ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन

ययाति से देवयानी को पुत्र की प्राप्ति होने के पश्चात ययाति और शर्मिष्ठा का एकान्त में मिलन होना और उनसे जन्में पुत्र जिसका उल्लेख महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ में हुआ है[1]-

ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त में मिलन और पुत्र का जन्म

इस प्रकार एक हजार वर्ष व्‍यतीत हो जाने पर युवावस्‍था को प्राप्त हुई वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने अपने को रजस्‍वलावस्‍था में देखा और चिन्‍तामग्न हो गयी। स्‍नान करके शुद्ध हो समस्‍त आभूषणों से विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्‍दर पुष्‍पों के गुच्‍छों से भरी अशोक-शाखा का आश्रय लिये खड़ी थी। दर्पण में अपना मुंह देखकर उसके मन में पति के दर्शन की लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोह से युक्त हो इस प्रकार बोली- ‘हे अशोक वृक्ष जिनका हृदय शोक में डूवा हुआ है, उन सबके शोक को तुम दूर करने वाले हो। इस समय मुझे प्रियतम का दर्शन कराकर अपने ही जैसे नाम वाली बना दो’ ऐसा कहकर शर्मिष्ठा फि‍र बोली- ‘मुझे ॠतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभी तक मैंने पति का वरण नहीं किया है। यह कैसी परिस्थित आ गयी। अब क्‍या करना चाहिये अथवा क्‍या करने से सुकृत (पुण्‍य) होगा। ‘देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्‍यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पति का वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्‍हीं महाराज का क्‍यों न पति के रुप में वरण कर लूं। ‘मेरे याचना करने पर राजा मुझे पुत्र रुप फल दे सकते हैं, इस बात का मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्‍या वे धर्मात्‍मा नरेश इस समय मुझे एकान्‍त में दर्शन देंगे?’ शर्मिष्ठा इस प्रकार का विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उस समय दैववश महल से बाहर निकले और अशोक वाटिका के निकट शर्मिष्ठा को देखकर ठहर गये। मनोहर हासवाली शर्मिष्ठा ने उन्‍हें एकान्‍त में अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजा से यह बात कही।

शर्मिष्ठा ने कहा - नहुष नन्‍दन चन्‍द्रमा, इन्‍द्र, विष्‍णु, यम, वरुण अथवा आपके महल कौन किसी स्त्री की ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूं) महाराज मेरे रुप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदा से ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ॠतुदान दीजिये-मेरे ॠतुकाल को सफल बनाइये।[2]

ययाति ने कहा - शर्मिष्ठा तुम दैत्‍यराज की सुशील और निर्दोष कन्‍या हो। मैं तुम्‍हें अच्‍छी तरह जानता हूँ। तुम्‍हारे शरीर अथवा रुप में सुई की नोंक बराबर भी ऐसा स्‍थान नहीं है, जो निन्‍दा के योग्‍य हो। परंतु क्‍या करूं; जब मैंने देवयानी के साथ विवाह किया था, उस समय कवि पुत्र शुक्राचार्य ने मुझसे स्‍पष्ट कहा था कि ‘वृषपर्वा की पुत्री इस शर्मिष्ठा को अपनी सेज पर न वुलाना।’

शर्मिष्ठा ने कहा - राजन परिहास युक्त वचन असत्‍य हों तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण संकट के समय तथा सर्वस्‍व का अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्‍य भाषण करना पड़े तो वह दोष कारक नहीं होता। ये पांच प्रकार के असत्‍य पाप शून्‍य बताये गये हैं। महाराज किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्‍यथा (असत्‍य) भाषण करने वाले के यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन मिथ्‍या है। परंतु जहाँ अपने और दूसरे दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्‍या बोलने वाले का असत्‍य भाषण उसका नाश कर देता है।

ययाति बोले - देवि सब प्राणियों के लिये राजा ही प्रमाण हैं। वह यदि झूठ बोलने लगे, तो उसका नाश हो जाता है। अत: अर्थ-संकट में पड़ने पर भी मैं झूठ काम नहीं कर सकता।

शर्मिष्ठा ने कहा - राजन अपना पति और सखी का पति दोनों बराबर माने गये हैं। सखी के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली दूसरी कन्‍याओं का भी विवाह हो जाता है। मेरी सखी ने आपको अपना पति बनाया है, अत: मैंने भी बना लिया। राजन महर्षि शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचन को सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीर के आश्रित नहीं है। पुत्रदान और शरीर दान अत्‍यन्‍त कठिन है। नहुष नन्‍दन शरीर दान से उपर्युक्त सब दान सम्‍पन्न हो जाता है। राजन ‘जिसकी जैसी इच्‍छा होगी उस-उस पुरुष को मैं मुंहमांगी वस्‍तु दूंगा’ ऐसा कहकर आपने नगर में जो तीनों समय दान की घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा देने पर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्‍यर्थ समझी जायगी। राजेन्‍द्र आप कुबेर की भाँति अपनी उस घोषणा को सत्‍य कीजिये।

ययाति बोले - याचकों को उनकी अभीष्‍ट वस्‍तुएं दी जायं, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथ की याचना करती हो; अत: बताओ मैं तुम्‍हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? शर्मिष्‍ठा ने कहा-राजन मुझे अधर्म से बचाइये और धर्म का पालन कराइये। मैं चाहती हूं, आपसे संतानवती होकर इस लोक में उत्तम धर्म का आचरण करूं। महाराज तीन व्‍यक्ति धन के अधिकारी नहीं हैं - पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन प्राप्त करते हैं वह उसी का होता है जिसके अधिकार में ये हैं। अर्थात पत्नी के धन पर पति का, सेवक के धन पर स्‍वामी का ओर पुत्र के धन पर पिता का अधिकार होता है। मैं देवयानी की सेविका हूँ और वह आपके अधीन है; अत: वह और मैं दोनो ही आपके सेवन करने योग्‍य हैं। अत: मेरा सेवन कीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय शर्मिष्ठा के ऐसा कहने पर राजा ने उसकी बातों को ठीक समझा। उन्‍होंने शर्मिष्ठा का सत्‍कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया। फिर शर्मिष्ठा के साथ समागम किया और इच्‍छानुसार कामोपभोग करके एक दूसरे का आदर-सत्‍कार करने के पश्चात दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्‍थान पर चले गये। सुन्‍दर भौंह तथा मनोहर मुस्कान वाली शर्मिष्ठा ने उस समागम में नृप श्रेष्ठ ययाति से पहले-पहल गर्भ धारण किया। जनमेजय तदनन्‍तर समय आने पर कमल के समान नेत्रों वाली शर्मिष्ठा ने देव बालक- जैसे सुन्‍दर एक कमलनयन कुमार को उत्‍पन्न किया।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-13
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-13
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 82 श्लोक 14-27

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
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हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
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युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
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