गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 4
युक्तिपूर्वक मनुष्य के कर्त्तव्य का दिशा निर्देश करते हैं। एक होती है आज्ञा ‘ऐसा करो।’ एक आज्ञा के साथ उसका कारण भी बताया जाता है कि ऐसी आज्ञा क्यों दी है? जब युक्तिपूर्वक बात कही जाती है, तब उसमें बुद्धिमान पुरुष की प्रवृत्ति होती है और केवल आज्ञा में श्रद्धालु की प्रवृत्ति होती है। श्रद्धालु पुरुष सिर झुकाकर आज्ञा को स्वीकार करता है। अनुचित, उचित का विचार छोड़कर हर समय मेरा स्मरण करो और अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन करो - ऐसा क्यों कहते हैं? इसमें हेतु क्या है? अविनाशी है परमात्मा - पहला यह हेतु है। अक्षरं ब्रह्म परमं। जो अविनाशी वस्तु होती है उसका हर समय स्मरण होना सम्भव है। वह अपना ही स्वरूप है - स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। इसलिए अपना स्वरूप सर्वदा स्मरण किया जा सकता है और जो पन्चभूत के रूप में सर्वदा स्मरण किया जा सकता है। जो अधिदैवत पुरुष है, जैसे - सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि इनका भी सर्वदा स्मरण किया जा सकता है। और जो अधियज्ञ है - अधियज्ञ का अर्थ होता है - जितना भी यज्ञ हो रहा है। यह जीवन हमारा यज्ञमय है। सबका जीवन यज्ञमय है। फल के द्वारा यज्ञ करते हैं, फूल के द्वारा, सुगन्ध के द्वारा यज्ञ करते हैं। पत्ते के द्वारा यज्ञ करते हैं - तने से, छिलके से, जड़ से, छाल से यज्ञ करते हैं। पेड़-पौधों का जीवन भी यज्ञमय है। पशु, पक्षी भी यज्ञ करते हैं। कोई अनिष्ट के निवारण में समर्थ होते हैं, कोई इष्ट के प्रापण में समर्थ होते हैं। कुछ लेते हैं, कुछ देते हैं। यह यज्ञ का स्वरूप है। आदान- जैसे हम अग्नि से उष्णता लेते हैं। जो आहुति डालते हैं उसकी सुगन्ध लेते हैं। यश लेते हैं। जो उसका स्वर्गादिरूप फल है सो लेते हैं। यज्ञ में लेने के साथ-साथ देते भी हैं। आदान-प्रदान और उत्सर्ग। उत्सर्ग माने एक नियम। इतने समय तक भोजन नहीं करेंगे। इतने समय तक सोयेंगे नहीं। इतने समय तक कोई संसार का सुख नहीं लेंगे। यज्ञ माने जीवन को नियमित करने की एक पद्धति। आदान भी है यज्ञ में - प्रदान भी है - उत्सर्ग भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.8
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