इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण

महाभारत आदि पर्व के ‘विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 206 के अनुसार इन्द्रप्रस्थ नगर के निर्माण की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

विश्वकर्मा को इन्द्र की आज्ञा

तदनन्‍तर अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले पाण्‍डवों ने श्रीकृष्‍ण सहित वहाँ जाकर उस स्‍थान को उत्‍तम स्‍वर्गलोक की भाँति शोभायमान कर दिया। फिर जगदीश्‍वर भगवान् वासुदेव ने देवराज इन्‍द्र का चिन्‍तन किया। राजन्! उनके चिन्‍तन करने पर इन्‍द्र देव ने (उनके मन की बात जानकर) विश्‍वकर्मा को इस प्रकार आज्ञा दी। इन्‍द्र बोले- विश्‍वकर्मन्! महामते! (आप जाकर खाण्‍डवप्रस्‍थ नगर का निर्माण करें।) आज से वह दिव्‍य और रमणीय नगर इन्‍द्रप्रस्‍थ के नाम से विख्‍यात होगा।[1]

श्रीकृष्ण की आज्ञा से इन्द्रप्रस्थ का निर्माण

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! महेन्‍द्र की आज्ञा से विश्‍वकर्मा ने खाण्‍डवप्रस्‍थ में जाकर वन्‍दनीय भगवान् श्रीकृष्‍ण को प्रणाम करके कहा- मेरे लिये क्‍या आज्ञा है? उनकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उनसे कहा। श्रीकृष्‍ण बोले- विश्‍वकर्मन्! तुम कुरुराज युधिष्ठिर के लिये महेन्‍द्रपुरी के समान एक महानगर का निर्माण करो। इन्‍द्र के निश्‍चय किये हुए नाम के अनुसार वह इन्‍द्रप्रस्‍थ कहलायेगा। तत्‍पश्‍चात् पवित्र एवं कल्‍याणमय प्रदेश में शान्तिकर्म कराके महारथी पाण्‍डवों ने वेदव्‍यासजी को अगुआ बनाकर नगर बसाने के लिये जमीन का नाप करवाया। उसके चारों ओर समुद्र की भाँति विस्‍तृत एवं अगाध जल से भरी हुई खाइयां बनी थीं, जो उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। श्‍वेत बादलों तथा चन्‍द्रमा के समान उज्‍जवल चहारदीवारी शोभा दे रही थी, जो अपनी ऊंचाई से आकाश मण्‍डल को व्‍याप्‍त करके खड़ी थी। जैसे नागों से भोगवती सुशोभित होती है, उसी प्रकार उस चहारदीवारी से खाईसहित वह श्रेष्‍ठ नगर सुशोभित हो रहा था। उस नगर के दरवाजे ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पांख फैलाये गरुड़ हो। ऐसे अनेक बड़े-बड़े फाटक और अट्टालिकाएं नगर की श्रीवृद्धि कर रही थीं। मेघों की घटा के समान सुशोभित तथा मन्‍दराचल के समान ऊंचे गोपुरों द्वारा वह नगर सब ओर से सुरक्षित था। नाना प्रकार के अमेद्य तथा सब ओर से घिरे हुए शस्‍त्रागारों में शस्‍त्र संग्रह करके रक्‍खे गये थे। नगर के चारों ओर हाथ से चलायी जानेवाली लोहे की शक्तियां तैयार करके रखी गयी थीं, जो दो जीभोंवाले सांपों के समान जान पड़ती थी। इन सबके द्वारा उस नगर की सुरक्षा की गयी थी। जिनमें अस्‍त्र-शस्‍त्रों का अभ्‍यास किया जाता था, ऐसी अनेक अट्टालिकाओं से युक्‍त और योद्धाओं से सुरक्षित उस नगर की शोभा देखते ही बनती थी। तीखे अकुंशो (बल्लों), शतघ्नियां (तोपों) और अन्‍यान्‍य युद्धसम्‍बन्‍धी यन्‍त्रों के जाल से वह नगर शोभा पा रहा था। लोहे के बने हुए महान् चक्रों द्वारा महान् चक्रों द्वारा उस उत्‍तम नगर की अवर्णनीय शोभा हो रही थी। वहाँ विभागपूर्वक विभिन्‍न स्‍थानों में जाने के लिये विशाल एवं चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। उस नगर में दैवी आपत्ति का नाम नहीं था। अनेक प्रकार के श्रेष्‍ठ एवं शुभ सदनों से शोभित वह नगर स्‍वर्गलोक के समान प्रकाशित हो रहा था। उसका नाम था इन्‍द्रप्रस्‍थ।[1]

इन्द्रप्रस्थ के सौन्दर्य का वर्णन

इन्‍द्रप्रस्‍थ के रमणीय एवं शुभ प्रदेश में कुरुराज युधिष्ठिर का सुन्‍दर राजभवन बना हुआ था, जो आकाश में विद्युत की प्रभा से व्‍याप्‍त मेघ मण्‍डल की भाँति देदीप्‍यमान था। अनन्‍त धनराशि से परिपूर्ण होने के कारण वह भवन धनाध्‍यक्ष कुबेर के निवास स्‍थान की समानता करता था। राजन्! सम्‍पूर्ण वेद वेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उस नगर में निवास करने के लिये आये, जो सम्‍पूर्ण भाषाओं के जानकार थे। उन सबको वहाँ का रहना बहुत पसन्‍द आया। अनेक दिशाओं से धनोपार्जन की इच्‍छावाले वणिक् भी उस नगर में आये।। सब प्रकार की शिल्‍प कला के जानकार मनुष्‍य भी उन दिनों इन्‍द्रप्रस्‍थ में निवास करने के लिये आ गये थे। नगर के चारों ओर रमणीय उद्यान थे।[1] जो आम, आमड़ा, कदम्‍ब, अशोक, चम्‍पा, पुत्राग, नागपुष्‍प, लकुच, कटहल, साल, ताल, तमाल, मौलसिरी और केवड़ा आदि सुन्‍दर फूलों से भरे और फलों के भार से झुके हुए मनोहर वृक्षों से सुशोभित थे। प्राचीन आंवले, लोध्र, खिले हुए अंकोल, जामुन, पाटल, कुब्‍जक, अतिमुक्‍तक लता, करवीर, पारिजात तथा अन्‍य नाना प्रकार के वृक्ष, जिनमें सदा फल और फूल लगे रहते थे और जिनके ऊपर भाँति-भाँति के सहस्‍त्रों पक्षी कलरव करते थे, उन उद्यानों की शोभा बढ़ा रहे थे। मतवाले मयूरों के केकारव तथा सदा उन्‍मत्‍त रहनेवाली कोकिलों कि काकली वहाँ गूंजती रहती थी। उन उद्यानों में दर्पण के समान स्‍वच्‍छ क्रीड़ा भवन तथा नाना प्रकार के लता मण्‍डप बनाये गये थे। मनोहर चित्रशालाओं तथा राजाओं की विहार यात्रा के लिये निर्मित हुए कृत्रिम पर्वतों से भी वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे थे। उत्‍तम जल से भरी हुई अनेक प्रकार की बावलियां तथा कमल और उत्‍पल की सुगन्‍ध से वासित अत्‍यन्‍त रमणीय सरोवर जहाँ हंस, कारण्‍डव तथा चक्रवाक आदि पक्षी निवास करते थे, उन उद्यानों की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ वन से घिरी हुई भाँति-भाँति की रमणीय पुष्‍करिणियां और सुरम्‍य एवं विशाल बहुसंख्‍यक तड़ाग बड़े सुन्‍दर जान पड़ते थे। वह नगर चारों वर्णों के लोगों से ठसाठस भरा था। माननीय शिल्‍पी वहाँ निवास करते थे। वह पुरी उपभोग में आने वाली समस्‍त सामग्रियों से सम्‍पन्‍न थी। वहाँ सदा श्रेष्‍ठ पुरुष रहा करते थे। असंख्‍य नर-नारी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ मतवाले हाथी, ऊंट, गायें, बैल, गदहे और बकरे आदि पशु भी सदा मौजूद रहते थे। विश्‍वकर्मा द्वारा बनायी हुई उस पुरी में सदा साधु-महात्‍माओं का समागम होता था। वह इन्‍द्रप्रस्‍थ नगर स्‍वर्ग के समान शोभा पाता था। राजन्, कौरवराज महातेजस्‍वी कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर ने वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा मंगल कृत्‍य कराकर द्वैपायन व्‍यास को आगे करके धौम्‍य मुनि की सम्‍मति के अनुसार भाइयों तथा भगवान् श्रीकृष्‍ण के साथ बत्‍तीस दरवाजों से युक्‍त तोरण द्वार के सामने आकर वर्धमान नामक नगर द्वार में प्रवेश किया। उस समय शंक्‍ख और नगारों की आवाज बड़े जोर-जोर से सुनायी देती थी। सहस्‍त्रों ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए जय घोष का श्रवण होता था। मुनि तथा सूत, मागध और बन्‍दीजन राजा की स्‍तुती कर रहे थे। राजा युधिष्ठिर हाथी पर बैठे हुए थे। उन्‍होंने राजमार्ग को पार करके एक उत्‍तम भवन में प्रवेश किया, जहाँ मांगलिक कृत्‍य सम्‍पन्‍न किया गया था। उस भवन में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सत्‍कारों से सम्‍मानित हों राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्‍ण के साथ क्रमश: सभी शेष ब्राह्मणों का पूजन किया। तदनन्‍तर अगणित नर-नारियों से सुशोभित वह राष्‍ट्र और नगर गोधन से सम्‍पन्‍न हो गया और दिनों दिन खेती की वृद्धि होने लगी। महाराज! पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍यों ने भरे हुए उस महान् राष्‍ट्र में प्रवेश करने के बाद पाण्‍डवों की प्रसन्‍नता निरन्‍तर बढ़ती गयी। भीष्‍म तथा राजा धृतराष्‍ट्र द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को आधा राज्‍य देकर वहाँ से विदा कर देने पर समस्‍त पाण्‍डव खाण्‍डवप्रस्‍थ के निवासी हो गये।[2]




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 28-40
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 41-50

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की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा 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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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सुभद्रा हरण पर्व
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हरणा हरण पर्व
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खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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