गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 6
यह बात समझनी है कि कोई वस्तु ज्यों-की-त्यों दिखेगी तो भाव बनाने की क्या जरूरत है? वह तो आँख ही देख रही है। आँख से दीख रहा है, दूसरी तरह का और हमारा हृदय बन रहा है - उत्तम-से-उत्तम सर्वोत्तम। यह अध्यात्म-विद्या, हृदय के निर्माण की विद्या है, वस्तु के निर्माण की विद्या नहीं है। आप लोहा बनाइये, आप कपड़ा बनाइये, आप सीमेंट बनाइये, जो मौज हो सो बनाइये। बाहर की चीजों को बनाना दूसरा है और अपने हृदय को बनाना दूसरा है। यह जो हमारी आत्म-विद्या है, यह हृदय को बनाने की विद्या है - वस्तुओं को बनाने की नहीं। इसलिए विद्वान पुरुष अपने हृदय में भाव करते हैं। दीख रहा है पीपल का पेड़ और हम भाव करते हैं कि यह साक्षात् वासुदेव है। पीपल तो पीपल ही रहेगा और हमारा हृदय वासुदेवाकार हो जायेगा। हम अपने हृदय में भगवान का दर्शन कर सकते हैं। यही भाव जब याद होता है तब हृदय में परमात्मा का दर्शन होता है। इस भाव का व्याख्यान दें - इसे विस्तार से सुनावें। मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् । शीशे में आप अपने को देखते हैं वह आपका स्वरूप नहीं है। यो यत्श्रद्धः स एव सः। आपकी श्रद्धा किस पर है? आपका प्रेम किस पर है? आप किसकी याद करके तन्मय हो जाते हैं? आपका स्वरूप वही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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