विरह-पदावली -सूरदास
(183) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मेरा मन वैसी ही झाँकी का स्मरण करता है, (मोहन की) मंद मुस्कान और तिरछी चितवन हृदय से हटती नहीं। गायों के साथ (शाम को) गोपाल जब ओष्ठों पर वंशी रखे (घर) आते थे, तब माता यशोदा अपने अंचल से उनके मुख पर पड़ी धूलि झाड़ (पोंछ) कर उन्हें गोद में ले लेती थीं। संध्या के समय व्रज में उनका घूमना-उस शोभा की स्मृति कैसे भूल सकती है। (अब तो) स्वामी के दर्शनों के लिये नेत्रों से अश्रु ढुलकते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |