गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 5
श्रीमती भगवती गीता - गीता के विशेषण है - गीताशास्त्रमिदं पुण्यम् - गीता शब्द संज्ञा है। व्यवहार में और परमार्थ में दोनों में भगवान है। मामनुस्मर युद्ध्य च[1] ‘मामनुस्मर’ परमार्थ है और ‘युद्ध च’ व्यवहार है। दसवें अध्याय में परमार्थ में भगवान योग हैं और व्यवहार में भगवान विभूति हैं। दो चीज हैं। दसवें अध्याय का पाठ पहले हमने कितनी बार किया होगा। पर यह बात ध्यान में नहीं आती थी। मेरे ध्यान में नहीं आती थी, इसलिए मैं बार-बार इसको दोहराता हूँ। औरों के ध्यान में न आती हो तो वे भी ध्यान करें। एतां विभूतिं योगं च - यह मेरी विभूति है और यह मेरा योग है। अर्जुन ने प्रश्न भी किया है कि विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च।[2] एक है योग और एक है विभूति। व्यवहार वैभव है, एक व्यक्ति है और उस व्यक्ति की मूर्ति है। एक वस्तु है और एक वस्तु की विभूति है। देखो मिट्टी वस्तु है और हीरा उसकी विभूति है - खाने में-से निकला हुआ मिट्टी ही है। पाषाण-खण्ड ही है, पत्थर ही है। मृत्तिका योग है और हीरा उसकी विभूति है। जब हम परमात्मा का चिन्तन करें तब देखें मृत्तिकेत्येव सत्यम्[3]- केवल मृत्तिका ही सत्य है केवल परमात्मा ही सत्य है। कल एक विलक्षण फूल देखा। बताया गया कि साल में एक दिन खिलता है। कल खिला हुआ था। वह क्या है? उसमें मिट्टी है; उसमें पानी है। वह अपने तत्त्व से वियुक्त नहीं हुआ है। युक्त है, योग है, मिट्टी-पानी का वैभव है; यह विभूति है कि वह इतने सुन्दर, सुगन्धित, रसयुक्त रूप में है; उसमें सुकुमारता है। यह क्या है - यह मिट्टी पानी की विभूति है। परमेश्वर की जो सृष्टि है, सूर्य है, चन्द्रमा है, यह अग्नि है, यह वायु है। यह परमेश्वर की विभूति है। जिसकी विभूति है उसको भूलना नहीं चाहिए। विभूति में उसका दर्शन करते हुए विभूति के साथ व्यवहार करना चाहिए। रसोऽहमप्सु कौन्तेय[4]- भूलने की वस्तु नहीं है। अग्नि में तेज भगवान है। जल में रस भगवान है। पृथ्वी में गन्ध भगवान है। ये व्यावहारिक हैं। व्यवहार में भगवान, परमार्थ में भी भगवान। ये दसवाँ अध्याय का सार है, रस है, हमको पहले बहुत दिन तक ध्यान में बात नहीं आयी थी। अब भगवान कहते हैं - जितने आध्यात्मिक भाव हैं, और जितने आधिदैविक भाव हैं, वे सब-के-सब मुझसे ही होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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