महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन

देवताओं के जन्म के बाद दानवों ने भी जन्म लेना शुरु किया दानव भी महर्षियों के वंश में जन्म लेने लगे दानवों व देवता दोनों के वंश विवरण को वैशम्यपान जी ने इस तरह बताया है अत: महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 66 के अनुसार दानव व देवता आदि का महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान के रूप में जन्म लेने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन्! ब्रह्मा के मानस पुत्र छः महर्षियों के नाम तुम्हें ज्ञात हा चुके हैं। उनके सातवें पुत्र थे स्थणु स्थाणु परम तेजस्वी ग्यारह पुत्र विख्यात हैं। मृगव्याध, सर्प, महायशस्वी निर्ऋृति, अजैकपाद, अहिर्बुघ्न्य, शत्रुसंतापन पिनाकी, दहन, ईश्‍वर, परम कान्तिमान् कपाली, स्थाणु और भगवान भव- ये ग्यारह रुद्र माने गये हैं। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य पुलह और क्रतु- ये ब्रह्माजी के छः बड़े शक्तिशाली महर्षि हैं। अंगिरा के तीन पुत्र हुए, जो लोक में सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं- बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त! ये तीनों ही उत्तम व्रत धारण करने वाले हैं। मनुजेश्‍वर! अत्रि के बहुत-से पुत्र सुने जाते हैं। ये सब-के-सब वेदवेत्ता, सिद्व और शान्तचित्त महर्षि हैं। परश्रेष्ठ! बुद्धिमान् पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, बानर, किन्नर तथा यक्ष हैं।
राजन्! पुलह के शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याघ्र, रीछ और ईहामृग (भेडि़या) जाति के पुत्र हुए। क्रतु (यज्ञ) के पुत्र क्रतु ही समान पवित्र, तीनों लोकों में विख्यात, सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान सूर्य के आगे चलने वाले साठ हजार वालखिल्य ऋषि हुए। भूमिपाल! ब्रह्माजी के दाहिने अंगूठे से महातपस्वी शान्तचित्त महर्षि भगवान दक्ष उत्पन्न हुए। इसी प्रकार उन महात्मा के बायें अंगूठे से उनकी पत्नी का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि ने उसके गर्भ से पचास कन्याऐं उत्पन्न कीं। ये सभी कन्याऐं परम सुन्दर अंगोवाली तथा विकसित कमल के सदृश विशाल लोचनों से सुशोभित थीं। प्रजापति इक्ष के पुत्र जब नष्ट हो गये, तब उन्होंने अपनी उन कन्याओं को पुत्रिका बनाकर रखा (और उनका विवाह पुत्रिका धर्म के अनुसार ही किया)। राजन्! दक्ष ने दस कन्याऐं धर्म को, सत्ताईस कन्याऐं चन्द्रमा को और तेरह कन्याऐं महर्षि कश्‍यप को दिव्य विधि के अनुसार समर्पित कर दीं। अब मैं धर्म की पत्तिनयों के नाम बता रहा हूं, सुनो- कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेघा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्वि, लज्जा और मति- ये धर्म की दस पत्नियां हैं। स्वयंभू ब्रह्माजी ने इन सब को धर्म का द्वार निश्चित किया है अर्थात् इनके द्वारा धर्म में प्रवेश होता है। चन्द्रमा की सत्ताईस स्त्रियां समस्त लोकों में विख्यात हैं। वे पवित्र व्रत धारण करने वाली सोमपत्नियां काल-विभाग का ज्ञापन करने में नियुक्त हैं।

वसुओं का वंश विवरण

लोक-व्यवहार निर्वाह करने के लिकाये वे सब-की-सब नक्षत्र-वाचक नामों से युक्त हैं। पितामह ब्रह्माजी के स्तन से उत्पन्न होने के कारण मुनिवर धर्मदेव उनके पुत्र माने गये हैं। प्रजापति दक्ष भी ब्रह्माजी के ही पुत्र हैं। दक्ष की कन्याओं के गर्भ से धर्म के आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्हें वसुगण कहते हैं। अब मैं वसुओं का विस्तार पूर्वक परिचय देता हूँ। धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- ये आठ वसु कहे गये हैं।

देवता व दानवों का वंश विवरण

धर और ब्रह्मवेत्ता ध्रुव धूम्रा के पुत्र हैं। चन्द्रमा मनस्विनी के और अनिल श्वासा के पुत्र हैं। अहरता के और अनल शाण्डिली के पुत्र हैं और प्रत्युष और प्रभास ये दोनों प्रभाता के पुत्र बताये गये हैं। धर के दो पुत्र हुए द्रविण और हुतहव्यवह। सब लोकों को अपना ग्रास बनाने वाले भगवान काल ध्रुव के पुत्र हैं। सोम के मनोहर नामक स्त्री के गर्भ से प्रथम तो वर्चा नामक पुत्र हुआ, जिससे लोग वर्चस्वी (तेज, कान्ति और पराक्रम से सम्पन्न) होते हैं, फिर शिशिर, प्राण तथा रमण नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
अह के चार पुत्र हुए- ज्योति, शम, शान्त तथा मुनि। अनल के पुत्र श्रीमान् कुमार (स्कन्द) हुए, जिनका जन्मकाल में सरकंडो के वन में निवास था। शाख , विशाख और नैगमेय ये तीनों कुमार के छोटे भाई हैं। छः कृत्तिकाओं को माता रूप में स्वीकार कर लेने के कारण कुमार का दूसरा नाम कार्तिकेय भी है। अनिल की भार्या का नाम शिवा है। उसके दो पुत्र हैं- मनोजव तथा अविज्ञातगति। इस प्रकार अनिल के दो पुत्र कहे गये हैं। देवल नामक सुप्रसिद्ध मुनि को प्रत्यूष का पुत्र माना जाता है। देवल के भी दो पुत्र हुए। वे दोनों ही क्षमावान् और मनीषी थे।
बृहस्पति की वहिन स्त्रियों में श्रेष्ठ एवं ब्रह्मावादिनी थीं। वे योग में तत्पर हो सम्पूर्ण जगत् में अनासक्त भाव से विचरती रहीं। वे ही वसुओं में आठवे वसु प्रभास की धर्मपत्नी थीं। शिल्पकर्म के ब्रह्मा महाभाग विश्‍वकर्मा उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। वे सहत्रों शिल्पों के निर्माता तथा देवताओं के बढ़ई कहे जाते हैं। वे सब प्रकार के आभूषणों को बनाने वाले और शिल्पियों में श्रेष्ठ हैं। उन्होंने देवताओं के असंख्य दिव्य विमान बनाये हैं। मनुष्य भी महात्मा विश्‍वकर्मा के शिल्प का आश्रय ले जीवन निर्वाह करते हैं और सदा उन अविनाशी विश्‍वकर्मा की पूजा करते हैं। ब्रह्माजी के दाहिने स्तन को विदीर्ण करके मनुष्य रूप में भगवान धर्म प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण लोकों को सुख देने वाले हैं। उनके तीन श्रेष्ठ पुत्र हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के मन को हर लेते हैं। उनके नाम हैं- शम, काम और हर्ष। वे अपने तेज से सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाले हैं। काम की पत्नी का नाम रति है। शम की भार्या प्राप्ति है। हर्ष की पत्नी नन्दा है। इन्हीं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। मरीचि के पुत्र कश्‍यप और कश्‍यप के सम्पूर्ण देवता और असुर उत्पन्न हुए। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार कश्‍यप सम्पूर्ण लोकों के आदि कारण हैं। त्वष्टा की पुत्री संज्ञा भगवान सूर्य की धर्मपत्नी है। वे परम सौभाग्वती हैं।
उन्होंने अश्विनी (घोड़ी) का रूप का धारण करके अंतरिक्ष में दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया। राजन्! अदिति के इन्द्र आदि बारह आदि पुत्र ही हैं। उनमें भगवान विष्णु सबसे छोटे हैं जिनमें ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। इस प्रकार आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा प्रजापति और वसठकार हैं, ये तैतीस मुख्य देवता हैं। अब मैं तुम्हे इनके पक्ष और कुल आदि के उल्लेख पूर्वक वंश और गण आदि का परिचय देता हूँ। रुद्रों का एक अलग पक्ष या गण है, साध्य, मरुत तथा वसुओं का भी पृथक-पृथक गण है। इसी प्रकार भार्गव तथा विश्‍वेदव गण को भी जानना चाहिये। विनतानन्दन गरुड़, बलवान अरुण तथा भगवान बृहस्पति की गणना आदित्यों में ही की जाती है। अश्विनीकुमार, सर्वोषधि तथा पशु इन सबको गुह्यक समुदाय के भीतर समझो। राजन्! ये देवगण तुम्हें क्रमश: बताये गये हैं। मनुष्य इन सबका कीर्तन करके सब पापों से मुक्त हो जाता है। भगवान भृगु ब्रह्माजी के हृदय का भेदन करके प्रकट हुए थे। भृगु के विद्वान पुत्र कवि हुए और कवि के पुत्र शुक्राचार्य हुए, जो ग्रह होकर तीनों लोकों के जीवन की रक्षा के लिये वृष्टि, अनावृष्टि तथा भय और अभय उत्पन्न करते हैं। स्वयंभू ब्रह्माजी की प्रेरणा से समस्त लोकों का चक्कर लगाते रहते हैं।[2] महाबुद्धिमान शुक्र ही आचार्य और दैत्यों के गुरु हुए। वे ही योगवल से मेघावी, ब्रह्मचारी एवं व्रतपरायण बृहस्पति के रूप में प्रकट हो देवताओं के भी गुरु होते हैं। ब्रह्माजी ने जब भृगुपुत्र श्रुक को जगत् के योगक्षेम के कार्य में नियुक्त कर दिया, तब महर्षि भृगु ने एक दूसरे निर्दोष पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम था च्यवन। महर्षि च्यवन की तपस्या सदा उद्दीप्त रहती है। वे धर्मात्मा और यशस्वी हैं। भारत! वे अपनी माता को संकट से बचाने के लिये रोषपूर्वक गर्भ से च्युत हो गये थे (इसलिये च्यवन कहलाये)।
मनु की पुत्री आरूशि महर्षि च्यवन मुनि की पत्नी थी। उससे महायशस्वी और्व मुनि का जन्म हुआ। वे अपनी माता की उरू (जांघ) फाड़कर प्रकट हुए थे; इसलिये और्व कहलाये। वे महान् तेजस्वी और अत्यन्त शक्तिशाली थे। बचवन में ही अनेक सद्गुण उनकी शोभा बढाने लगे। और्व के पुत्र ऋचीक तथा ऋचीक के पुत्र जगदग्नि हुए। महात्मा जमदग्नि के चार पुत्र थे, जिनमें परशुरामजी सबसे छोटे थे; किन्तु उनके गुण छोटे नहीं थे; वे श्रेष्ठ सद्गुणों से विभूषित थे। सम्पूर्ण शस्त्र विद्या में कुशल, क्षत्रिय कुल का संहार करने वाले तथा जितेन्द्रिय थे। और्व मुनि के जमदग्नि आदि सौ पुत्र थे। फिर उनके भी सहस्रों पुत्र हुए। इस प्रकार इस पृथ्वी पर भृगु वंश का विस्तार हुआ। ब्रह्माजी के दो और पुत्र थे जिनका धारण-पोषण और सृष्टि रूप लक्षण लोक में सदा ही उपलब्ध होता है। उनके नाम हैं धाता और विधाता। ये मनु के साथ रहते हैं। कमलों में निवास करने वाली शुभस्वरूप लक्ष्मीदेवी उन दोनों की बहिन है। आकाश में विचरने वाले अश्‍व लक्ष्मीदेवी मानस पुत्र हैं। राजन्! वरुण के वीज से उनकी ज्येष्ठ पत्नी देवी ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया।
उसके पुत्र को तो बल और देवनन्दिनी पुत्री को सुरा समझो। तदनन्तर एक समय ऐसा आया जब प्रजा भूख से पीड़ित हो भोजन की इच्छा से एक-दूसरे को मारकर खाने लगी, उस समय वहाँ अधर्म प्रकट हुआ, जो समस्त प्राणियों का नाश करने वाला है। अधर्म की स्त्री निर्ऋृति हुई, जिसने नैर्ऋृत नाम वाले तीन भयंकर राक्षस पुत्र उत्पन्न हुए जो सदा पापकर्म में ही लगे रहने वाले हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- भय, महाभय और मृत्यु। उनमें मृत्यु समस्त प्राणियों का अन्त करने वाला है। उसके पत्नी या पुत्र कोई नहीं है; क्योंकि वह सबका अन्त करने वाला है। देवी ताम्रा ने काकी, श्येनी, भाषी, धृतराष्ट्री तथा शुकी इन पांच लोक विख्यात कन्याओं को उत्पन्न किया। जनेश्‍वर! काकी ने उल्लुओं और श्येनी बाजों को जन्म दिया; भाषी को मुर्गों तथा गीधों का उत्पन्न किया। कल्याणमयी धृतराष्ट्री ने सब प्रकार के हंसों, कलहंसो तथा चक्रवाकों को जन्म दिया। कल्याणमय गुणों से सम्पन्न तथा समस्त शुभलक्षणों से युक्त यशस्विनी शुकी ने शकों (तोतों) को ही उत्पन्न किया। क्रोधवशा ने नौ प्रकार के क्रोधजनित कन्याओं को जन्म दिया। उनके नाम ये है- मृगी, मृगमन्दा, हरि, भद्रमना, मातंगी, सार्दुली, स्वेता, सुरभि तथा सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न सुन्दरी सुरसा। नरश्रेष्ठ! समस्त मृग मृगी की संताने हैं। परमतप! मृगमन्दा से रीछ तथा सृमर (छोटी जाति के मृग) उत्पन्न हुए। भद्रमना ने एरावत हाथी को अपने पुत्र रूप में उत्पन्न किया। देवताओं का हाथी महान् गजराज ऐरावत भद्रमना का ही पुत्र है। [3] राजन्! तुम्हारा कल्याण हो, वेगवान् घोड़े और वानर हरि के पुत्र हैं। गाय के समान पूंछवाले लंगूरों को भी हरीका ही पुत्र बताया जाता है। शार्दुली ने सिंहों, अनेक प्रकार के बाघों और महान बलशाली सभी प्रकार के चीतों को भी जन्म दिया, इसमें संशय नहीं है। नरेश्‍वर! मातंगी ने मतवाले हाथियों को संतान के रूप में उत्पन्न किया। श्वेता ने शीघ्रगामी दिग्गज श्वेत को जन्म दिया। राजन्! तुम्हारा भला हो, सुरभि ने दो कन्याओं को उत्पन्न किया। उनमें से एक का नाम रोहिणी तथा दूसरे का नाम गन्धर्वी। गन्धर्वी बड़ी यशस्विनी थी। भारत! तत्पश्‍चात रोहिणी ने विमला और अनला नाम वाली दो कन्याऐं और उत्पन्न की।
रोहिणी से गाय-बैल और गन्धर्वी से घोड़े ही पुत्र रूप में उत्पन्न्न हुए। अनला ने सात प्रकार के वृक्षों को उत्पन्न किया, जिनमें पिण्डाकार फल लगते हैं। अनला के शुकी नाम की एक कन्या भी हुई कंक पक्षी सुरसा का पुत्र है। अरुण की पत्नी श्येनी ने दो महावली और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किये एक का नाम था सम्पाती और दूसरे का जटायु बड़ा शक्तिशाली था। सुरसा और कदरू ने नाग और पन्नग जाति के पुत्रों को उत्पन्न किया। विनता के दो ही पुत्र विख्यात हैं, गरूण और अरुण। सुरसा ने एक सौ एक सिर वाले सर्पों को जन्म दिया था। सुरसा से तीन कमलनयनी कन्याऐं उत्पन्न हुई जो वनस्पतियों, वृक्षों और लता-गुलमों की जननी हुई। उनके नाम इस प्रकार है- अनला, रूहा और विरूधा। जो वृक्ष बिना फूल के ही फल ग्रहण करते हैं उन सबको अनला का पुत्र जानना चाहिये; वे ही वनस्पति कहलाते हैं। प्रभो! जो फूल से फल ग्रहण करते हैं उन वृक्षों को रूहा की संतान समझो। लता, गुल्म, बल्ली, वांस और तिनकों की जितनी जातियां उन सबकी उत्पत्ति विरूधा से हुई है। यहाँ वंश वर्णन समाप्त होता है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण महाभूतों की उत्पत्ति का भलिभाँति वर्णन किया है। जिसे अच्छी तरह सुनकर मनुष्य सब पापों से पूर्णतः मुक्त हो जाता है और सर्वज्ञता तथा उत्तम गति प्राप्त कर लेता है। [4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-22
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 66 श्लोक 23-42
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 66 श्लोक 43-63
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 66 श्लोक 64-72

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अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन | व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना | कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत | महाभारत की महत्ता | उपरिचर का चरित्र | सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा | ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि | असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना | ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण | महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन | देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन | दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन | दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना | दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना | तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन | दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश | दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप | शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना | विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना | मेनका-विश्वामित्र का मिलन | कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण | शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह | कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन | शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति | पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना | आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन | भरत का राज्याभिषेक | दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति | पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन | कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना | देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध | देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह | शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना | देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप | शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना | शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना | शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना | सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार | ययाति और देवयानी का विवाह | ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति | ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन | देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद | शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना | ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह | ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना | ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना | ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य | ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना | ययाति की तपस्या | ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना | ययाति का स्वर्ग से पतन | ययाति और अष्टक का संवाद | अष्टक और ययाति का संवाद | ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद | ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना | ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना | ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना | पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, 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सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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