- महाभारत आदि पर्व के ‘वैवाहिक पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 197 के अनुसार द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह का वर्णन इस प्रकार है[1]-
द्रुपद बोले - ‘ब्रह्मर्षे! आपके इस वचन को न सुनने के कारण ही पहले मैंने वैसा करने (कृष्णा को एक ही योग्य पति से ब्याह ने) का प्रयत्न किया था; परंतु विधाता ने जो रच रखा है, उसे टाल देना असम्भव है; अत: उसी पूर्व निश्चित विधान का पालन करना उचित है। भाग्य में जो लिख दिया है, उसे कोई भी बदल नहीं सकता। अपने प्रयत्न से यहाँ कुछ नहीं हो सकता। एक वर की प्राप्ति के लिये जो साधन (तप) किया गया, वही पांच पतियों की प्राप्ति का कारण बन गया; अत: दैव के द्वारा पूर्वनिश्चित विधान का पालन करना उचित है। पूर्वजन्म में कृष्णा ने अनेक बार भगवान शंकर से कहा - ‘प्रभो! मुझे पति दें। ‘जैसा उसने कहा, वैसा ही वर उन्होंने भी उसे दे दिया। अत: इसमें कौन-सा उत्तम रहस्य छिपा है, उसे वे भगवान ही जानते है। यदि साक्षात शंकर ने ऐसा विधान किया है तो वह धर्म हो या अधर्म, इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। वे पाण्डव लोग विधिपूर्वक प्रसन्नता से इसका पाणिग्रहण करें; विधाता ने ही कृष्णा को इन पाण्डवों की पत्नी बनाया है।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर भगवान व्यास ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा - ‘पाण्डुनन्दन! आज ही तुम लोगों के लिये पुण्य-दिवस है। आज चन्द्रमा भरण-पोषण कारक पुष्य नक्षत्र पर जा रहे हैं; इसलिये आज पहले तुम्हीं कृष्णा का पाणिग्रहण करो।’ व्यास जी का आदेश सुनकर पुत्रों सहित राजा द्रुपद ने वर-वधू के लिये कथित समस्त उत्तम वस्तुओं को मंगवाया और अपनी पुत्री कृष्णा को स्नान कराकर बहुत-से रत्नमय आभूषणों-द्वारा विभूषित किया। तत्पश्चात राजा के सभी सुह्रद-सम्बन्धी, मन्त्री, ब्राह्मण और पुरवासी अत्यन्त प्रसन्न हो विवाह देखने के लिये आये और बड़ों को आगे करके बैठे। तदनन्तर राजा द्रुपद का वह भवन श्रेष्ठ पुरुषों से सुशोभित होने लगा। उसके आंगन को विस्तृत कमल और उत्पन आदि से सजाया गया था। वहाँ एक ओर सेनाएं खड़ी थीं और दूसरी ओर रत्नों का ढेर लगा था। इससे वह राजभवन निर्मल तारकाओं से संयुक्त आकाश की भाँति विचित्र शोभा धारण कर रहा था। इधर युवावस्था से सम्पन्न कौरव-राजकुमार पाण्डव वस्त्राभूषणों से विभूषित और कुण्डलों से अलंकृत हो अभिषेक और मंगलाचार करके बहूमुल्य कपड़ों एवं केसर, चन्दन से सुशोभित हुए। तब अग्नि के समान तेजस्वी अपने पुरोहित धौम्यजी के साथ विधिपूर्वक बड़े-छोटे के क्रम से वे सभी प्रसन्नतापूर्वक विवाह मण्डप में गये-ठीक उसी तरह, जैसे बड़े-बड़े सांड गोशाला में प्रवेश करें। तत्पश्चात वेद के पारंगत विद्वान मन्त्रज्ञ पुरोहित धौम्य ने (वेदी पर) प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके उसमें मन्त्रों द्वारा आहुती दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्णा के साथ उनका गंठबन्धन कर दिया। वेदों के परिपूर्ण विद्वान पुरोहित ने उन दोनों दम्पति का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान करके) उनका विवाह कार्य सम्पन्न कर दिया। इसके बाद संग्राम में शोभा पाने वाले युधिष्ठिर को छुट्टी देकर पुरोहितजी भी उस राजभवन से बाहर चले गयें। इसी क्रम से कौरव-कुल की वृद्धि करने वाले, उत्तम शोभा धारण करने वाले महारथी राजकुमार पाण्डवों ने एक-एक दिन परम सुन्दरी द्रौपदी का पाणिग्रहण किया।[1] देवर्षि ने वहाँ घटित हुई इस अद्भुत, उत्तम एवं अलौकिक घटना का वर्णन किया है कि सुन्दर कटि प्रदेश वाली महानुभावा द्रौपदी प्रतिवार विवाह के दूसरे दिन कन्याभाव को ही प्राप्त हो जाती थी। विवाह-कार्य सम्पन्न हो आने पर द्रुपद ने महारथी पाण्डवों को दहेज में बहुत-सा धन और नाना प्रकार की उत्तम वस्तुएं समर्पित कीं। सुन्दर सुवर्ण की मालाओं और सुवर्ण-जटित जुओं से सुशोभित सौ रथ प्रदान किये, जिनमें चार-चार घोड़े जुते हुए थे। पद्य आदि उत्तम लक्षणों से युक्त सौ हाथी तथा पर्वतों के समान ऊंचे और सुनहरे हौदों से सुशोभित सौ हाथी और (साथ ही) बहुमूल्य श्रृंगार-सामग्री, वस्त्राभुषण एवं हार धारण करने वाली एक सौ नवयौवना दासियां भेंट की सोमकवंश में उत्पन्न महानुभाव राजा द्रुपद ने इस प्रकार अग्नि को साक्षी मानकर प्रत्येक सुन्दर दृष्टि वाले पाण्डवों के लिये अलग-अलग प्रचुर धन तथा प्रभुत्व-सूचक बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण अर्पित किये। विवाह के पश्चात इन्द्र के समान महाबली पाण्डव प्रचुर रत्नराशि के साथ लक्ष्मी स्वरुपा द्रौपदी को पाकर पाञ्चालराज द्रुपद के ही नगर में सुखपूर्वक विहार करने लगे। राजन सभी पाण्डव द्रौपदी की सुशीलता, एकाग्रता और सद्व्यवहार से बहुत संतुष्ट थे (और द्रौपदी को भी संतुष्ट रखने का प्रयत्न करते थे)। इसी प्रकार द्रुपद कुमारी कृष्णा भी उस समय अपने उत्तम नियमों द्वारा पाण्डवों का आनन्द बढ़ाती थी।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| भीम और वकासुर का युद्ध
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| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
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| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
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| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
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| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
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वैवाहिक पर्व
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