कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन

वैशम्पायनजी जनमेजय से कहते है कि धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदूर तीनों कुमारो के जन्म के बाद राज्य की उन्नति होने लगती है। सम्पूर्ण प्रजा में खुशहाली छा जाती है जिसका सम्पूर्ण वर्णन महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 108 में कुछ इस प्रकार हुआ है।[1]

राज्य की उन्नति का दिगदर्शन

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! धृतराष्ट्र, पाण्‍डु और महात्‍मा विदुर- इन तीनों कुमारों के जन्‍म से कुरुवंश, कुरुजांगल देश और कुरुक्षेत्र- इन तीनों की बड़ी उन्नति हुई। पृथ्‍वी पर खेती की उपज बहुत बढ़ गयी, सभी अन्न सरस होने लगे, बादल ठीक समय पर वर्षा करते थे, वक्षों में बहुत-से फल और फूल लगने लगे। घोड़े-‍हाथी आदि वाहन हृष्ट-पुष्ट रहते थे, मृग और पक्षी बड़े आनन्‍द से दिन बिताते थे, फूलों और मालाओं में अनुपम सुगंध होती थी और फलों में अनोखा रस होता था। सभी नगर व्‍यापार-कुशल वैश्‍यों तथा शिल्‍पकला में निपुण कारीगर से भरे रहते थे। शूर-वीर, विद्वान् और संत सुखी हो गये। कोई भी मनुष्‍य डाकू नहीं था। पाप में रुचि रखने वाले लोगों का सर्वथा अभाव था। राष्ट्र के विभिन्न प्रान्‍तों में सत्‍य युग छा रहा था। उस समय की प्रजा सत्‍य-व्रत के पालन में तत्‍पर हो स्‍वभावत: यज्ञ-कर्म में लगी रहती और धर्मानुकूल कर्मों में संलग्‍न रहकर एक-दूसरे को प्रसन्न रखती हुई सदा उन्नति के पथ पर बढ़ती जाती थी। सब लोग अभिमान और क्रोध से रहित लोभ से दूर रहने वाले थे; सभी एक-दूसरे को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे।
लोगों के आचार व्‍यवहार में धर्म की प्रधानता थी। समुद्र की भाँति सब प्रकार से भरा-पूरा कौरव नगर मेघ समूहों के समान बड़े-बड़े दरवाजों, फाटकों और गुपुरों से सुशोभित था। कैकड़ों महलों से संयुक्त वह पुरी देवराज इन्‍द्र की अमरावती के समान शोभा पाती थी। वहाँ के लोग नदियों, वनखण्‍डों, बावलियों, छोटे-छोटे जलाशयों, पर्वत शिखरों तथा रमणीय काननों में प्रसन्नतापूर्वक विहार करते उस समय दक्षिणकुरु देश के निवासी उत्तरकुरु में रहने वाले लोगों, देवताओं, ॠर्षियों तथा चारणों के साथ होड़-सी लगाते हुए स्‍वच्‍छन्‍द विचरण करते थे। कौरवों द्वारा बढाये हुए उस रमणीय जनपद में न तो कोई कंजूस था और न विधवा स्त्रियां देखी जाती थीं। उस राष्ट्र के कुओं, बगीचों, सभा भवनों, बाबलियों तथा ब्राह्मणों के घरों में सब प्रकार की समृद्धियां भरी रहती थीं और वहाँ नित्‍य-नूतन उत्‍सव हुआ करते थे। जनमेजय! भीष्‍मजी के द्वारा सब ओर से धर्मपूर्वक सुरक्षित भूमण्‍ल में वह कुरुदेश सैकड़ों देव स्‍थानों और यज्ञस्‍तम्‍भों से चिह्नित होने के कारण बड़ी शोभा पाता था। वह देश राष्ट्रों का शोधन करके निरन्‍तर उन्नति के पथ पर अग्रसार हो रहा था। राष्ट्र में सब ओर भीष्‍मजी के द्वारा चलाया हुआ धर्म का शासन चल रहा था। उन महात्‍मा कुमारों के यज्ञोपवीतादि संस्‍कार किये जाने के समय नगर और देश के सभी लोग निरन्‍तर उत्‍सव मनाते थे। जनमेजय! कुरुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्‍य नगर निवासियों के घरों में सदा सब ओर यही बात सुनायी देती थी कि ‘दान दो और अतिथियों को भोजन कराओ’। धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा परम बुद्धिमान् विदुर-इन तीनों भाइयों का भीष्‍मजी ने जन्‍म से ही पुत्र की भाँति पालन किया। उन्‍होंने ही उनके सब संस्‍कार कराये। फि‍रवे ब्रह्मयर्च व्रत के पालन और वेदों के स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर हो गये। परिश्रम और व्‍यायाम में भी उन्‍होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। फि‍र धीरे-धीरे वे युवावस्‍था को प्राप्त हुए।[1]

पाण्डु को राजा बनाने का निर्णय

धनुर्वेद, घोड़े की सवारी, गदायुद्ध, ढाल-तलवार के प्रयोग, गजशिक्षा तथा नीतिशास्त्र में वे तीनों भाई पारंगत हो गये। उन्‍हें इतिहास, पुराण तथा नाना प्रकार के शिष्टाचारों का भी ज्ञान कराया गया। वे वेद-वेदांगों के तत्‍वज्ञ तथा सर्वत्र एक निश्चित सिद्धान्‍त के मानने वाले थे। पाण्‍डु धनुर्विद्या में उस समय के मनुष्‍यों में सबसे बढ़-चढ़कर पराक्रमी थे। इसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र दूसरे लोगों की अपेक्षा शारीरिक बल में बहुत बढ़कर थे। राजन्! तीनों लोकों में विदुर के समान दूसरा कोई भी मनुष्‍य धर्मपरायण तथा धर्म में ऊंची अवस्‍था को प्राप्त (आत्‍मदृष्टा) नहीं था। नष्ट हुए शान्‍तनु के वंश का पुन: उद्धार हुआ देखकर समस्‍त राष्ट्र के लोग परस्‍पर कहने लगे - ‘वीर पुत्रों को जन्‍म देने वाली स्त्रियों में काशिराज की दोनों पुत्रियां सबसे श्रेष्ठ हैं, देशों में कुरुजांगल देश सबसे उत्तम है, सम्‍पूर्ण धर्मज्ञों में भीष्‍मजी का स्‍थान सबसे ऊंचा है तथा नगरों में हस्तिनापुर सर्वोत्तम है।’ धृतराष्ट्र अन्‍धे होने के कारण और विदुरजी पारशव (शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उत्‍पन्न) होने से राज्‍य नपा सके; अत: सबसे छोटे पाण्‍डु ही राजा हुए।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 108 श्लोक 19-26

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सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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