- महाभारत आदि पर्व के आस्तीक पर्व के अंतर्गत अध्याय 29 के अनुसार कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
निषादों का भक्षण करते-करते गरुड़ के मुख में एक ब्राह्मण भी घुस गये जैसे उन्हें यह पता चला उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मण को अपने मुख से निकलने को कहा तो ब्राह्मण ने कहा मेरे साथ मेरी भार्या जो कि एक निषादी है उसके भी निकाल दो तो गरुड़ ने दोनों को शीघ्र ही अपने मुख से निकाल दिया मुख से निकलने के बाद ब्राह्मण और उसकी भार्या उन्हें आर्शिवाद देकर वहाँ से चले गये।
विषय सूची
कश्यप का गरुड़ से मिलना
भार्या सहित उस ब्राह्मण के निकल जाने पर वह पक्षिराज गरुड़ पंख फैलाकर मन के समान तीव्र वेग से आकाश में उड़े। तदनंतर उन्हें अपने पिता कश्यपजी का दर्शन हुआ। उनके पूछ्ने पर अमेयात्मा गरुड़ ने पिता से यथोचित कुशल समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले। कश्यपजी ने पूछा - बेटा! तुम लोग कुशल से तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजन के सम्बन्ध में तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्य लोक में तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है? गरुड़ ने कहा - मेरी माता सदा कुशल से रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परन्तु पिताजी! पर्याप्त भोजन के विषय में तो सदा मेरे लिये कुशल का अभाव ही है। मुझे सर्पों ने उत्तम अमृत लाने के लिये भेजा है। माता को दासीपन से छुटकारा दिलाने के लिय आज मैं निश्चय ही उस अमृत को लाऊँगा। भोजन के विषय में पूछने पर माता ने कहा - ‘निषादों का भक्षण करो, परन्तु हजारों निषादों को खा लेने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है।' अत: भगवान! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर मैं अमृत लाने में समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख- प्यास को मिटा देने के लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये।'
पूर्व जन्म कथा
कश्यपजी बोले--बेटा! यह महान पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोक में भी विख्यात है। उसमें एक हाथी नीचे को मुँह किये सदा सूँड से पकड़कर एक कछुए को खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्व जन्म में उसका बड़ा भाई था। दोनों में पूर्व जन्म का वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यो और कैसे हुआ तथा उन दोनों के शरीर की लम्बाई चैड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल में विभावसु नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभाव के बड़े क्रोधी थे। उनके छोटे भाई का नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक। अपने धन को बड़े भाई के साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे। सुप्रतीक प्रतिदिन बँटबारे के लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई विभावसु ने सुप्रतीक से कहा - ‘भाई! बहुत से मनुष्य मोहवश सदा धन का बँटबारा कर लेने की इच्छा रखते हैं। तदनन्तर हो जाने पर धन के मोह में फँसकर वे एक दूसर के विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं।
वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धन के साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूप में आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहते हैं। ‘दूसरे लोग, उनमें फूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिद्र देखा करते हैं एवं छिद्र मिल जाने पर उनमें परस्पर वैर बढ़ाने के लिय स्वयं बीच में आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोग अलग-अलग होकर आपस में फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। ‘अतः साधु पुरुष भाईयों के बीच अलगाव या बंटवारे की प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इस प्रकार बँट जाने वाले भाई गुरुस्वरूप शास्त्र की उलंघनीय आज्ञा के अधीन नहीं रह जाते और एक- दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं।[2] ‘सुप्रतीक! तुम्हें वश में करना असम्भव हो रहा है और तुम भेद-भाव के कारण ही बँटबारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथी की योनि में जन्म लेना पड़ेगा।' इस प्रकार शाप मिलने पर सुप्रतीक और विभावसु से कहा-‘तुम भी पानी के भीतर विचरने वाले कछुए होओगे।' इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरे के शाप से हाथी और कछुए की योनि में पड़े हैं। धन के लिये उनके मन में मोह छा गया था।
रोष और लोभरूपी दोष के सम्बन्ध से उन दोनों को तिर्यक योनि में जाना पड़ा है। वे दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्म के वैर का अनुसरण करके अपनी विशालता और बल के घमण्ड में चूर हो एक दूसरे से द्वेष रखते हुए इस सरोवर में रहते हैं। इन दोनों में एक जो सुन्दर महान गजराज है, वह जब सरोवर के तट पर आता है, तब उसके चिंघाड़ने की आवाज सुनकर जल के भीतर शयन करने वाला विशालकाय कछुआ भी पानी से ऊपर आता है। उस समय वह सारे सरोवर को मथ डालता है। उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जल में टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरों के वेग से असंख्य मछलियों से भरे हुए समूचे सरोवर में हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्ध के लिये निकट आ जाता है। हाथी का शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजना लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजना गोल है। वे दोनों एक दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध के लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन दोनों को भोजन के उपयोग में लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्य का साधन करो। कछुआ महान मेघ-खण्ड के समान है और हार्थी भी महान पर्वत के समान भयंकर है। उन्हीं दोनों को खाकर अमृत ले आओ। उग्रश्रवाजी कहते हैं - शौनकजी! कश्यपजी गरुड़ से ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले-‘गरुड़! युद्ध में देवताओं के साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो। ‘पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मागंलिक वस्तुएँ हैं, वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगी।' [3]-
- गरुड़ का कछुए और हाथी को पकड़ना
‘महाबली पक्षिराज! संग्राम में देवताओं के साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।’ पिता के ऐसा कहने पर गरुड़ उस सरोवर के निकट गये। उन्होंने देखा, सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकार के पक्षी इसमें सब ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुड़ ने पिता के वचन का स्मरण करके एक पंजे से हाथी को और दूसरे से कछुए को पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज आकाश में ऊँचे उड़ गये। उड़कर वे फिर उलम्बतीर्थ में जा पहुँचे। वहाँ (मेरू गिरिपर) बहुत से दिव्यवृ़क्ष अपनी सुवर्णमय शाखा प्रशाखाओं के साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड़ उनके पास गये, तब उनके पंखों की वायु से आहत होकर वे सभी दिव्यवृ़क्ष इस भय से कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें तोड़ न डालें। गरुड़ रुचि के अनुसार फल देने वाले उन कल्य वृक्षों को काँपते देख अनुपम रूप-रंग तथा अंगों वाले दूसरे-दूसरे महावृक्षों की ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य मणि की थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलों से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष समुद्र के जल से अभिषिक्त होते रहते थे। वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वट वृक्ष था। उसने मन के समान तीव्र वेग से आते हुए पक्षियों के सरदार गरुड़ से कहा। वटवृक्ष बोला - पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजन तक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसी पर बैठकर तुम इस हाथी और कछुए को खा लो। तब पर्वत के समान विशाल, शरीर वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड़ सहस्रों विहंगमों से सेवित उस महान वृक्ष को कम्पित करते हुए तुरन्त उस पर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्म वेग से उन्होंने सघन पल्लवों से सुशोभित उस विशाल शाखा को तोड़ डाला।[4]-
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-18। ।
- ↑ कनिष्ठान पुत्रवत पश्येज्ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः’ अर्थात ‘बड़ा भाई पिता के समान होता है। वह अपने छोटे भाईयों को पुत्र के समान देखे।’ यह शास्त्र की आज्ञा है। जिसमें फूट हो जाती है, वे पीछे इस आज्ञा का पालन नहीं कर पाते।
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 29 श्लोक 19-34। ।
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 29 श्लोक 35-44। ।
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| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
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| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
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| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
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| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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