गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 9
भजतां प्रीतिपूर्वकम्। प्रेम से भगवान का भजन करो। अभी आप लोगों ने स्वर के साथ, संगीत के साथ वेद-मन्त्रों का पाठ सुना। श्रीकृष्ण की महिमा, उनका सौन्दर्य उनका माधुर्य श्रवण किया। आनन्द आया। शास्त्र में तो ऐसा लिखा है कि कोई जानकर हो, न-हो अपनी समझ में आवे-न-आवे ईश्वर का नाम संगीत में सुनकर आनन्द आता है। न समझा हुआ भी संगीत जब कानों में पड़ता है हृदय में आनन्द का झरना बहने लगता है। बड़ा आनन्द आया, प्रसन्नता हुई। फिर से सुनने को मिलेगा। अब आपको गीता की बात सुनाते हैं। आप कहोगे कि श्लोक एक ही बार-बार दुहरा देते हैं। मच्चित्ताः माने हमारा अध्यात्म भगवान में लगा गया है। हमार मन हमारी बुद्धि भगवान में लग गयी। मद्गतप्राणाः माने हमारा जीवन और हमारी क्रिया-प्राण से क्रिया, मतलब है - भगवान को समर्पित है। बोधयन्तः परस्परम् माने एक दूसरे को बुद्धि दान कर रहे हैं। वह इनको समझा रहा है, यह उनको समझा रहा है, भगवान के बारे में। कथयन्तश्च मां नित्यम् - परस्पर नहीं समझा रहे हैं, अकेले ही कोई कथन कर रहा है। एक हुआ मन, बुद्धि का भगवान में लगना, मच्चित्ता - अन्तरंग हो गया। मद्गतप्राणा - जीवन भगवान के लिए हो गया। क्रिया सारी भगवान के लिए और बोधयन्तः परस्परम् - दो, तीन, चार मिलके एक दूसरे को समझाते हैं। सामूहिक हो गया और कथयन्तश्च मां नित्यम् - वक्ता एक है और श्रोता अनेक हैं। यह हो गयी भक्ति की साधना। अब इसमें यह बात बतायी कि तुष्यन्ति च रमन्ति च। जैसे संसार में लोगों को धन की प्राप्ति से सन्तोष होता है वैसा सन्तोष भगवान में मन, बुद्धि लगाने से, भगवान के लिए जीवन व्यतीत करने से, क्रिया करने से, समझने-समझाने से और भगवत्-सम्बन्धि चर्चा करने से प्राप्त होता है, और ‘रमन्ति च’ संसार में जैसे कोई प्रेम हो - तो घण्टे-आध घण्टे चुप भी रहें तो जहाँ से प्रेम की बात आरम्भ होती है, वहीं से फिर शुरू हो जाती है। अपना किसी से प्रेम हो, उससे बात करें तो घण्टे-आध-घण्टे बाद उसकी चर्चा करेंगे। भीतर में उसका ख्याल चलता रहता है। रमन्ति च - जैसे प्रेयसी, प्रियतम एक-दूसरे के साथ रम जाते हैं। वैसे भगवान में वे रम जाते हैं। धनप्राप्ति अथवा कामप्राप्ति होने पर जैसा आनन्द होता है; वैसा ही भगवान में आनन्द आता है। गोस्वामीजी ने कहा - ‘कामी नारि पियारी जिमि’ - यह ‘रमन्ते च’ का अर्थ हो गया। और ‘लोभी प्रिय जिमि दाम’ यह ‘तुष्यन्ति च’ का अर्थ हो गया और चरमन्ति च चरमादवस्थाम् अनुभवन्ति - इसके आगे कुछ और नहीं है। बस, इसी से सन्तुष्ट हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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