गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 6
सबके पिता हैं परमेश्वर, स्वामी हैं परमेश्वर और गुरु हैं परमेश्वर - जैसे पिता से पुत्र होता है और पिता पुत्र की शिक्षा की व्यवस्था करता है, और उस पर नियन्त्रण भी रखता है कि यह ठीक-ठीक चले। वैसे इस सम्पूर्ण विश्व का, जीव का, जगत का पिता है परमेश्वर, शिक्षक है, गुरु है परमेश्वर और शास्ता, अन्तर्यामी है परमेश्वर। जो जीव परमेश्वर-भजन, उसकी सेवा नहीं करता है वह अपने स्थान से च्युत हो जाता है। भगवान ने जो मनुष्य का शरीर दिया है - जो स्थान दिया है, वहाँ से उसको नीचे जाना पड़ता है। य एषां पुरुषं साक्षाद् आत्मप्रभावमीश्र्वारम् । लोग कहते हैं - परिवार में एकता रहनी चाहिए, परिवार संगठित रहता है, धनवान रहता है। फिर लोग कहते हैं गाँव संगठित रहना चाहिए। प्रान्त, जिला, संगठित रहना चाहिए। एक आचार्य को मानने वाले राष्ट्र नहीं, विश्व मात्र मानवता संगठित रहनी चाहिए। एकता का बड़ा महत्त्व है। पर उस एकता का आधार क्या है? प्रान्त, राष्ट्र भौगोलिक हैं। आचार्य का आधार साम्प्रदायिक है। राष्ट्रीयता दूसरे राष्ट्र का विरोध करती है। एक ईश्वर ही ऐसी वस्तु है जो हम लोगों का अन्तर्यामी, स्वामी, शिक्षक, पिता है; हम सब एक पिता की सन्तान हैं। यह संघठन का सबसे बड़ा आधार है। अपनी पिता की सेवा के लिए, पति की सेवा के लिए, गुरु की सेवा के लिए ईश्वर की सेवा आवश्यक है और ईश्वर को पहचानते हैं, वे बुधा भावसमन्विताः। भाव शब्द का अर्थ आप समझते तो हैं ही पर भाव की आवश्यकता तब पड़ती है जब दीखता हो कुछ और उसमें भावना की जाय कुछ - जैसे शालिग्राम की शिला है। वैज्ञानिक रीति से आप उसकी परीक्षा करेंगे, तो वह भी एक खास तरह का पत्थर ही निकलेगा। परन्तु उसमें भाव किया जाता है कि यह साक्षात् विष्णु है। पति, गुरु, पिता भी मनुष्य दिखते हैं - और उसमें भाव किया है परमेश्वर का। जब आप यह जाँच करने जायेंगे कि यह परमेश्वर है कि नहीं तो कुछ हाथ नहीं लगेगा - ठन-ठन गोपाल। लेकिन हमारे हृदय में ईश्वर का भाव है। जिस हृदय में ईश्वर का भाव है उस हृदय का अत्यन्त उत्तम कोटि का निर्माण होता है; शालिग्राम की शिला ईश्वर हो तो या न हो, चतुर्भुज मूर्ति ईश्वर हो या न हो, पति, गुरु ईश्वर हो या न हो। जिसके हृदय में ईश्वर का भाव होगा वह भाव ही ईश्वर का निर्माण कर लेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 11.5.3
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