गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 10
भगवान कहीं चले नहीं गये हैं। न दूर हैं भगवान, न उसके मिलने में देर हैं। न दूसरा है। हमारा मन ही कुछ-का-कुछ पकड़कर बैठा है। एक पिता ने अपने पुत्र से कहा-छोटे से पुत्र से-कि बेटा, तुम यह काम कर दो तो तुम्हें मिठाई देंगे। पुत्र ने वह काम कर दिया। और पिता जब मिठाई देने के लिए आये तो पेड़ा लाये। पुत्र ने कहा हमको मिठाई चाहिए, हमको पेड़ा नहीं चाहिए। यह तो पेड़ा है, यह तो पेड़ा है, यह तो बरफी है, यह तो कलाकन्द है। हमको तो मिठाई चाहिए। यह तो शक्कर है, यह तो मिश्री है, हमको तो मिठाई चाहिए। मिठाई तो शक्कर भी है, मिश्री भी है, ओला भी है, पेड़ा भी है, बरफी भी है, जलेबी भी है। मिठाई तो हमको मिल रही है मगर जो सबमें मिठाई है वह तो हमको दीखती नहीं है और कोई कल्पित मिठाई के लिए हम तरस रहे हैं। जितने रूपों में हमें परमेश्वर का दर्शन हो रहा है, उसका हमारे हृदय में कितना आदर है, यह चिन्तनीय है। यह विचारणीय है। शास्त्र के अनुसार ही तो अवतार का ज्ञान होता है। यह नहीं कि चाहे जो कल्पना कर ले कि मैं अवतार हूँ। अपनी कल्पना से भी कोई अवतार नहीं होता। और लाख-लाख बेवकूफ चेलों की कल्पना से भी कोई अवतार नहीं होता। आप लोग बुरा मत मानना, हम आप लोगों के लिए नहीं कह रहे। आपको छोड़कर बोल रहा हूँ। यदि बेवकूफ न होते तो चेला बनने की जरूरत ही क्या होती? माने कुछ नहीं समझते हैं, उसको समझने के लिए ही तो गुरु बनाने जाते हैं। वैसे ही नासमझ लोग यदि किसी को भगवान कहने लगें तो उसकी कोई कीमत नहीं होती है। वह तो नासमझों के भगवान होते हैं। शास्त्रीय पद्धति इसमें यह है कि समग्र विराट को हम देख नहीं पाते हैं। समझ भी नहीं पाते हैं। दिशाएँ विराट के कान हैं। आकाश विराट की नाभि है। सूर्य-चन्द्रमा विराटृ के नेत्र हैं। वायु विराट का श्वास है, पृथ्वी विराट का पाँव है। यह पृथ्वी ही नहीं जिस पर हम हैं, वह मृत्तत्त्व जो जल में लीन हैं। अग्नि-तेजस्तत्त्व विराट का मुख है। ये जितने अवतार होते हैं और जितनी मूर्तियाँ होती हैं ये सब विराट के अवयव होते, विराट के अंग होते हैं। जहाँ वैदिक शास्त्र नहीं है, वहाँ भगवान की पूजा पृथ्वी के रूप में होती है, जल के रूप में होती है अग्नि के रूप में होती है, वायु के रूप में होती है, आकाश के रूप में होती है और हमारे शास्त्रज्ञों ने जब देखा कि मानव की शक्ति कितनी है, उसकी बुद्धि कितनी है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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