अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना

महाभारत आदि पर्व के ‘स्वयंवर पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 187 के अनुसार अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

अर्जुन का लक्ष्यवेध के लिए जाना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब सब राजाओं ने उस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाने के कार्य से मुंह मोड़ लिया, तब उदारबुद्धि अर्जुन ब्राह्मणमण्‍डली के बीच से उठकर खड़े हुए। इन्‍द्र की ध्‍वजा के समान (लम्‍बे) अर्जुन को उठकर धनुष की ओर जाते देख बड़े-बड़े ब्राह्मण अपने-अपने मृग-चर्म हिलाते हुए जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। कुछ ब्राह्मण उदास हो गये और कुछ प्रसन्‍नता के मारे फूल उठे और कुछ चतुर एवं बुद्धिजीवी बाह्मण आपस में इस प्रकार कहने लगे-। ‘ब्राह्मणो! कर्ण और शल्‍य आदि बलवान्, धनुर्वेद परायण तथा लोक विख्‍यात क्षत्रिय जिसे झुका (तक) न सके, उसी धनुष पर अस्‍त्र ज्ञान से शून्‍य और शारीरिक बल की द्दष्टि से अत्‍यन्‍त दुर्बल यह निरा ब्राह्मण-बालक कैसे प्रत्‍यञ्चा चढ़ा सकेगा। ‘इसने बालोचित चपलता के कारण इस कार्य की कठिनाई पर विचार नहीं किया है। यदि‍ इसमें यह सफल न हुआ तो समस्‍त राजाओं में ब्राह्मणों की बड़ी हंसी होगी। ‘यदि वह अभिमान, हर्ष अ‍थवा ब्राह्मणसुलभ चंचलता के कारण धनुष पर डोरी चढ़ाने के लिये आगे बढ़ा है तो इसे रोक देना चाहिये; अच्‍छा तो यही होगा कि यह जाय ही नहीं’। ब्राह्मण बोले-(भाइयों! ) हमारी हंसी नहीं होगी। न हमें किसी के सामने छोटा ही बनना पड़ेगा और लोक में हम लोग राजाओं के द्वेषपात्र भी नहीं होगे। (अत: इन बातों की चिन्‍ता छोड़ दो)।[1]

ब्राह्मणों द्वारा अर्जुन की प्रशंसा

कुछ ब्राह्मणों ने कहा- ‘यह सुन्‍दर युवक नागराज ऐरावत के शुण्‍ड-दण्‍ड के समान हष्‍ट-पुष्‍ट दिखायी देता है। इसके कंधे सुपुष्‍ट और भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं। यह धैर्य में हिमालय के समान जान पड़ता है। ‘इसकी सिंह के समान मस्‍तानी चाल है। यह शोभाशाली तरुण मतवाले गजराज के समान पराक्रमी प्रतीत होता है। इस वीर के लिये यह कार्य करना सम्‍भव है। इसका उत्‍साह देखकर भी ऐसा ही अनुमान होता है। ‘इसमें शक्ति और महान् उत्‍साह है। यदि वह असमर्थ होता तो स्‍वयं ही धनुष के पास जाने का साहस नहीं करता। सम्‍पूर्ण लोकों में देवता, असुर आदि के रुप में विचरनेवाले पुरुषों का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो ब्राह्मणों के लिये असाध्‍य हो। ब्राह्मणलोग जल पीकर, हवा खाकर अथवा फलाहार करके (भी) द्दढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हैं। अत: वे शरीर से दुबले होने पर भी अपने तेज के कारण अत्‍यन्‍त बलवान् होते हैं। ब्राह्मण भला-बुरा, सुखद-दु:खद और छोटा-बड़ा –जो भी कर्म प्राप्‍त होता है, कर लेता है; अत: किसी भी कर्म को करते समय उस ब्राह्मण का अपमान नहीं करना चाहिये। मैं भूमण्‍डल में ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता जो धनुर्वेद, वेद तथा नाना प्रकार के योगों में ब्राह्मण से बढ़-चढ़कर हो। श्रेष्‍ठ ब्राह्मण मन्‍त्र-बल, योग-बल अथवा महान् आत्‍मबल से इस सम्‍पूर्ण जगत् को स्‍तब्‍ध कर सकते हैं। (अत: उसके प्रति तुच्‍छ बुद्धि नहीं रखनी चाहिये।) देखो, जमदग्निनन्‍दन परशुरामजी ने अकेले ही (सम्‍पूर्ण) क्षत्रियों को युद्ध में जीत लिया था। ‘महर्षि अगस्‍त्‍य ने अपने ब्राह्मतेज के प्रभाव से अगाध समुद्र को पी डाला। इसलिये आप सब लोग यहाँ आशीर्वाद दें कि यह महान् ब्रह्मचारी शीघ्र ही इस धनुष को चढ़ा दे (और लक्ष्‍य-वेध करने में सफल हो)।’ यह सुनकर वे श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उसी प्रकार आशीर्वाद की वर्षा करने लगे।[1]

अर्जुन का लक्ष्यवेधना

इस प्रकार जब ब्राह्मण लोग भाँति-भाँति की बातें कर रहे थे, उसी समय अर्जुन धनुष के पास जाकर पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। फिर उन्‍होंने धनुष के चारों ओर घूमकर उसकी परिक्रमा की। इसके बाद वरदायक भगवान शंकर को मस्‍तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्‍ण का चिन्‍तन करके अर्जुन ने वह धनुष उठा लिया। रुक्‍म, सुनीथ, वक्र, कर्ण, दुर्योधन, शल्‍य तथा शाल्‍व आदि धनुर्वेद के पारंगत विद्वान पुरुषसिंह राजा लोग महान प्रयत्‍न करके भी जिस धनुष पर डोरी न चढ़ा सके, उसी धनुष पर विष्‍णु के समान प्रभावशाली एवं पराक्रमी वीरों में श्रेष्‍ठता का अभिमान रखनेवाले इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने पलक मारते-मारते प्रत्‍यञ्चा चढ़ा दी। इसके बाद उन्‍होंने वे पांच बाण भी अपने हाथ में ले लिये। और उन्‍हें चलाकर बात-की-बात में (लक्ष्‍य) वेध दिया।वह बिंधा हुआ लक्ष्‍य अत्‍यन्‍त छिन्‍न-भिन्‍न हो यन्‍त्र के छेद से सहसा पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। उस समय आकाश में बड़े जोर का हर्षनाद हुआ और सभामण्‍डप में तो उससे भी महान् आनन्‍द-कोलाहल छा गया। देवता लोग शत्रुहन्‍ता अर्जुन के मस्‍तक पर दिव्‍य फुलों की वर्षा करने लगे। सहस्‍त्रों ब्राह्मण (हर्ष में भरकर) वहाँ अपने दुपट्टे हिलाने लगे (मानो अर्जुन की विजय-ध्‍वजा फहरा रहे हों), फिर तो (जो लोग लक्ष्‍यवेध करने में असमर्थ हो हार मान चुके थे) वे राजा लोग सब ओर से हाहाकार करने लगे। उस रणभूमि में आकाश से सब ओर फूलों की वर्षा हो रही थी। बाजा बजाने वाले लोग सैकड़ों अंगोवाली तुरही आदि बजाने लगे। सूत और मागधगण वहाँ मीठे स्‍वर से यशोगान करने लगे।[2]

द्रौपदी का अर्जुन को वरमाला पहनाना

अर्जुन को देखकर शत्रुसूदन द्रुपद के हर्ष की सीमा न रही। उन्‍होंने अपनी सेना के साथ उनकी सहायता करने का निश्‍चय किया। उस समय जब महान् कोलाहल बढ़ने लगा, धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर पुरुषोत्‍तम नकुल और सहदेव को साथ लेकर डेरे पर ही चले गये। लक्ष्‍य को बींघकर धरती पर गिरा देख इन्‍द्र के तुल्‍य पराक्रमी अर्जुन पर द्दष्टि डालकर हाथ में सुन्‍दर श्‍वेत फूलों की जयमाला लिये द्रौपदी मन्‍द-मन्‍द मुसकराती हुई कुन्‍तीकुमार के समीप गयी। उसका रुप जिन्‍होंने बार-बार देखा था, उनके लिये भी वह नित्‍य नयी-सी जान पड़ती थी। वह द्रुपदकुमारी बिना हंसी के भी हंसती-सी प्रतीत होती थी। मदसेवन के बिना भी (आन्‍तरिक अनुराग-सूचक) भावों के द्वारा लड़खड़ाती-सी चलती थी और बिना बोले भी केवल दृष्टि से ही बातचीत करती-सी जान पड़ती थी। निकट जाकर राजकुमारी द्रौपदी ने वहाँ जुटे हुए समस्‍त राजाओं के समक्ष उन सबकी उपेक्षा करके सहसा वह माला अर्जुन के गले में डाल दी और विनयपूर्वक खड़ी हो गयी। जैसे शची ने देवराज इन्‍द्र का, स्‍वाहा ने अग्निदेव का, लक्ष्‍मी ने भगवान् विष्‍णु का, उषा ने सूर्यदेव का, रति ने कामदेव का, गिरिराजकुमारी उमा ने महेश्‍वर का, विेदेहराजनन्दिनी सीता ने श्रीराम का तथा भीमकुमारी दमयन्‍ती ने नृपश्रेष्‍ठ नल का वरण किया था, उसी प्रकार द्रौपदी ने पाण्‍डु पुत्र अर्जुन का वरण कर लिया। अद्भुत कर्म करने वाले अर्जुन इस प्रकार उस स्‍वंयवर सभा में (स्‍त्री-रत्‍न द्रौपदी को जीतकर) उसे अपने साथ ले रंगभूमि से बाहर निकले)। पत्‍नी द्रौपदी उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उस समय उपस्थित ब्राह्मणों ने उनका बड़ा सत्‍कार किया।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 187 श्लोक 1-15
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 187 श्लोक 16-28

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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