गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 8
जैसे जीव बँधता है, भय खाता है, पलायन करता है वैसे ही ईश्वर भी करता है, जैसे उसका कोई बन्धन नहीं मैय्या बाँधती है तो बँध जाता है, खोलती है तो खुल जाता है, वैसे ही जीव भी निर्बन्ध है। जीव जो-जो करता है ईश्वर वही-वही करेगा तो उन दोनों में बराबरी नहीं होगी। यदि बराबरी नहीं होगी तो दोनों एक साथ कैसे रहेंगे? दोनों की एकता होने के लिए बराबरी भी आवश्यक है। अन्तर केवल इतना है कि जीव में गुण-दोष अविद्या से हैं और ईश्वर में माया से हैं। जब माया और अविद्या का पर्दा अलग करके देखते हैं तो दोनों एक हैं। इसलिए जब हम जीव का जन्म उसके कर्मानुसार मानते हैं तो भगवान का स्वेच्छा से मानना पड़ेगा। ईश्वर की तरह जीव भी निराकर है। उसको साकार सिद्ध करने वाला सृष्टि में कोई है नहीं। जिस प्रकार निराकार जीव का जन्म सिद्ध हो सकता है उसी प्रकार निराकार परमात्मा जन्म भी अवश्य हो सकता है- जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: । भगवान का जन्म दिव्य है और जीव का जन्म कार्मिक है। भगवान के जन्म की दिव्यता जाने लेने पर जीव भी दिव्य हो जाता है। इसलिए क्यों न हम भगवान के जन्म-कर्म की दिव्यता का ज्ञान प्राप्त करें। उसके द्वारा स्वयं भी अपने जन्म, कर्म के बन्धन से छूट जायें। गीता हमारा मार्ग-दर्शन करने के लिए प्रस्तुत है। वह ऐसी विद्या है जो हमारी हीनता, घृणा, ग्लानि, पाप-ताप, अज्ञान और दुःखादि को ध्वस्त करके हमें परमेश्वर के साथ एकाकार कर सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक-4.9
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