विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) ‘हे पथिक! सुनो, यदि मैं तुम्हारे साथ उस द्वारिका देश में जाऊँ भी तो कैसे श्यामसुन्दर के दर्शन पाऊँगी?’ (क्योंकि वहाँ) बाहर (तो) राजाओं की बहुत भीड़ होगी, इसलिये किसी के पूछने पर (कि तुम कौन हो) मैं अपना मुख छिपा लूँगी और (राजभवन के) भीतर भी अपार (सुख-) भोगों तथा रानियों की भीड़ होगी, उस स्थान पर किसे भेजूँगी? (फिर भी) यदि बुद्धि-बल से (कुछ) उपाय और प्रयत्न करके उस नगर में प्रियतम श्यामसुन्दर के पास (अपना संदेश) पहुँचाऊँ भी तो अब (वे) वृन्दावन में रहकर रात्रि में कुंञ्जों में क्रीड़ा करने के रसिक (श्याम तो हैं नहीं, उन) के बिना किसे अपनी दशा सुनाऊँ। परिश्रम करके यदि स्वामी के पास चली जाऊँ तो अपने मन को (उनका राजसी ठाट दिखलाकर) भले मना लूँ; किंतु मुख पर वंशी रखे नवल-किशोर के बिना इन नेत्रों को क्या दिखाऊँगी (नेत्र तो केवल वंशीधर श्याम को ही देखना चाहते हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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