विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मैं लज्जा के मारे कुछ बोलती नहीं; पर एक दाव (अवश्य) लगाऊँगी (एक बार अन्तिम प्रयत्न करूँगी), चाहे नन्दनन्दन के लिये मर ही जाऊँ। व्रजनारियों और अपने गोकुल को छोड़कर उन्हें राज्य-सुख सुन्दर लगने लगे हैं। (और तो और, वे) कागज पर लिखकर पत्र भी नहीं भेजते, अपने मन की मौज (जो उन्होंने) पा ली है। जिन घरों को देखकर हमें आनन्द होता था, वे ही गोपाल के बिना भय के पात्र (भयानक) हो गये। किससे कहूँ, मेरा यह दुःख कौन सुने, श्यामसुन्दर जैसे (मन की सुनने वाले) प्रियतम (तो) दूर हैं। काली घटा के बादलों को देखकर (ऐसा) लगता है, मानो वियोग ने (हमें मारने के लिये) हाथ में कोड़ा ले रखा हो। (उन) परम चतुर श्यामसुन्दर के बिना अब यह सिर पर (नित-प्रति) (वियोग रूपी मेघ का) गरजना कौन सहे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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