गरुड़ का कश्यप जी से मिलना

महाभारत आदि पर्व के आस्तीक पर्व के अंतर्गत अध्याय 30 के अनुसार गरुड़ का कश्यप जी से मिलना की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

पिता कश्यप की आज्ञा से गरुड़ ने हाथी और कछुए को पकड़ लिया और आकाश मार्ग की ओर बढ़ने लगे तभी उड़ते हुए वे वटवृक्ष के पास जा पहुँचे तभी वटवृक्ष बोला - पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजन तक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसी पर बैठकर तुम इस हाथी और कछुए को खा लो। तब पर्वत के समान विशाल, शरीर वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड़ सहस्रों विहंगमों से सेवित उस महान वृक्ष को कम्पित करते हुए तुरन्त उस पर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्म वेग से उन्होंने सघन पल्लवों से सुशोभित उस विशाल शाखा को तोड़ डाला।

गरुड़ द्वारा ऋषियों की रक्षा

उग्रश्रवाजी कहते हैं: - शौनकादि महर्षियों! महाबली गरुड़ के पैरों का स्पर्श होते ही उस वृक्ष की वह महाशाखा टूट गयी; किन्तु उस टूटी हुई शाखा को उन्होंने फिर से पकड़ लिया। उस महाशाखा को तोड़कर गरुड़ मुस्कुराते हुए उनकी ओर देखने लगे। इतने में ही उनकी दृष्टि वालखिल्य नाम वाले महर्षियों पर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखा में लटक रहे थे। तपस्या में तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियों को वट की शाखा में लटकते देख गरुड़ ने सोचा ‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाये। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियों का अवश्य वध कर डालेगी।' यह विचार कर वीरवर पक्षिराज गरुड़ ने हाथी और कछुए को तो अपने पंजों से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियों के विनाश के भय से झपटकर वह शाखा अपनी चोंच में ले ली। उन मुनियों की रक्षा के लिये ही गरुड़ ने ऐसा अदभुत पराक्रम किया था। जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुड़ का ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्य से चकित हो उठे। उनके हृदय में कम्प छा गया और उन्होंने उस महान पक्षी का नाम इस प्रकार रखा (उन्होंने गरुड़ नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की) - ये आकाश में विचरने वाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (गुरुम् आदाय उड्डी इति ‘गरुड़ः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार) ये गरुड़ कहलायेंगे। तदनन्तर गरुड़ अपने पंखों की हवा से बड़े-बड़े पर्वतों को कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुए को साथ लिये हुए ही अनेक देशों में उड़ते फिरे।

गरुड़ का गन्धमादन पर्वत पर जाना

वालखिल्य ऋषियों के ऊपर दयाभाव होने के कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तपस्या में लगे हुए अपने पिता कश्यपजी को देखा। पिता ने भी अपने पुत्र को देखा। पक्षिराज का स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बल से सम्पन्न तथा मन और वायु के समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वत के शिखर का मान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्ड के समान जान पड़ते थे। उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यान में नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियों के लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूप में स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरों को विदीर्ण करने और समुद्र के जल को सोख लेने की शक्ति रखते थे। वे समस्त संसार को भय से कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात यमराज के समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान कश्यप ने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा। कश्यपजी बोले - बेटा! कहीं दुःसाहस का काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःख में पड़ जाओगे। सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें। उग्रश्रवाजी कहते हैं: - तदनन्तर पुत्र के लिये महर्षि कश्यप ने तपस्या से निष्पाप हुए महाभाग, वालखिल्य मुनियों को इस प्रकार प्रसन्न किया।

ऋषियों का कश्यप की प्रार्थना पर शाखा छोड़ हिमालय पर जाना

कश्यपजी बोले—तपोधनो! गरुड़ का यह उद्योग प्रजा के हित के लिये हो रहा है। ये महान पराक्रम करना चाहते हैं। आप लोग इन्हें आज्ञा दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं - भगवान कश्यप के इस प्रकार अनुरोध करने पर वे वालशिल्पमुनि उस शाखा को छोड़कर तपस्या करने के लिये परम पुण्यमय हिमालय पर चले गये।

गरुड़ का पिता की आज्ञा से निर्जन पर्वत पर शाखा को छोड़ना

वालशिल्पमुनि चले जाने पर विनता नन्दन गरुड़ ने, जो मुँह में शाखा लिये रहने के कारण कठिनाई से बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजी से पूछा - ‘भगवन! इस वृक्ष की शाखा को मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूर तक मनुष्य न रहते हों। तब कश्यपजी ने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फ से ढँकी हुई थी और जहाँ दूसरा कोई मन से भी नहीं पहुँच सकता था। उस बड़े पेट वाले पर्वत का पता पाकर महान पक्षी गरुड़ उसको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुए सहित बड़े वेग से उड़े। गरुड़ वटवृक्ष की जिस विशा शाखाओं को चोंच में लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओं के चमड़ों से बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी। पक्षिराज गरुड़ उसे लेकर थोड़ी ही देर में वहाँ से एक लाख योजन दूर चले आये। पिता के आदेश से क्षण भर में उस पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ। वह पर्वतराज उनके पंखों की वायु से आहत होकर काँप उठा। उस पर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलों की वर्षा- सी करने लगा। उस पर्वत के मणिकाञचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान शैल की शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओर से चूर-चूर होकर गिर पड़े। उस विशाल शाखा से टकराकर बहुत से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलों के कारण बिजली सहित मेघों की भाँति शोभा पाते थे।
सुवर्णमय पुष्प वाले वे वृक्ष धरती पर गिरकर पर्वत के गेरू आदि धातुओं से संयुक्त हो सूर्य की किरणों द्वारा रँगे हुए से सुशोभित होते थे। तदनन्तर पक्षिराज गरुड़ ने उसी पर्वत की एक चोटी पर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुए को खाया। इस प्रकार कछुए और हाथी दोनों को खाकर महान वेगशाली गरुड़ पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े। उस समय देवताओं के यहाँ बहुत से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्र का प्रिय आयुध वज्र भय से जल उठा। आकाश से दिन में ही धुएँ और लपटों के साथ उल्का गिरने लगी। वसु, यद्र, आदित्य, साध्य, मरुद्रण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया था। देवासुर संग्राम के समय भी ऐसी अनोहनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के साथ बड़े जोर की आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं। आकाश में बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाज में विकट गर्जना होने लगी। देवताओं के भी देवता पर्जन्य रक्त की वर्षा करने लगे। देवताओं के दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रा में रूधिर की वर्षा करने लगे।[2]-

गरुड़ द्वारा देवता भयभीत

बहुत-‘सी धूलें उड़कर देवताओं के मुकुटों को मलिन करने लगी! ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं सहित इन्द्र भय से व्याकुल हो गये और बृहस्पति जी से इस प्रकार बोले। इन्द्र ने बोला—भगवन! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शत्रु नहीं देखता, जो युद्ध में हम देवताओं का तिरस्कार कर सके। बृहस्पतिजी ने कहा - देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमाद से तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियों के तप के प्रभाव से कश्यप मुनि और विनता के पुत्र पक्षिराज गरुड़ अमृत का अपहरण करने के लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं। बलवानों में श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड़ अमृत हर ले जाने में समर्थ हैं। मैं उनमें सब प्रकार की शक्तियों के होने की सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं। उग्रश्रवाजी कहते हैं - बृहस्पतिजी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृत की रक्षा करने वाले देवताओं से बोले - ‘रक्षकों! महान पराक्रमी और बलवान पक्षी गरुड़ यहाँ से अमृत हर ले जाने को उद्यत हैं। ‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृत को न ले जा सकें। बृहस्पतिजी ने कहा है कि उनके बल की कहीं तुलना नहीं है।' इन्द्र की यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्य में पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये। मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे। उन्होंने अपने अंगों में यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़े के बने हुए हाथ के मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधों की धार बहुत तीखी थी। वे देवता सब प्रकार के आयुध युद्ध के लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिसमें सब ओर आग की चिंगारियां और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिव, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँति की तीखी शक्तियाँ, चमकीले खग और भयंकर दिखायी देने वाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीर के अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर देवता डट गये। दिव्य अभिषणों से विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे। उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरों के नगरों का विनाश करने में समर्थ एवं अग्नि के समान देदीप्यामान शरीर से प्रकाशित होने वाले थे; उन्होंने अमृत की रक्षा के लिये अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समर के लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिव आदि आयुधों से व्याप्त होकर सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-16। ।
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 30 श्लोक 17-37। ।

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पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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