गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
अब हम गीता के छठे अध्याय में प्रवेश करते हैं हम जो संगीत गावें, उसका कुछ अर्थ भी होना चाहिए और उसमें आनन्द भी आना चाहिएं। केवल ताल-लय-स्वर की जो गति है, उससे विश्राम मिलता है, शक्ति की वृद्धि होती है उसमें जो अर्थामृत होता है वह शाश्वत प्रेरणा देता है। इसलिए संगीत में केवल ताल लाय स्वर का ही समावेश नहीं होना चाहिए। उसमें अर्थ का भी, अभिप्राय का भी सन्निवेश होना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण संगीत-विद्या में बड़े निपुण थे। उनकी वंशी, तो प्रसिद्ध ही है। परन्तु केवल बाँसुरी नहीं उसके साथ गीता भी है। उनके जीवन में एक ओर वंशी है, तो दूसरी ओर गीत है आप जानते होंगे एक बार श्रीकृष्ण पर इन्द्र प्रसन्न हुए। यह कथा महाभारत में है। इन्द्र हैं तो श्रीकृष्ण से छोटे, परन्तु श्रीकृष्ण में मानवता है और इन्द्र में देवत्व है। इसलिए इन्द्र ने श्रीकृष्ण से कहा कि वर माँगो। श्रीकृष्ण ने कहा कि मेरी और अर्जुन की मैत्री सर्वदा बनी रहे, हमारी मित्रता अटूट-अखण्ड हो। इन्द्र ने कहा- ‘तथास्तु’। इन्द्र के पुत्र हैं अर्जुन। आप एक सम्बन्ध पर विचार करें। इन्द्र हाथ के अधिष्ठातृ देवता हैं। सब इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता होते हैं। इसको आप ऐसे समझें कि जैसे आँख है। उससे आप सब लोग दीख रहे हैं। परन्तु यदि आँख का अधिष्ठातृ देवता सूर्य न हो या प्रकारान्तर से सूर्य प्रकाश न मिलता हो- चाहे बिजली में, चाहे आग में, चाहे चन्द्रमा में- तो आपकी आँख किसी वस्तु को नहीं देख सकती। आँख अध्यात्म इन्द्रिय है। जो रूप दीखता है वह अधिभूत है और सहायक अनुग्राहक सूर्य देवता है। जैसे आँख देवता सूर्य है वैसे ही हाथ का अनुग्राहक देवता इन्द्र है। इन्द्र का पुत्र है अर्जुन। कर्म के देवता के साथ अर्जुन का सम्बन्ध है। वह यदि कर्मत्याग कर देगा तो अपने मूलतत्त्व की ही उपेक्ष कर देगा। इसलिए अर्जुन के जीवन में कर्म होना आवश्यक है। एक दूसरी बात देखें। ईश्वर अपने लिए करण सुरक्षित नहीं रखता। करण माने औजार। वह बिना किसी दूसरी वस्तु की मदद लिए ही आनन्द स्वरूप है। जैसे आपके यहाँ घी है। वह गेहूँ कर मदद लेकर, चावल की मदद लेकर या शक्कर की मदद लेकर ही स्वाद दे सकता है। घी को स्वाद देने के लिए मददगार की जरूरत पड़ती है। परन्तु ईश्वर जब कोई अपना काम करता है तो वह किसी के अन्तःकरण में ही बैठ जाता है। ईश्वर ने अपने लिए रहने का कोई मकान नहीं बनाया। जितने भी अन्तःकरण हैं, सब ईश्वर के मकान हैं। जितने भी कण हैं। वे ईश्वर के आवास हैं। जिनते भी क्षण हैं, उनमें ईश्वर चमाचम चमक रहा है। प्रत्येक क्षण ईश्वर का प्रकाश है। प्रत्येक कण ईश्वर का आविर्भाव है। प्रत्येक मन ईश्वर का निवासस्थान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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