- महाभारत आदि पर्व के आस्तीक पर्व के अंतर्गत अध्याय 30 के अनुसार गरुड़ का कश्यप जी से मिलना की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
पिता कश्यप की आज्ञा से गरुड़ ने हाथी और कछुए को पकड़ लिया और आकाश मार्ग की ओर बढ़ने लगे तभी उड़ते हुए वे वटवृक्ष के पास जा पहुँचे तभी वटवृक्ष बोला - पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजन तक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसी पर बैठकर तुम इस हाथी और कछुए को खा लो। तब पर्वत के समान विशाल, शरीर वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड़ सहस्रों विहंगमों से सेवित उस महान वृक्ष को कम्पित करते हुए तुरन्त उस पर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्म वेग से उन्होंने सघन पल्लवों से सुशोभित उस विशाल शाखा को तोड़ डाला।
विषय सूची
गरुड़ द्वारा ऋषियों की रक्षा
उग्रश्रवाजी कहते हैं: - शौनकादि महर्षियों! महाबली गरुड़ के पैरों का स्पर्श होते ही उस वृक्ष की वह महाशाखा टूट गयी; किन्तु उस टूटी हुई शाखा को उन्होंने फिर से पकड़ लिया। उस महाशाखा को तोड़कर गरुड़ मुस्कुराते हुए उनकी ओर देखने लगे। इतने में ही उनकी दृष्टि वालखिल्य नाम वाले महर्षियों पर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखा में लटक रहे थे। तपस्या में तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियों को वट की शाखा में लटकते देख गरुड़ ने सोचा ‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाये। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियों का अवश्य वध कर डालेगी।' यह विचार कर वीरवर पक्षिराज गरुड़ ने हाथी और कछुए को तो अपने पंजों से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियों के विनाश के भय से झपटकर वह शाखा अपनी चोंच में ले ली। उन मुनियों की रक्षा के लिये ही गरुड़ ने ऐसा अदभुत पराक्रम किया था। जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुड़ का ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्य से चकित हो उठे। उनके हृदय में कम्प छा गया और उन्होंने उस महान पक्षी का नाम इस प्रकार रखा (उन्होंने गरुड़ नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की) - ये आकाश में विचरने वाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (गुरुम् आदाय उड्डी इति ‘गरुड़ः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार) ये गरुड़ कहलायेंगे। तदनन्तर गरुड़ अपने पंखों की हवा से बड़े-बड़े पर्वतों को कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुए को साथ लिये हुए ही अनेक देशों में उड़ते फिरे।
गरुड़ का गन्धमादन पर्वत पर जाना
वालखिल्य ऋषियों के ऊपर दयाभाव होने के कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तपस्या में लगे हुए अपने पिता कश्यपजी को देखा। पिता ने भी अपने पुत्र को देखा। पक्षिराज का स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बल से सम्पन्न तथा मन और वायु के समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वत के शिखर का मान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्ड के समान जान पड़ते थे। उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यान में नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियों के लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूप में स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरों को विदीर्ण करने और समुद्र के जल को सोख लेने की शक्ति रखते थे। वे समस्त संसार को भय से कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात यमराज के समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान कश्यप ने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा। कश्यपजी बोले - बेटा! कहीं दुःसाहस का काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःख में पड़ जाओगे। सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें। उग्रश्रवाजी कहते हैं: - तदनन्तर पुत्र के लिये महर्षि कश्यप ने तपस्या से निष्पाप हुए महाभाग, वालखिल्य मुनियों को इस प्रकार प्रसन्न किया।
ऋषियों का कश्यप की प्रार्थना पर शाखा छोड़ हिमालय पर जाना
कश्यपजी बोले—तपोधनो! गरुड़ का यह उद्योग प्रजा के हित के लिये हो रहा है। ये महान पराक्रम करना चाहते हैं। आप लोग इन्हें आज्ञा दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं - भगवान कश्यप के इस प्रकार अनुरोध करने पर वे वालशिल्पमुनि उस शाखा को छोड़कर तपस्या करने के लिये परम पुण्यमय हिमालय पर चले गये।
- गरुड़ का पिता की आज्ञा से निर्जन पर्वत पर शाखा को छोड़ना
वालशिल्पमुनि चले जाने पर विनता नन्दन गरुड़ ने, जो मुँह में शाखा लिये रहने के कारण कठिनाई से बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजी से पूछा - ‘भगवन! इस वृक्ष की शाखा को मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूर तक मनुष्य न रहते हों। तब कश्यपजी ने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फ से ढँकी हुई थी और जहाँ दूसरा कोई मन से भी नहीं पहुँच सकता था। उस बड़े पेट वाले पर्वत का पता पाकर महान पक्षी गरुड़ उसको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुए सहित बड़े वेग से उड़े। गरुड़ वटवृक्ष की जिस विशा शाखाओं को चोंच में लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओं के चमड़ों से बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी। पक्षिराज गरुड़ उसे लेकर थोड़ी ही देर में वहाँ से एक लाख योजन दूर चले आये। पिता के आदेश से क्षण भर में उस पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ। वह पर्वतराज उनके पंखों की वायु से आहत होकर काँप उठा। उस पर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलों की वर्षा- सी करने लगा। उस पर्वत के मणिकाञचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान शैल की शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओर से चूर-चूर होकर गिर पड़े। उस विशाल शाखा से टकराकर बहुत से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलों के कारण बिजली सहित मेघों की भाँति शोभा पाते थे।
सुवर्णमय पुष्प वाले वे वृक्ष धरती पर गिरकर पर्वत के गेरू आदि धातुओं से संयुक्त हो सूर्य की किरणों द्वारा रँगे हुए से सुशोभित होते थे। तदनन्तर पक्षिराज गरुड़ ने उसी पर्वत की एक चोटी पर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुए को खाया। इस प्रकार कछुए और हाथी दोनों को खाकर महान वेगशाली गरुड़ पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े। उस समय देवताओं के यहाँ बहुत से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्र का प्रिय आयुध वज्र भय से जल उठा। आकाश से दिन में ही धुएँ और लपटों के साथ उल्का गिरने लगी। वसु, यद्र, आदित्य, साध्य, मरुद्रण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया था। देवासुर संग्राम के समय भी ऐसी अनोहनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के साथ बड़े जोर की आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं। आकाश में बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाज में विकट गर्जना होने लगी। देवताओं के भी देवता पर्जन्य रक्त की वर्षा करने लगे। देवताओं के दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रा में रूधिर की वर्षा करने लगे।[2]-
गरुड़ द्वारा देवता भयभीत
बहुत-‘सी धूलें उड़कर देवताओं के मुकुटों को मलिन करने लगी! ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं सहित इन्द्र भय से व्याकुल हो गये और बृहस्पति जी से इस प्रकार बोले। इन्द्र ने बोला—भगवन! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शत्रु नहीं देखता, जो युद्ध में हम देवताओं का तिरस्कार कर सके। बृहस्पतिजी ने कहा - देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमाद से तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियों के तप के प्रभाव से कश्यप मुनि और विनता के पुत्र पक्षिराज गरुड़ अमृत का अपहरण करने के लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं। बलवानों में श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड़ अमृत हर ले जाने में समर्थ हैं। मैं उनमें सब प्रकार की शक्तियों के होने की सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं। उग्रश्रवाजी कहते हैं - बृहस्पतिजी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृत की रक्षा करने वाले देवताओं से बोले - ‘रक्षकों! महान पराक्रमी और बलवान पक्षी गरुड़ यहाँ से अमृत हर ले जाने को उद्यत हैं। ‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृत को न ले जा सकें। बृहस्पतिजी ने कहा है कि उनके बल की कहीं तुलना नहीं है।' इन्द्र की यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्य में पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये। मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे। उन्होंने अपने अंगों में यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़े के बने हुए हाथ के मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधों की धार बहुत तीखी थी। वे देवता सब प्रकार के आयुध युद्ध के लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिसमें सब ओर आग की चिंगारियां और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिव, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँति की तीखी शक्तियाँ, चमकीले खग और भयंकर दिखायी देने वाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीर के अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर देवता डट गये। दिव्य अभिषणों से विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे। उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरों के नगरों का विनाश करने में समर्थ एवं अग्नि के समान देदीप्यामान शरीर से प्रकाशित होने वाले थे; उन्होंने अमृत की रक्षा के लिये अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समर के लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिव आदि आयुधों से व्याप्त होकर सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
महाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँ
पर्वसंग्रह पर्व
समन्तपंचक क्षेत्र
| अक्षोहिणी सेना
| महाभारत में वर्णित पर्व
पौष्य पर्व
जनमेजय को सरमा का शाप
| जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित पद
| आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति
| उत्तंक का सर्पयज्ञ
पौलोम पर्व
महर्षि च्यवन का जन्म
| भृगु द्वारा अग्निदेव को शाप
| अग्निदेव का अदृश्य होना
| प्रमद्वरा का जन्म
| प्रमद्वरा की सर्प के काटने से मृत्यु
| प्रमद्वरा और रुरु का विवाह
| रुरु-डुण्डुभ संवाद
| डुण्डुभ की आत्मकथा
| जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा
आस्तीक पर्व
पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति
| जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण
| आस्तीक का जन्म
| कद्रु-विनता को पुत्र प्राप्ति
| मेरु पर्वत पर भगवान नारायण का समुद्र-मंथन के लिए आदेश
| भगवान नारायण का मोहिनी रूप
| देवासुर संग्राम
| कद्रु और विनता की होड़
| कद्रु द्वारा अपने पुत्रों को शाप
| नाग और उच्चैश्रवा
| विनता का कद्रु की दासी होना
| गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच
| कद्रु द्वारा इंद्रदेव की स्तुति
| गरुड़ का दास्यभाव
| गरुड़ का अमृत के लिए जाना और निषादों का भक्षण
| कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाना
| गरुड़ का कश्यप जी से मिलना
| इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का अपमान
| अरुण-गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ का देवताओं से युद्ध
| गरुड़ का विष्णु से वर पाना
| इन्द्र और गरुड़ की मित्रता
| इन्द्र द्वारा अमृत अपहरण
| शेषनाग की तपस्या
| जरत्कारु का जरत्कारु मुनि के साथ विवाह
| जरत्कारु की तपस्या
| परीक्षित का उपाख्यान
| श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को शाप
| तक्षक नाग और कश्यप
| जनमेजय का राज्यभिषेक और विवाह
| जरत्कारु को पितरों के दर्शन
| जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह
| जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह
| परीक्षित के धर्ममय आचार
| परीक्षित द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार
| श्रृंगी ऋषि का परिक्षित को शाप
| जनमेजय की प्रतिज्ञा
| जनमेजय के सर्पयज्ञ का उपक्रम
| सर्पयज्ञ के ऋत्विजों की नामावली
| तक्षक का इंद्र की शरण में जाना
| आस्तीक का सर्पयज्ञ में जाना
| आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, अग्निदेव आदि की स्तुति
| सर्पयज्ञ में दग्ध हुए सर्पों के नाम
| आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना
अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम
जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन
| व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना
| कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत
| महाभारत की महत्ता
| उपरिचर का चरित्र
| सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा
| ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि
| असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना
| ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण
| महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन
| देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन
| दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन
| दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना
| दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना
| तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन
| दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश
| दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप
| शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना
| विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना
| मेनका-विश्वामित्र का मिलन
| कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण
| शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह
| कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन
| शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति
| पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना
| आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन
| भरत का राज्याभिषेक
| दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति
| पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन
| कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना
| देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध
| देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह
| शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना
| देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप
| शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना
| शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना
| शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना
| सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार
| ययाति और देवयानी का विवाह
| ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति
| ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन
| देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद
| शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह
| ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना
| ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य
| ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना
| ययाति की तपस्या
| ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना
| ययाति का स्वर्ग से पतन
| ययाति और अष्टक का संवाद
| अष्टक और ययाति का संवाद
| ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद
| ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना
| ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना
| ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना
| पुरुवंश का वर्णन
| पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन
| महाभिष को ब्रह्माजी का शाप
| शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत
| प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना
| शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक
| शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह
| वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार
| भीष्म का जन्म
| वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा
| शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा
| गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति
| देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा
| सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति
| शान्तनु और चित्रांगद का निधन
| विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक
| भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण
| भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय
| अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह
| विचित्रवीर्य का निधन
| सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह
| भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन
| सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति
| व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति
| महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना
| माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना
| कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन
| धृतराष्ट्र का विवाह
| कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति
| कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म
| कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान
| कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह
| माद्री के साथ पाण्डु का विवाह
| पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास
| विदुर का विवाह
| धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति
| धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति
| दु:शला के जन्म की कथा
| धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली
| पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध
| पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय
| पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश
| पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश
| कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन
| पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन
| युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति
| नकुल और सहदेव की उत्पत्ति
| पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार
| पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण
| ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना
| पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार
| पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ
| दुर्योधन का भीम को विष खिलाना
| भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना
| भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता
| नागलोक से भीम का आगमन
| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज