गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 7
तो श्रीकृष्ण ने कहा-तुम सूर्य के भक्त हो, उनकी दी हुई मणि तुम्हारे घर में रहे। लेकिन उनसे जो आठ भार सोना रोज निकलता है वह हमको भेज दिया करो। मन तो अपने पास रखिये, लेकिन जो मन में संकल्प उठें और बुद्धि में विचार उठें वे भगवान के पास भेज दिया कीजिये। क्योंकि मन और बुद्धि तो एक अमूर्त तत्त्व हैं-मन और बुद्धि आकृति वाले तत्त्व नहीं है। जो आकृति मन और बुद्धि का विषय बनती है वही उनकी आकृति होती है। उनकी अपनी आकृति नहीं है। जो वस्तु मन में मालूम पड़ रही है वही मन है। जो बुद्धि में मालूम पड़ रही है वही बुद्धि है और ऐसी-ऐसी हजारों वस्तुएँ मन में आती हैं और बुद्धि में आती हैं। इसलिए उनका आकार तो निश्चित होता नहीं। अतः जो आकार आवे, उनमें जो भी संकल्प उठे, जो भी विचार उठे वह भगवान का रूप हो, भगवान को लेकर उठे-भगवान के लिए एक मन्दिर बनावेंगे। यह संकल्प ही भगवद्-अर्थ हो गया। भगवान साकार हैं, निराकार हैं, कि सगुण हैं, निर्गुण हैं, हृदय में हैं, बाहर हैं- इस प्रकार का विचार भी बुद्धि को भगवान में लगाना है। अब उसका अभ्यास करना माने उसको दोहराना। अभ्यास शब्द का अर्थ संस्कृत में दोहराना ही होता है। जैसे भू धातु की जब अभ्यास संज्ञा होती है, तो ‘भू भू बभूव’ बन जाता है। अभ्यास माने बारम्बार पुकारना। किसी शब्द को बारम्बार दुहराना। जैसे सन्धि में उदाहरण है- ‘कांस्कान्’-यह अभ्यास है किसको? रामको। रामको-तो इस अभ्यास का भगवान के साथ योग हो जावे-माने हम बारम्बार भगवान को ही दोहरावें। बोले भाई, यह भी बहुत कठिन। बोले अच्छा यह कठिन है तो तीसरी बात लो। ‘मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि’ मेरे लिए कर्म करो। जो काम करो, यह देख लो कि यह हम किसके लिए कर रहे हैं। विराट् की सेवा के लिए कर रहे हैं, अन्तःकरण शुद्धि के लिए कर रहे हैं, कर्तव्यपालन के लिए कर रहे हैं-ये तीन विभाग ब्रह्म-सिद्धि के टीकाकारों ने किये हैं। कर्तव्यपालन के लिए कर्म, अन्तःकरण शुद्धि के लिए कर्म, भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म, और विविदिषा या वेदन-जिज्ञासा अथवा ज्ञानप्राप्ति के लिए कर्म। इसमें भामतीकार मानते हैं विविदिषा के लिए, जिज्ञासा के लिए कर्म और विवरणकार मानते हैं- ज्ञान के लिए कर्म। सेठ जयदयालजी विवरण पक्ष लेकर कर्म से ज्ञान होता है, ऐसा बोलते थे। पर साधारण पंचदशी, विचारसागर पढ़ने वालों को तो यह मत मालूम नहीं है। इसलिए वे लोग आपत्ति करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज