गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 4
धर्म, योग, ज्ञान इन तीनों की अपेक्षा भक्ति में अपूर्वता क्या है-नवीनता क्या है? जो उन तीनों में न हो और भक्ति में हो। वह यह है कि योग में पहिले तो कर्ता का बल होता है, यम-नियम, आसन प्राणायाम, योगी को करना पड़ता है; समाधि लगानी पड़ती है। बाद में वह स्वयं ही अपने को द्रष्टारूप में अनुभव करता है। पहले अभ्यास के बल का प्रयोग है और बाद में सहज स्थिति है। धर्म करते समय भी कर्ता का बल है और उनका जो फल है स्वर्गादिरूप, उसको भी पकड़कर ही रखना पड़ता है। सावधान रहना पड़ता है। नहीं तो स्वर्ग से ढकेल दिया जाता है। राजा ययाति की महाभारत में कथा है-बहुत पुण्य, दान, धर्म करके स्वर्ग में गये। इन्द्र के आधे सिंहासन पर उनको अधिकार प्राप्त हुआ। आधे पर इन्द्र बैठें और आधे पर ययाति। ययाति ने पूछने पर बताना शुरू कर दिया कि मैंने यह धर्म किया-इन्द्र पूछते गये, ययाति बताते गये, किस धर्म के बल पर स्वर्ग में आये हैं। अब वे अपने धर्म का जब वर्णन करने लगे तो धर्म क्षीण होता गया और अन्त में इन्द्र ने उसको सिंहासन पर से ढकेल दिया। नीचे मुँह करके गिरे। परन्तु धर्मात्मा थे इसलिए ऐसी जगह पर गिर रहे थे जहाँ महात्माओं का सत्संग हो रहा था। महात्माओं ने उनको अपने तपोबल से ऊपर रोक दिया और पूछा। ययाति ने बताया कि हम धर्म के बल पर स्वर्ग में गये थे। परन्तु वहाँ अपने धर्म का अपने मुँह से वर्णन करने के कारण, धर्म क्षीण हो गया और हमको गिर जाना पड़ा तो उन्होंने कहा-अब तुम आओ, सत्संग करो। ऐसी स्थिति-गति प्राप्त होगी जहाँ से गिरना नहीं पड़ता है। धर्म करने के समय भी अपने बल का प्रयोग होता है और उसके फल की रक्षा करने के लिए भी अपने बल का प्रयोग होता है। और योग में साधन के समय तो स्वयं अभ्यास करना पड़ता है। फलस्थिति जो है वह द्रष्टा के स्वरूप में स्थिति, उसमें कोई प्रयास नहीं रहता है। तत्त्वज्ञान में साधन पहले करना पड़ता है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन ये अन्तरंग साधन हैं। बहिरंग साधन हैं शम, दम, उपरति, तितिक्षा, विवेक, वैराग्य, मुमुक्षा। पहले यह करना पड़ता है। आवरण-भंग जब हो जाता है उसके बाद वह समस्त गतियों के लिए और स्थितियों से और समाधियों से मुक्त हो जाता है। वह चाहे विक्षेप में रहे, समाधि में रहे, जहाँ रहे, जैसे रहे सहज ही रहता है। धर्म में साधन और फल दोनों में कर्ता का बल है और योग में साधन काल में कर्ता का बल है, बाद में सहज स्थिति है। ज्ञान में कर्तव्य, भोक्तृत्व का सर्वथा उच्छेद हो जाता है क्योंकि ये भ्रान्तिमूलक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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