सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह

भीष्म ने अम्बा की छोटी बहनों से विचित्रवीर्य से विवाह कर दिया। दोनों बहनें दिन-रात पति की सेवा में लगी रहती थी। परन्तु एक दिन विचित्रवीर्य काफी बीमार हो गये और उनका निधन हो गया। भीष्म इस कारण शोक और चिन्ता में डूब गये। तब सत्यवती ने भीष्म से राज्य का कार्य भार संभालने का आग्रह किया और कहा वे अपने भाइयों की स्त्रियों से विवाह कर उनके वंश को आगे बढ़ायें। परन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए इस माता की इस बात के लिए इन्कार कर दिया। जिसका उल्लेख महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 103 में इस प्रकार हुआ है।[1]

सत्यवती द्वारा भीष्म से विवाह का आग्रह

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर पुत्र की इच्‍छा रखने वाली सत्‍यवती अपने पुत्र के वियोग से अत्‍यन्‍त दीन और कृपण हो गयी। उसने पुत्र वधुओं के साथ पुत्र के प्रेतकार्य करके अपनी दोनों बहुओं तथा शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्‍मजी को धीरज बंधाया। फि‍र उस महाभागा मंगलमयी देवी ने धर्म, पितृकुल तथा मातृकुल की ओर देखकर गंगानन्‍दन भीष्‍म से कहा- ‘बेटा! सदा धर्म में तत्‍पर रहने वाले परम यशस्‍वी कुरुनन्‍दन महाराज शान्‍तनु के पिण्‍ड, कीर्ति और वंश ये सब अब तुम्‍ही पर अवलम्बित है। ‘जैसे शुभ कर्म करके स्‍वर्गलोक में जाना निश्चित है’ जैसे सत्‍य बोलने से आयु का बढ़ना अवश्‍यम्‍भावी है, वैसे ही तुममें धर्म का होना भी निश्चित है। धर्मज्ञ! तुम सब धर्मों को संक्षेप और विस्‍तार से जानते हो। नाना प्रकार की श्रुतियों और समस्‍त वेदांगों का भी तुम्‍हें पूर्ण ज्ञान है। ‘मैं तुम्‍हारी धर्मनिष्ठा और कुलोचित सदाचार को भी देखती हूँ। संकट के समय शुक्राचार्य और बृहस्‍पति की भाँति तुम्‍हारी बुद्धि उपयुक्त कर्तव्‍य का निर्णय करने में समर्थ है। ‘अत: धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ भीष्‍म! तुम पर अत्‍यन्‍त विश्वास रखकर ही मैं तुम्‍हें एक आवश्‍यक कार्य में लगाना चाहती हूँ। तुम पहले उसे सुन लो; फि‍र उसका पालन करेन की चेष्टा करो। ‘मेरा पुत्र और तुम्‍हारा भाई विचित्रवीर्य जो पराक्रमी होने के साथ ही तुम्‍हें अत्‍यन्‍त प्रिय था, छोटी अवस्‍था में ही स्‍वर्गवासी हो गया। नरश्रेष्ठ! उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। तुम्‍हारे भाई की ये दोनों सुन्‍दरी रानियां, जो काशिराज की कन्‍याऐं हैं, मनोहर रुप और युवावस्‍था से सम्‍पन्न हैं। इनके हृदय में पुत्र पाने की अभिलाषा है। भारत! तुम हमारे कुल की संतान परम्‍परा को सुरक्षित रखने के लिये स्‍वयं ही इन दोनों के गर्भ से पुत्र उत्‍पन्न करो! महाबाहो! मेरी आज्ञा से यह धर्म कार्य तुम अवश्‍य करो। ‘राज्‍य पर अपना अभिषेक करो और भारतीय प्रजा का पालन करते रहो। धर्म के अनुसार विवाह कर लो; पितरों को नरक में न गिरने दो’।

भीष्म का सत्यवती को समाझाना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! माता और सुहृदों के ऐसा कहने पर शत्रुदमन धर्मात्‍मा भीष्‍म ने यह धर्मानुकूल उत्तर दिया- ‘माता! तुमने जो कुछ कहा है, वह धर्मयुक्त है, इसमें संशय नहीं; परंतु मैं राज्‍य के लोभ से न तो अपना अभिषेक कराऊंगा और न स्त्री सहवास ही करूंगा। संतानोत्‍पादन और राज्‍य ग्रहण ने करने के विषय में जो मेरी कठोर प्रतिज्ञा है, उसे तो तुम जानती ही हो। सत्‍यवती! तुम्‍हारे लिये शुल्‍क देने हेतु जो-जो बातें हुई थीं, वे सब तुम्‍हें ज्ञात हैं। उन प्रतिज्ञाओं को पुन: सच्ची करने के लिये मैं अपना दृढ़ निश्चय बताता हूँ। ‘मैं तीनों लोकों का राज्‍य, देवताओं का साम्राज्‍य अथवा इन दोनों से भी अधिक महत्‍व की वस्‍तु को भी एकदम त्‍याग सकता हूं, परंतु सत्‍य को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। ‘पृथ्‍वी अपनी गंध छोड़ दे, जल अपने रस का परित्‍याग कर दे, तेज रुप का और वायु स्‍पर्श नामक स्‍वाभाविक गुण का त्‍याग कर दे।[1] ‘सूर्य प्रभा और अग्नि अपनी उष्‍णता को छोड़ दे, आकाश शब्‍द का और चन्‍द्रमा अपनी शीतलता का परित्‍याग कर दें। ‘इन्‍द्र पराक्रम को छोड़ दें और धर्मराज धर्म की उपेक्षा कर दें; परंतु मैं किसी प्रकार सत्‍य को छोड़ने को विचार भी नहीं कर सकता। ‘सारे संसार का नाश हो जाय, मुझे अमरत्‍व मिलता हो या त्रिलोकी का राज्‍य प्राप्‍त हो, तो भी मैं अपने किये हुए प्रण को नहीं तोड़ सकता।’ महान् तेजोरुप धन से सम्‍पन्न अपने पुत्र भीष्‍म के ऐसा कहने पर माता सत्‍यवती इस प्रकार बोली- ‘बेटा! तुम सत्‍यपराक्रमी हो। मैं जानती हूं, सत्‍य में तुम्‍हारी दृढ़ निष्ठा है। तुम चाहो तो अपने ही तेज से नयी त्रिलोकी की रचना कर सकते हो। मैं उस सत्‍य को भी नहीं भूल सकी हूं, जिसकी तुमने मेरे लिये घोषणा की थी। फि‍र भी मेरा आग्रह है कि तुम आपद्वर्म का विचार करके बाप-दादों के दिये हुए इस राज्‍यभार को बहन करो। ‘परंतप! जिस उपाय से तुम्‍हारे वंश की परम्‍परा नष्ट न हो, धर्म की भी अवहेलना न होने पावे और प्रेमी सुहृद् भी संतुष्ट हो जायं, वही करो’। पुत्र की कामना से दीन वचन बोलने वाली और मुख से धर्मरहित बात कहने वाली सत्‍यवती से भीष्‍म ने फि‍र यह बात कही- ‘राजामाता! धर्म की ओर दृष्टि डालो, हम सबका नाश न करो। क्षत्रिय का सत्‍य से विचलित होना किसी भी धर्म में अच्‍छा नहीं माना गया है।[2] भीष्‍मजी कहते हैं- मात:! भरतवंशी की संतान परम्‍परा को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिये जो नियम उपाय हैं, उसे मैं बता रहा हूं; सुनो। किसी गुणवान् [3]ब्राह्मण को धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्य की स्त्रियों के गर्भ से संतान उत्‍पन्न कर सके।[4]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 103 श्लोक 17-26
  3. यहाँ गुणवान का अर्थ है- नियोग की विधि को जानने वाला संयमी पुरुष। मनु महाराज ने स्त्रियों के आपद्धर्म के प्रसंग में लिखा है‌- विधवायां नियुक्तस्तु घृता को वाग्यतो निशि। एकमुत्पादयेत् पुत्रं न द्वितियं कथंचन॥ विधवा स्त्री के साथ सहवास के लिए (पतिपक्ष के गुरु जनों द्वारा) नियुक्त पुरुष अपने सारे शरीर पर घी चुपड़कर (सौन्दर्य बिगाड़कर) वाणी को संयम में रखकर (चुपचाप रहकर) रात्रि में सहवास करें। इस प्रकार वह एक ही पुत्र उत्पन्न करें। विधवायां नियोगार्थे निर्वृते तु तथाविधि। गुरुवच वर्तेयातां परस्परम् ॥ विधवा नियोग के लिये विधि के अनुसार (अर्थात् कामवश न होकर कर्तव्यबुद्धि से) चित्त को संयमित और इंन्द्रियों को अनासक्त रखते हुए नियोग का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर दोनों परस्पर पिता और पुत्रवधु के समान बर्ताव करें (अर्थात स्त्री उसको पिता के समान समझकर बरते और पुरुष उसे पुत्रवधु के समान मानकर बर्ताव करे)। कलियुग में मनुष्यों के असंयमी और कामी होने के कारण नियोग वर्जित है।
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-15

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
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सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
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