गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 1
प्रपन्नपारिजाताय तोत्रवेत्रैकपाणये। भगवान श्रीकृष्ण प्रपन्नपारिजात हैं। जो उनके चरण पकड़ ले, उनकी शरण में आ जाये; उसके लिए कल्पवृक्ष हैं। स्वभक्त-पक्षपाती हैं। परब्रह्म जो वर्णन वेदान्ती करते हैं, वह निष्पक्ष होता है, उसमें भक्ति-सम्प्रदाय चलाने की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु जहाँ सगुण-साकार परमेश्वर का वर्णन होता है, न करने से हानि होती है। भगवान अपनी शरण में आये हुए की रक्षा करते हैं और उसके सारे मनोरथ भी पूरे करते हैं। यदि शरण में जाने पर भी समानता का ही व्यवहार मिले, न्याय ही मिले तो कोई शरण में क्यों जायेगा? शरणागति न्याय-प्राप्ति के लिए नहीं, सहायता के लिए सुरक्षा के लिए होती है। अस्तुः प्रपन्न-पारिजात है भगवान श्रीकृष्ण। वे संयम और प्रशासन-स्वरूप तोत्र और वेत्र को अर्थात घोड़े की लगाम और उसके बेकाबू होने पर उसे दण्डित करने के लिए चाबुक को अपने हाथ में रखते हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ स्वच्छन्द नहीं हैं और उनके उच्छृंखल होने पर उनको दण्ड देने की सामर्थ्य भी है। भगवान के हाथ में तोत्र-वेत्र तो है ही वे ज्ञानमुद्रा से भी सुशोभित हैं। उनकी मुद्रा से ही ज्ञान की वर्षा होती है। वे सार्वजनिक हित की दृष्टि से ही गीताऽमृत का दोहन कर रहे हैं। ये सब शरण्य के लक्षण हैं। इसलिए आइये हम नमस्कार करें भगवान श्रीकृष्ण को, जो समस्त आकर्षणों के, प्यार के कन्द्र हैं और सच्चिदानन्दघन परमेश्वर हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में जो ‘गीता’ शब्द है, वह संज्ञा भी है और क्रिया भी है- ‘गीताशास्त्रमिदं पुण्यं।’ थोड़ा इस पर ध्यान दें। दुर्योधन और अर्जुन दोनों युद्धभूमि में आते हैं। दुर्योधन का सारथि कौन है-इसका अनुसन्धान आप लोग करना। महाभारत में ढूँढ़ना कि कहीं उसका नाम मिल जाये। अज्ञातप्राय सारथि है। इसका यह अर्थ है कि अज्ञान ही सारथ्य कर रहा है दुर्योधन का। इधर अर्जुन के सारथि है श्रीकृष्ण। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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