गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 7
अभ्यासेऽप्यसमर्थोसि मत्कर्मपरमो भव। एक प्रधान बात यह हुई कि मन और बुद्धि भगवान में आहित करना, समाहित करना। दूसरी बात यह हुई कि यदि मन, बुद्धि को भगवान में न लगा सकें- क्योंकि वह दो ही स्थिति में पूर्णतः लग सकती है। या तो आश्रय अद्वितीय हो, ब्रह्म-अथवा भगवान विषय रूप में सर्व हों, विराट् हों। यदि सर्वरूप में भगवान होंगे तब मन-बुद्धि का समर्पण सार्वकालिक, सार्वदेशिक और यथार्थ परमार्थ हो जायेगा। जो देखते हैं, वही भगवान है। जो सुनते हैं, वही भगवान है, जो छूते हैं वही भगवान है। शंकराचार्य ने सारे अध्याय का अर्थ विश्वरूप की उपासना में लगाया है और यही उसका गूढ़ अभिप्राय है। और वृत्ति का जो आश्रय है वह वृत्ति के अभाव का भी आश्रय है। इसलिए वृत्ति और वृत्ति का विषय-दोनों उसमें बाधित हैं, तो परमात्मा के सिवाय और कोई है ही नहीं। दूसरी बात यह कही कि यदि यह स्थिति न प्राप्त हो सके तो अभ्यासयोग करो। अभ्यासयोग माने भगवान में अपने मन और बुद्धि को लगाने का अभ्यास। बारम्बार भगवान में मन लगाया जाय। उनसे प्यार हो, उनका विचार हो। मन लगाना माने भगवान से प्रेम और बुद्धि लगाना माने भगवान का विचार। यह ठीक वैसे ही है जैसे जब सत्राजित् ने कहा कि श्रीकृष्ण, तुम स्यमंतक-मणि ले लो, मैं दहेज में देता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.10-12
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