गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 5
गीता यह प्रसंग बड़ा आनन्ददायक है। अब यह है कि यहाँ बैठकर व्यापार की बात सोचोगे तब तो आनन्द नहीं आयेगा। उसको थोड़ी देर आफिस में छोड़ दो। संसार के भोग में क्या सुख होगा? बच्चे जब खेल में लग जाते हैं तो उनको माँ-बाप भी भूल जाते हैं। आओ भगवान में लगो। ‘रमन्ति’ रम गये। इसको व्याकरण के जो पण्डित हैं वे कहते हैं ‘रमन्ति’ नहीं बनता। ‘रमन्ते’ होता है। आत्मनेपदी धातु है। भगवान ने अपशब्द भाषण किया। ‘रमन्ति’ क्यों कहा? तो तुरन्त काशी का पण्डित बदल देता है। तुष्यन्ति च रमन्ति च। चरमन्ति-चरमाम् अवस्थाम् अनुभवन्ति - बस-बस, इसके आगे - आगे और कुछ नहीं - चरम अवस्था का अनुभव। ‘च’ बाद में भी है। दो ‘च’ होना भी ठीक नहीं है। और ‘रमन्ति’ भी ठीक नहीं है। एक पण्डित ने कह दिया ‘गौरीशंकराभ्या नौमि’ - अशुद्ध हो गय गौरीशंकराभ्याम् नमः होना चाहिए बोले - अशुद्ध नहीं है शुद्ध है - ‘गौरीशं कराभ्या नौमि’ - शुद्ध हो गया। ऐसे पण्डित लोग करते हैं ‘चरमन्ति च’। आओ रम जाओ। सन्तोष का अनुभव करो, दुनिया नहीं चाहिए और रम जाओ इस परमात्मा में रमने का उपाय क्या है। मच्चितता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्। एक बार आओ, भगवान के इस अमृतमय समुद्र में, इस ज्ञान की गंगा में, हृदय के आनन्द के फुहारे में - एक बार स्नान करो। मच्चितता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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