों में भगवान के दर्शन हो रहे हैं। तुमने भगवान को क्या निहाल कर दिया? कोई पूजा की? कोई भक्ति की? कोई सेवा की? जितने रूपों में भगवान के दर्शन हो रहे हैं उनका तो तुमने अपने जीवन में कोई आदर नहीं किया, सेवा नहीं की और तुम अपने मन की एक मूर्ति बनाओगे और कहोगे कि उसके रूप में भगवान के दर्शन हों। बड़ी डाँट पड़ी मेरे ऊपर। माता भगवानृ है, पिता भगवान हैं, गुरु भगवान हैं। प्रकृति में दीखन वाले अनेक पदार्थों का नाम, शास्त्र में भगवान ने बताया है। जितने रूपों में भगवान दीख रहे हैं, उन रूपों में तो हम भगवान की सेवा नहीं करते, ध्यान नहीं करते, उपासना नहीं करते। उनको देखकर अपने हृदय में सद्भाव नहीं लाते और जो नहीं दिखता है, उसके लिए व्याकुल होते हैं। अभी थोड़ी देर पहले यह बात हमको याद आ गयी। भगवान दुर्लभ नहीं हैं। भगवद्-भाव दुर्लभ है। जिसके हृदय में भगवद्भाव-का उदय हो गया, उसके लिए तो जब हमारी आँख की रोशनी भगवद्भाव से अनुप्राणित होती है, भगवद्भाव के रंग में रंगकर जब हमारी आँख की रोशनी निकलेगी तब तो हम जहाँ देखेंगे वहाँ भगवान-ही-भगवान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै. उप. 1.1.2
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