विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) श्यामसुन्दर! तुमने जो जाने की बात कही सो यह (तो) बिना पर्व (पूर्णिमा) के ही (आज) ग्रहण लग गया। हे रमाकान्त! पता नहीं, वह राहु कहाँ से (इस चन्द्रमा का) पता पा गया। (जान पड़ता है) वह नीच (राहु अपना अवसर) देखता हुआ आँखों के बीच अंजन के साथ मिलकर रह रहा था, सो (उसने) वियोग रूपी (पूर्णिमा और प्रतिपदा की) संधिका बल पाकर मानो हठपूर्वक गोपियों के मुख चन्द्र को ग्रस लिया। (और वह) अत्यन्त थका होने पर भी अपने असहनीय दाँत (हमारे मुखों पर) रख रहा है, जिसके कारण उसका स्पर्श सहा नहीं जाता। इसी से, हे देव! देखो, (मुख चन्द्र के) भीतर से स्नेहामृत (अश्रु रूप में) ऊपर बहा जा रहा है। अब यह चन्द्रमा ऐसा निस्तेज, फीका लगता है जैसे बिना मक्खन का मट्ठा हो। समस्त रसों के निधान आपके दर्शन के बिना (इन गोपियों के) मुख शोभा ने इन्हें अधिक जलाया (दुःखी किया) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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