अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना

महाभारत आदि पर्व के ‘खाण्डव दाह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 224 के अनुसार राजा श्वेतकि की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर धूमरूपी ध्वजा से सुशोभित होने वाले भगवान हुताशन ने दर्शन की इच्छा से लोकपाल वरुण का चिन्तन किया। अदिति के पुत्र, जल के स्वामी और सदा जल में निवास करने वाले उन वरुणदेव ने, अग्निदेव ने मेरा चिन्तन किया है, यह जानकर तत्काल उन्हें दर्शन दिया। चौथे लोकपाल सनातन देवदेव जलेश्वर वरुण का स्वागत सत्कार करके धूमकेतु अग्नि ने उनसे कहा -। ‘वरुणदेव! राजा सोम ने आपको जो दिव्य धनुष और अक्षय तरकस दिये हैं, वे दोनों मुझे शीघ्र दीजिये। साथ ही कपियुक्त ध्वजा से सुशोभित रथ भी प्रदान कीजिये। ‘आज कुन्ती पुत्र अर्जुन गाण्डीव धनुष के द्वारा और भगवान वासुदेव चक्र के द्वारा मेरा महान कार्य सिद्ध करेंगे; अतः वह सग आज मुझे दे दीजिये।’ तब वरुण ने अग्निदेव से ‘अभी देता हूँ’ ऐसा कहकर वह धनुषों में रत्न के समान गाण्डीव तथा बाणों से भरे हुए दो अक्षय एवं बड़े तरकस भी दिये। वह धनुष अद्भुत था। उसमें बड़ी शक्ति थी और वह यश एवं कीर्ति को बढ़ाने वाला था। किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वह टूट नहीं सकता था और दूसरे सब शस्त्रों को नष्ट कर डालने की शक्ति उसमें मौजूद थी। उसका आकार सभी आयुधों से बढ़कर था। शत्रुओं की सेना को विदीर्ण करने वाला वह एक ही धनुष दूसरे लाख धनुषों के बराबर था। वह अपने धारण करने वाले के राष्ट्र को बढ़ाने वाला एवं विचित्र था। अनेक प्रकार के रंगों से उसकी शोभा होती थी। वह चिकना और छिद्र से रहित था। देवताओं, दानवों और गन्धर्वों ने अनन्त वर्षों तक उसकी पूजा की थी। इसके सिवा वरुण ने दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ भी प्रस्तुत किया, जिसकी ध्वजा पर श्रेष्ठ कपि विराजमान था। उसमें जुते हुए अश्वों का रंग चाँदी के समान सफेद था। वे सभी घोड़े गन्धर्व देश में उत्पन्न तथा सोने की मालाओं से विभूषित थे। उनकी कान्ति सफेद बादलों की सी जान पड़ती थी। वे वेग में मन और वायु की समानता करते थे। वह रथ सम्पूर्ण आवश्यक वस्तुओं से युक्त तथा देवताओं और दानवों के लिये भी अजेय था उसमें तेजोमयी किरणे छिटकती थीं। उसके चलने पर सब ओर बड़े जोर की आवाज गूँज उठती थी। वह रथ सब प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण बड़ा मनोरम जान पड़ता था। सम्पूर्ण जगत के स्वामी प्रजापति विश्वकर्मा ने बड़ी भारी तपस्या के द्वारा उस रथ का निर्माण किया था। उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ का ‘इदमित्थम्’ रूप से वर्ण नहीं हो सकता था। पूर्वकाल में शक्तिशाली सोम (चन्द्रमा) ने उसी रथ पर आरूढ़ हो दानवों पर विजयी पायी थी। वह रथ नूतन मेघ के समान प्रतीत होता था और अपनी दिव्य शोभा से प्रज्वलित हो रहा था। इन्द्रधनुष के समान कान्ति वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन उस श्रेष्ठ रथ के समीप गये। उस रथ का ध्वजदण्ड बड़ा सुन्दर और सुवर्णमय था। उसके ऊपर सिंह और व्याघ्र के समान भयंकर आकृति वाला दिव्य वानर बैठा था।[1] उस रथ के शिखर पर बैठा हुआ वह वानर ऐसा जान पड़ता था, मानो शत्रुओं को भस्म कर डालना चाहता हो। उस ध्वज में और भी नाना प्रकार के बड़े भयंकर प्राणी रहते थे, जिनकी आवाज सुनकर शत्रु सैनिकों के होश उड़ जाते थे। वह श्रेष्ठ रथ भाँति-भाँति की पताकाओं से सुशोभित हो रहा था। अर्जुन ने कमर कस ली, कवच और तलवार बाँध ली, दस्ताने पहन लिये तथा रथ की परिक्रमा और देवताओं को प्रणाम करके वे उस पर आरूढ़ हुए, ठीक वैसे ही, जैसे कोई पुण्यात्मा विमान पर बैठता है। तदनन्तर पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने जिसका निर्माण किया था, उस दिव्य एवं श्रेष्ठ गाण्डीव धनुष को हाथ में लेकर अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए। पराक्रमी धनंजय ने अग्निदेव को सामने रखकर उस धनुष को हाथ में उठाया और बल लगाकर उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। महाबली पाण्डुकुमार ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाते समय जिन लोगों ने उसकी टंकार सुनी, उसका हृदय व्यथित हो उठा। वह रथ, धनुष तथा अक्षय तरकस पाकर कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अग्नि की सहायता करने में समर्थ हो गये। तदनन्तर पावक ने भगवान श्रीकृष्ण को एक चक्र दिया, जिसका मध्यभाग वज्र के समान था। उस अग्निप्रदत्त प्रिय अस्त्र चक्र को पाकर भगवान श्रीकृष्ण भी उस समय सहायता के लिये समर्थ हो गये। उनसे अग्निदेव ने कहा - ‘मधुसूदन! इस चक्र के द्वारा आप युद्ध में अमानव प्राणियों को भी जीत लेंगे, इसमें संशय नहीं है। इसके होने से आप युद्ध में मनुष्यों, देवताओं, राक्षसों, पिशाचों, दैत्यों और नागों से भी अधिक शक्तिशाली होंगे तथा इन सबका संहार करने में भी निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होंगे। ‘माधव! युद्ध में आप जब-जब इसे शत्रुओं पर चलायेंगे, तब-तब यह उन्हें मारकर और स्वयं किसी अस्त्र से प्रतिहम ने होकर पुनः आपके हाथ में आ जाएगा।’ तत्पश्चात् भगवान वरुण ने भी बिजली के समान कड़कड़ा हट पैदा करने वाली कौमोदकी नामक गदा भगवान को भेंट की, जो दैत्यों का विनाश करने वाली और भयंकर थी। इसके बाद अस्त्रविद्या के ज्ञाता एवं शस्त्र सम्पन्न अर्जुन और श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अग्निदेव से कहा - ‘भगवन! अब हम दोनों रथ और ध्वजा से युक्त हो सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों से भी युद्ध करने में समर्थ हो गये हैं; फिर तक्षक नाग के लिये युद्ध की इच्छा रखने वाले अकेले वज्रधारी इन्द्र से युद्ध करना क्या बड़ी बात है?’

अर्जुन बोले - अग्निदेव! सबकी इन्द्रियों के प्रेरक ये महापराक्रमी जनार्दन जब हाथ में चक्र लेकर युद्ध में विचरेंगे, उस समय त्रिलोकी में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसे ये चक्र के प्रहार से भस्म न कर सकें। पावक! मैं भी यह गाण्डीव धनुष और ये दोनों बड़े-बड़े़ अखय तरकस लेकर सम्पूर्ण लोकों को युद्ध में जीत लेने का उत्साह रखता हूँ। महाप्रभो! अब आप इस सम्पूर्ण वन को चारों ओर से घेरकर आज ही इच्छानुसार जलाइये। हम आपकी सहायता के लिये तैयार हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! श्रीकृष्ण और अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान अग्नि ने तेजोमय रूप धारण करके खाण्डववन को सब ओर से जलाना आरम्भ कर दिया। सात ज्वालामयी जिह्वाओं वाले अग्निदेव खाण्डववन को सब ओर से घेरकर महाप्रलय का सा दृश्य उपस्थित करते हुए जलाने लगे। भरतश्रेष्ठ! उस वन को चारों ओर से अपनी लपटों में लपेटकर और उसके भीतरी भाग में भी व्याप्त होकर अग्निदेव मेघ की गर्जना के समान गम्भीर घोष करते हुए समस्त प्राणियों को कँपाने लगे। भारत! उस जलते हुए खाण्डववन का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो सूर्य की किरणो से व्याप्त पर्वतराज मेरु का सम्पूर्ण कलेवर उद्दीत हो उठा हो।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 224 श्लोक 1-15
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 224 श्लोक 16-37

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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सुभद्रा हरण पर्व
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