- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 94 के अनुसार पुरुवंश का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
पुरुवंश के राजाओं का परिचय
जनमेजय बोले - भगवन अब मैं पूरु के वंश का विस्तार करने वाले राजाओं का परिचय सुनना चाहता हूँ। उनका बल और पराक्रम कैसा था? वै कैसे और कितने थे? मेरा विश्वास है कि इस वंश में पहले कभी किसी प्रकार भी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ है, जो शील रहित, बल पराक्रम से शून्य अथवा संतान हीन रहा हो। तपोधन जो अपने सदाचार के लिये प्रसिद्ध और विवेक सम्पन्न थे, उन सभी पूरुवंशी राजाओं के चरित्र को मुझे विस्तार पूर्वक सुनने की इच्छा है।
वैशम्पायन जी ने कहा - जनमेजय तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं बताऊंगा। पूरु के वंश में उत्पन्न हुए वीर नरेश इन्द्र के समान तेजस्वी, अत्यन्त धनवान, परम पराक्रमी तथा समस्त शुभ लक्षणों से सम्मानित थे। (उन सबका परिचय देता हूं)। पूरु के पौष्टि नामक पत्नी के गर्भ से प्रवीर, ईश्वर तथा रौद्राश्व नामक तीन महारथी पुत्र हुए इनमें से प्रवीर अपनी वंश-परम्परा को आगे बढ़ाने वाले हुए। प्रवीर के पुत्र का नाम मनस्यु था जो शूरसेनी के पुत्र और शक्तिशाली थे। कमल के समान नेत्र वाले मनस्यु ने चारों समुद्रों से घिरी हुई समस्त पृथ्वी का पालन किया। मनस्यु के सौवीरी के गर्भ से तीन पुत्र हुए- शक्त, संहनन और वाग्मी। वे सभी शूरवीर और महारथी थे। पूरु के तीसरे पुत्र मनस्वी रौद्राश्व के मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से अन्वग्भानु आदि दस महाधनुर्धर पुत्र हुए, जो सभी यज्ञकर्ता, शूरवीर, संतानवान, अनेक शास्त्रों के विद्वान सम्पूर्ण अस्त्र विद्या के ज्ञाता तथा धर्मपरायण थे। (उन सबके नाम इस प्रकार हैं-) ऋचेयु, कक्षेयु, पराक्रमी कृकणेयु, स्थण्डिलेयु, वनेयु, महायशस्वी जलेयु, बलवान और बुद्धिमान तेजेयु, इन्द्र के समान पराक्रमी सत्येयु, धर्मेयु तथा दसवें देवतुल्य पराक्रमी संनतेयु। ॠचेयु जिनका नाम अनाधृष्टि भी है, अपने सब भाइयों में वैसे ही विद्वान और पराक्रमी हुए, जैसे देवतओं में इन्द्र। वे भूमण्डल के चक्रवर्ती राजा थे। अनाधृष्टि के पुत्र का नाम मतिनार था। राजा मतिनार राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ करने वाले एवं परम धर्मात्मा थे। राजन मतिनार के चार पुत्र हुए, जो अत्यन्त पराक्रमी थे। उनके नाम ये हैं- तंसु, महान, अतिरथ और अनुपम तेजस्वी द्रुह्यु। इनमें महापराक्रमी तंसु ने पौरव वंश का भार बहन करते हुए उज्ज्वल यश का उपार्जन किया और सारी पृथ्वी को जीत लिया। पराक्रमी तंसु ने ईलिन नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ था। उसने भी सारी पृथ्वी जीत ली थी। ईलिन ने रथन्तरीन नाम वाली अपनी पत्नी के गर्भ से पंचमहाभूतों के समान दुष्यन्त आदि पांच राजपुत्रों को पुत्ररूप में उत्पन्न किया। (उनके नाम ये हैं-) दुष्यन्त, शूर, भीम, प्रवसु तथा वसु। जनमेजय इनमें सबसे बड़े होने के कारण दुष्यन्त राजा हुए। दुष्यन्त विद्वान राजा भरत का जन्म हुआ, जो शकुन्तला के पुत्र थे। उन्हीं से भरतवंश का महान यश फैला। भरत ने अपनी तीन रानियों से नौ पुत्र उत्पन्न किये। किंतु ‘ये मेरे अनुरुप नहीं हैं’ ऐसा कहकर राजा ने उन शिशुओं का अभिनन्दन नहीं किया। तब उन शिशुओं की माताओं ने कुपित होकर उनको मार डाला। इससे महाराज भरत का वह पुत्रोत्पादन व्यर्थ हो गया।[1]
भारत तब महाराज भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया और महर्षि भरद्वाज की कृपा से एक पुत्र प्राप्त किया, जिसका नाम भुमन्यु था। भरतश्रेष्ठ तदनन्तर पौरव कुल का आनन्द बढ़ाने वाले भरत ने अपने को पुत्रवान समझकर भुमन्यु को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। भुमन्यु के दिविरथ नामक पुत्र हुआ। उसके सिवा सुहोत्र, सुहोता, सुहवि, सुजयु और ऋचीक भी भुमन्यु के ही पुत्र थे। ये सब पुष्करिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इन सब क्षत्रियों में सुहोत्र ही ज्येष्ठ थे। अत: उन्हीं को राज्य मिला। राजा सुहोत्र ने राजसूय तथा अश्वमेध आदि अनेक यज्ञों द्वारा यजन किया और समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का, जो हाथी-घोड़ों से परिपूर्ण तथा अनेक प्रकार के रत्नों से सम्पन्न थी, उपभोग किया। जब राजा सुहोत्र धर्मपूर्वक प्रजा का शासन कर रहे थे, उस समय सारी पृथ्वी हाथी, घोड़ों, रथ और मनुष्यों से खचाखच भरी थी। उन पशु आदि के भारी भार से पीड़ित होकर राजा सुहोत्र के शासन काल की पृथ्वी मानों नीचे धंसी जाती थी। उनके राज्य की भूमि लाखों चैत्यों (देव-मन्दिरों) और यज्ञयूपों से चिह्नित दिखाई देती थी। सब लोग हृष्ट-पुष्ट होते थे। खेती की उपज अधिक हुआ करती थी। इस प्रकार उस राज्य की पृथ्वी सदा ही अपने वैभव से सुशोभित होती थी। भारत राजा सुहोत्र से ऐक्ष्वाकी ने अजमीढ, सुमीढ तथा पुरुमीढ नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया। उनमें अजमीढ ज्येष्ठ थे। उन्हीं पर वंश की मार्यादा टिकी हुई थी। जनमेजय उन्होंने भी तीन स्त्रियों के गर्भ से छ: पुत्रों को उत्पन्न किया। उनकी धूमिनी नाम वाली स्त्री ने ॠक्ष को, नीली ने दुष्यन्त और परमेष्ठी को तथा केशिनी ने जह्र, व्रजन तथा रूपिण इन तीन पुत्रों को जन्म दिया। इनमें दुष्यन्त और परमेष्ठी के सभी पुत्र पाञ्चाल कहलाये। अमित तेजस्वी जह्र के वंशज कुशिक नाम से प्रसिद्ध हुए। व्रजन तथा रूपिण के ज्येष्ठ भाई ॠक्ष को राजा कहा गया है। ॠक्ष से संवरण का जन्म हुआ। ये वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र थे। जनमेजय ॠक्ष पुत्र सवरण जब इस पृथ्वी का शासन कर रहे थे, उस समय प्रजा का बहुत बड़ा संहार हुआ था, ऐसा हमने सुना है। इस प्रकार नाना प्रकार से क्षय होने के कारण वह सारा राज्य नष्ट-सा हो गया। सबको भूख, मृत्यु, अनावृष्टि और व्याधि आदि के कष्ट सताने लगे। शत्रुओं की सेनाऐं भरतवंशी योद्धाओं का नाश करने लगीं। पाञ्चाल नरेश ने इस पृथ्वी को कम्पित करते हुए चतुरंगिणी सेना के साथ संवरण पर आक्रमण किया और उनकी सारी भूमि वेगपूर्वक जीतकर दस अक्षौहिणी सेनाओं द्वारा संवरण को भी युद्ध में परास्त कर दिया। तदनन्तर स्त्री, पुत्र, सुहृद् और मन्त्रियों के साथ राजा सवंरण महान भय के कारण वहाँ से भाग चले। उस समय उन्होंने सिंधु नामक महानद के तटवर्ती निकुञ्ज में, एक पर्वत के समीप से लेकर नदी के तट तक फैला हुआ था, निवास किया। वहाँ उस दुर्ग का आश्रय लेकर भरतवंशी क्षत्रिय बहुत वर्षों तक टिके रहे। उन सबको वहाँ रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये।[2]
इसी समय उनके पास भगवान महर्षि वसिष्ठ आये। उन्हें आया देख भरतवंशियों ने प्रयत्नपूर्वक उनकी अगवानी की और प्रणाम करके सबने उनके लिये अर्ध्य अर्पण किया। फिर उन तेजस्वी महर्षि को सत्कार पूर्वक अपना सर्वस्व समर्पण करके उत्तम आसन पर बिठाकर राजा ने स्वयं उनका वरण करते हुए कहा- ‘भगवन हम पुन: राज्य के लिये प्रयत्न कर रहे हैं। आप हमारे पुरोहित हो जाइये।’ तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वसिष्ठ जी ने भी भरतवंशियों को अपनाया और समस्त भूमण्डल में उत्कृष्ट पूरुवंशी संवरण को समस्त क्षत्रियों के सम्राट्-पद पर अभिषिक्त कर दिया, ऐसा हमारे सुनने में आया है। तत्पश्चात् महाराजा संवरण, जहाँ प्राचीन भरतवंशी राजा रहते थे, उस श्रेष्ठ नगर में निवास करने लगे। फिर उन्होंने सब राजाओं को जीतकर उन्हें कर बना लिया। तदनन्तर वे महाबली नरेश अजमीढ वंशी संवरण पुन: पृथ्वी का राज्य पाकर बहुत दक्षिणा वाले बहुसंख्यक महायज्ञों द्वारा भगवान का यजन करने लगे। कुछ काल के पश्चात् सूर्य कन्या तपनी ने संवरण के वीर्य से कुरु नामक पुत्र को जन्म दिया। कुरु को धर्मज्ञ मानकर सम्पूर्ण प्रजावर्ग के लोगों ने स्वयं उनका राजा के पद पर वरण किया। उन्हीं के नाम से पृथ्वी पर कुरुजांगल देश प्रसिद्ध हुआ। उन महातपस्वी कुरु ने अपनी तपस्या के वल से कुरुक्षेत्र को पवित्र बना दिया। उनके पांच पुत्र सुने गये हैं- अश्ववान, अभिष्यन्त, चैत्ररथ, मुनि तथा सुप्रसिद्ध जनमेजय इन पांचों पुत्रों को उनकी मनस्विनी पत्नी वाहिनी ने जन्म दिया था। अश्ववान का दूसरा नाम अविक्षित था। उसके आठ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- परिक्षित, पराक्रमी शबलाश्व, आदिराज, विराज, महाबली शल्मलि, उ च्चै:श्रवा, भंगकार तथा आठवां जितारि। इनके वंश में जनमेजय आदि अन्य सात महारथी भी हुए, जो अपने कर्मजनित गुणों से प्रसिद्ध हैं। परिक्षित के सभी पुत्र धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे; जिनके नाम इस प्रकार हैं- कक्षसेन, उग्रसेन, पराक्रमी चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण और भीमसेन। जनमेजय के महाबली पुत्र भूमण्डल में विख्यात थे। उनमें प्रथम पुत्र का नाम धृतराष्ट्र था। उनसे छोटे क्रमश: पाण्डु, वाह्रीक महातेजस्वी निषध, बलवान जाम्बूनद, कुण्डोदर, पदाति तथा वसाति थे। इनमें वसाति आठवां था। ये सभी धर्म और अर्थ में कुशल तथा समस्त प्राणियों के हित में संलग्न रहने वाले थे। इनमें धृतराष्ट्र राजा हुए। उनके पुत्र कुण्डिक, हस्ती, वितर्क, क्राथ, कुण्डिन, हवि:श्रवा, इन्द्राभ, भुमन्यु और अपराजित थे। भारत इनके सिबा प्रतीप, धर्म नेत्र और सुनेत्र ये तीन पुत्र और थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों में ये ही तीन इस भूतल-पर अधिक विख्यात थे। इनमें भी प्रतीप की प्रसिद्धि अधिक थी। भूमण्डल में उनकी समानता करने वाला कोई नहीं था। भरतश्रेष्ठ प्रतीप के तीन पुत्र हुए- देवापि, शान्तनु और महारथी वाह्लीक । इनमें से देवापि धर्माचरण द्वारा कल्याण प्राप्ति की इच्छा से वन को चले गये, इसलिये शान्तनु एवं महारथी वाह्रीक ने इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया। राजन भरत के वंश में सभी नरेश धैर्यवान एवं शक्तिशाली थे। उस वंश में बहुत-से श्रेष्ठ नृपतिगण देवर्षियों के सामन थे। ऐसे ही और कितने ही देवतुल्य महारथी मनुवंश में उत्पन्न हुए थे, जो महाराज पूरुरवा के वंश की वृद्धि करने वाले थे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-21
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 94 श्लोक 22-41
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 94 श्लोक 42-64
संबंधित लेख
महाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँ
पर्वसंग्रह पर्व
समन्तपंचक क्षेत्र
| अक्षोहिणी सेना
| महाभारत में वर्णित पर्व
पौष्य पर्व
जनमेजय को सरमा का शाप
| जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित पद
| आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति
| उत्तंक का सर्पयज्ञ
पौलोम पर्व
महर्षि च्यवन का जन्म
| भृगु द्वारा अग्निदेव को शाप
| अग्निदेव का अदृश्य होना
| प्रमद्वरा का जन्म
| प्रमद्वरा की सर्प के काटने से मृत्यु
| प्रमद्वरा और रुरु का विवाह
| रुरु-डुण्डुभ संवाद
| डुण्डुभ की आत्मकथा
| जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा
आस्तीक पर्व
पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति
| जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण
| आस्तीक का जन्म
| कद्रु-विनता को पुत्र प्राप्ति
| मेरु पर्वत पर भगवान नारायण का समुद्र-मंथन के लिए आदेश
| भगवान नारायण का मोहिनी रूप
| देवासुर संग्राम
| कद्रु और विनता की होड़
| कद्रु द्वारा अपने पुत्रों को शाप
| नाग और उच्चैश्रवा
| विनता का कद्रु की दासी होना
| गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच
| कद्रु द्वारा इंद्रदेव की स्तुति
| गरुड़ का दास्यभाव
| गरुड़ का अमृत के लिए जाना और निषादों का भक्षण
| कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाना
| गरुड़ का कश्यप जी से मिलना
| इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का अपमान
| अरुण-गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ का देवताओं से युद्ध
| गरुड़ का विष्णु से वर पाना
| इन्द्र और गरुड़ की मित्रता
| इन्द्र द्वारा अमृत अपहरण
| शेषनाग की तपस्या
| जरत्कारु का जरत्कारु मुनि के साथ विवाह
| जरत्कारु की तपस्या
| परीक्षित का उपाख्यान
| श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को शाप
| तक्षक नाग और कश्यप
| जनमेजय का राज्यभिषेक और विवाह
| जरत्कारु को पितरों के दर्शन
| जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह
| जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह
| परीक्षित के धर्ममय आचार
| परीक्षित द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार
| श्रृंगी ऋषि का परिक्षित को शाप
| जनमेजय की प्रतिज्ञा
| जनमेजय के सर्पयज्ञ का उपक्रम
| सर्पयज्ञ के ऋत्विजों की नामावली
| तक्षक का इंद्र की शरण में जाना
| आस्तीक का सर्पयज्ञ में जाना
| आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, अग्निदेव आदि की स्तुति
| सर्पयज्ञ में दग्ध हुए सर्पों के नाम
| आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना
अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम
जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन
| व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना
| कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत
| महाभारत की महत्ता
| उपरिचर का चरित्र
| सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा
| ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि
| असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना
| ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण
| महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन
| देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन
| दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन
| दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना
| दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना
| तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन
| दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश
| दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप
| शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना
| विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना
| मेनका-विश्वामित्र का मिलन
| कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण
| शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह
| कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन
| शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति
| पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना
| आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन
| भरत का राज्याभिषेक
| दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति
| पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन
| कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना
| देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध
| देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह
| शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना
| देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप
| शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना
| शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना
| शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना
| सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार
| ययाति और देवयानी का विवाह
| ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति
| ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन
| देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद
| शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह
| ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना
| ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य
| ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना
| ययाति की तपस्या
| ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना
| ययाति का स्वर्ग से पतन
| ययाति और अष्टक का संवाद
| अष्टक और ययाति का संवाद
| ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद
| ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना
| ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना
| ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना
| पुरुवंश का वर्णन
| पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन
| महाभिष को ब्रह्माजी का शाप
| शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत
| प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना
| शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक
| शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह
| वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार
| भीष्म का जन्म
| वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा
| शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा
| गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति
| देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा
| सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति
| शान्तनु और चित्रांगद का निधन
| विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक
| भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण
| भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय
| अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह
| विचित्रवीर्य का निधन
| सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह
| भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन
| सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति
| व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति
| महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना
| माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना
| कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन
| धृतराष्ट्र का विवाह
| कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति
| कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म
| कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान
| कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह
| माद्री के साथ पाण्डु का विवाह
| पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास
| विदुर का विवाह
| धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति
| धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति
| दु:शला के जन्म की कथा
| धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली
| पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध
| पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय
| पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश
| पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश
| कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन
| पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन
| युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति
| नकुल और सहदेव की उत्पत्ति
| पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार
| पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण
| ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना
| पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार
| पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ
| दुर्योधन का भीम को विष खिलाना
| भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना
| भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता
| नागलोक से भीम का आगमन
| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज