सत्यवती ने अपने विवाह से पहले उत्पन्न पुत्र व्यासजी का आवाहन किया वैसे ही व्यासजी उनके समक्ष आ गये सत्यवती ने अपने पुत्र से वंश को आगे बढ़ाने का आग्रह किया सत्यवती ने व्यास से कहा वे अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से एक गुणवान संतान उत्पन्न करे जो कि राज्य का कार्य भार संभाल सके। ऐसा कहने पर व्यास ने माता को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा मान ली। जिसका उल्लेख महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 104 में इस प्रकार हुआ है।[1]
विषय सूची
सत्यवती द्वारा अम्बालिका को व्यास से पुत्र उत्पन्न करने के लिये तैयार करना
व्यासजी बोले- मां! यदि मुझे समय का नियम न रखकर शीघ्र ही अपने भाई के लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियों के लिये यह उत्तम व्रत आवश्यक है कि वे मेरे असुन्दर रुप को देखकर शान्त रहें, डरें नहीं। यदि कौसल्या (अम्बिका) मेरे गन्ध, रुप, वेष और शरीर को सहन कर ले तो वह आज ही एक उत्तम बालक को अपने गर्भ में पा सकती हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहने के बाद महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ व्यासजी सत्यवती से फिर ‘अच्छा तो कौसल्या (ॠतु-स्नान के पश्चात्) शुद्ध वस्त्र और श्रृंगार धारण करके शय्यापर मिलन की प्रतीक्षा करे’ यों कहकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर देवी सत्यवती ने एकान्त में आयी हुई अपनी पुत्रवधु अम्बिका के पास जाकर उससे ( आपद् ) धर्म और अर्थ से युक्त हितकारक वचन कहा- ‘कौसल्ये! मैं तुमसे जो धर्म संगत बात कह रही हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। ‘मेरे भाग्य का नाश हो जाने से अब भरतवंश का उच्छेद हो चला है, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इसके कारण मुझे व्यथित और पितृकुल को पीड़ित देख भीष्म ने इस कुल की वृद्धि के लिये मुझे एक सम्मति दी है। बेटी! उस सम्मति की सार्थकता तुम्हारे अधीन है। तुम भीष्म के बताये अनुसार मुझे उस अवस्था में पहुँचाओ, जिससे मैं अपने अभीष्ट की सिद्धि देख सकूं। सुश्रोणि! इस नष्ट होते हुए भरतवंश का पुन: उद्धार करो। तुम देवराज इन्द्र के समान एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दो। वही हमारे कुल के इस महान् राज्य-भार को वहन करेगा’। कौसल्या धर्म का आचरण करने वाली थी। सत्यवती ने धर्म को सामने रखकर ही उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर (बड़ी कठिनता से) इस कार्य के लिये तैयार किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियों को भोजन कराया।[1]
धृतराष्ट्र की उत्पत्ति
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर सत्यवती ठीक समय पर अपनी ॠतुस्नाता पुत्रवधू को शय्या पर बैठाती हुई धीरे से बोली - ‘कौसल्ये! तुम्हारे एक देवर हैं, वे ही आज तुम्हारे पास गर्भाधान के लिये आयेंगे। तुम सावधान होकर उनकी प्रतीक्षा करो। वे ठीक आधी रात के समय यहाँ पधारेंगे’। सास की बात सुनकर कौसल्या पवित्र शय्या पर शयन करके उस समय मन-ही-मन भीष्म तथा अन्य श्रेष्ठ कुरुवंशियों का चिन्तन करने लगी।संयमचित्त, कुत्सित रुप में ) प्रवेश किया। उस समय बहुत से दीपक वहाँ प्रकाशित हो रहे थे। व्यासजी के शरीर का रंग काला था, उनकी जटाऐं पिंगल वर्ण की ओर आंखें चमक रही थीं तथा दाढी-मूंछ भूरे रंग की दिखाई देती थी। उन्हें देखकर देवी कौसल्या (भय के मारे) अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। माता का प्रिय करने की इच्छा से व्यासजी ने उसके साथ समागम किया; परंतु काशिराज की कन्या भय के मारे उनकी ओर अच्छी तरह देख न सकी। जब व्यासजी उसके महल से बाहर निकले, तब माता सत्यवती ने आकर उनसे पूछा- ‘बेटा! क्या अम्बिका के गर्भ से कोई गुणवान् राजकुमार उत्पन्न होगा?’ माता का यह वचन सुनकर सत्यवती नन्दन व्यासजी बोले- मां! वह दस हजार हाथियों के समान बलवान्, विद्वान्, राजर्षियों में श्रेष्ठ, परम सौभाग्यशाली, महा पराक्रमी तथा अत्यन्त बुद्धिमान् होगा। उस महामना के भी सौ पुत्र होंगे। ‘किंतु माता के दोष से वह बालक अन्धा ही होगा’[2]
पाण्डु की उत्पत्ति
व्यासजी की यह बात सुनकर माता ने कहा-‘तपोधन! कुरुवंश का राजा अन्धा हो यह उचित नहीं है। अत: कुरुवंश के लिये दूसरा राजा दो, जो जातिभाइयों तथा समस्त कुल का संरक्षक और पिता का वंश बढ़ाने वाला हो’। महायशस्वी व्यासजी ‘तथास्तु‘ कहकर वहाँ से निकल गये। प्रसव का समय आने पर कौसल्या ने उसी अन्धे पुत्र को जन्म दिया। जनमेजय! तत्पश्चात् देवी सत्यवती ने अपनी दूसरी पुत्रवधू को समझा-बुझाकर गर्भाधान के लिये तैयार किया और इसके लिये पूर्ववत् महर्षि व्यास का आवाहन किया। फिर महर्षि ने उसी (नियोग की संयम पूर्ण) विधि से देवी अम्बालिका के साथ समागम किया। भारत़! महर्षि व्यास को देखकर वह भी कान्तिहीन तथा पाण्डुवर्ण की-सी हो गयी। जनमेजय! उसे भयभीत, विषादग्रस्त तथा पाण्डुवर्ण की-सी देख सत्यवती नन्दन व्यास ने यों कहा- ‘अम्बालिके! तुम मुझे विरुप देखकर पाण्डु वर्ण की-सी हो गयी थीं, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र पाण्डु रंग का ही होगा। ‘शुभानने! इस बालक का नाम भी संसार में ‘पाण्डु’ ही होगा।’ ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् व्यास वहाँ से निकल गये। उस महल से निकलने पर सत्यवती ने अपने पुत्र से उसके विषय में पूछा। तब व्यासजी ने भी माता से उस बालक के पाण्डु वर्ण होने की बात बता दी। उसके बाद सत्यवती ने पुन: एक दूसरे पुत्र के लिये उनसे याचना की। महर्षि ‘बहुत अच्छा’ कहकर माता की आज्ञा स्वीकार कर ली।[2]
विदूर की उत्पत्ति
तदनन्तर देवी अम्बालि का ने समय आने पर एक पाण्डु वर्ण के पुत्र को जन्म दिया। वह अपनी दिव्य कान्ति से उद्भासित हो रहा था। यह वही बालक था, जिसके पुत्र महाधनुर्धारी पांच पाण्डव हुए। इसके बाद ॠतुकाल आने पर सत्यवती ने अपनी बड़ी बहू अम्बिका को पुन: व्यासजी से मिलने के लिये नियुक्त किया। परंतु देवकन्या के समान सुन्दरी अम्बिका ने महर्षि के उस कुत्सित रुप और गन्ध का चिन्तन करके भय के मारे देवी सत्यवती की आज्ञा नहीं मानी। काशिराज की पुत्री अम्बिका ने अप्सरा के समान सुन्दरी अपनी एक दासी को अपने ही आभूषणों से विभूषित करके काले-कलूटे महर्षि व्यास के पास भेज दिया। महर्षि के आने पर उस दासी ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा मिलने पर वह शय्या पर बैठी और सत्कार पूर्वक उनकी सेवा पूजा करने लगी। एकान्त मिलन पर उस महर्षि व्यास बहुत संतुष्ट हुए। राजन! कठोर व्रत का पालन करने वाले महर्षि जब उसके साथ शयन करके उठे, तब इस प्रकार बोले- ‘शुभे! अब तू दासी नहीं रहेगी। तेरे उदर में एक अत्यन्त श्रेष्ठ बालक आया है। वह लोक में धर्मात्मा तथा समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होगा’। वही बालक विदुर हुआ, जो श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास का पुत्र था। एक पिता का होने कारण वह राजा धृतराष्ट्र और महात्मा पाण्डु का भाई था। महात्मा माण्डव्य के शाप से साक्षात् धर्मराज ही विदुर रुप में उत्पन्न हुए थे। वे अर्थतत्व के ज्ञाता और काम-क्रोध से रहित थे। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास ने सत्यवती को भी सब बातें बता दीं। उन्होंने यह रहस्य प्रकट कर दिया कि अम्बिका ने अपनी दासी को भेजकर मेरे साथ छल किया है, अत: शूद्रादासी के गर्भ से ही पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह व्यासजी (मातृ-आज्ञा पालन रुप) धर्म से उऋण होकर फिर अपनी माता सत्यवती से मिले और उन्हें गर्भ का समाचार बताकर वहीं अन्तर्धान हो गये। विचित्रवीर्य के क्षेत्र में व्यासजी से ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवकुमारों के समान तेजस्वी और कुरुवंश की वृद्धि करने वाले थे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 104 श्लोक 35-54
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-20
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 105 श्लोक 21-32
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| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
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हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
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| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
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| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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