पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 94 के अनुसार पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की कथा का वर्णन

जनमेजय बोले - ब्रह्मन मैं आपके मुख से पूर्ववर्ती राजाओं की उत्‍पत्ति का महान वृत्तान्‍त सुना। इस पूरु वंश में उत्‍पन्न हुए राजाओं के नाम भी मैंन भली-भाँति सुन लिये। परंतु संक्षेप से कहा हुआ यह प्रिय आख्‍यान सुनकर मुझे पूर्णत: तृप्ति नहीं हो रही है। अत: आप मुझ पुन: विस्‍तार पूर्वक मुझसे इसी दिव्‍य कथा का वर्णन कीजिये। दक्ष प्रजापति और मनु से लेकर उन सब राजाओं का पवित्र जन्‍म-प्रसंग किसको प्रसन्न नहीं करेगा? उत्तम धर्म और गुणों के माहात्‍मय से अत्‍यन्‍त वृद्धि को प्राप्त हुआ इन राजाओं का श्रेष्ठ और ज्‍ज्‍वल यश तीनों लोक में व्‍याप्त हो रहा है। ये सभी नरेश उत्तम गुण, प्रभाव, बल-पराक्रम, ओज, सत्तच (धैर्य) और उत्‍साह से सम्‍पन्न थे। इनकी कथा अमृत के समान मधुर है, उसे सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं हो रही है।

वैशम्‍पायन जी ने कहा - पूर्वकाल में मैंने महर्षि कृष्‍ण द्वैपायन के मुख से जिसका भली-भाँति श्रवण किया था, वह सम्‍पूर्ण प्रसंग तुम्‍हें सुनाता हूँ। अपने वंश की उत्‍पत्ति का वह शुभ वृत्तान्‍त सुनो। दक्ष से अदिति,अदिति से विवस्‍वान (सूर्य), विवस्‍वान से मनु, मनु से इला, इला से पुरूरवा, पुरूरवा से आयु, आयु से नहुष और नहुष से ययाति का जन्‍म हुआ। ययाति के दो पत्नी यांथी; पहली शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा दूसरी वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्‍ठा। यहाँ उनके वंश का परिचय देने वाला यह लोक कहा जाता है- देवयानी ने यदु और तुर्वसु नाम वाले दो पुत्रों को जन्‍म दिया और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्‍ठा ने द्रुह्यु, अनु तथा पूरु- ये तीन पुत्र उत्‍पन्न किये। इनमें यदु से यादव और पूरु से पौरव हुए। पूरु की पत्नी का नाम कौसल्‍या था (उसी को पौष्टि भी कहते हैं)। उसके गर्भ से पूरु के जनमेजय नामक पुत्र हुआ (इसी का दूसरा नाम प्रवीर है); जिसने तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था और विश्वजित यज्ञ करके वानप्रस्‍थ आश्रम ग्रहण किया था। जनमेजय मधुवंश की कन्‍या अनन्‍ता के साथ विवाह किया था। उसके गर्भ से उनके प्राचिन्‍वान नामक पुत्र दिशा को एक ही दिन में जीत लिया था; इसीलिये उसका नाम प्रचिन्‍वान हुआ। प्रचिन्‍वान ने यदु कुल की कन्‍या अश्‍मकी को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से उन्‍हें संयाति नामक पुत्र प्राप्त हुआ। संयाति ने दृषद्वान की पुत्री वरांगी से विवाह किया। उसके गर्भ से उन्‍हें अहंयाति नामक पुत्र हुआ। अहंयाति ने कृतवीर्य कुमारी भानुमति को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से अहंयाति के सार्वभौम नामक पुत्र उत्‍पन्न हुआ। सार्वभौम ने युद्ध में जीतकर केकय कुमारी सुनन्दा का अपहरण किया और उसी को अपनी पत्नी बनाया। उससे उसको जयत्‍सेन नामक पुत्र प्राप्त हुआ। जयत्‍सेन ने विदर्भ राजकुमारी सुश्रुवा से विवाह किया। उसके गर्भ से उनके अवाचीन नामक पुत्र हुआ। अवाचीन ने भी विदर्भ राजकुमारी मर्यादा के साथ विवाह किया, जो आगे बतायी जाने वाली देवातिथि की पत्नी से भिन्न थी। उसके गर्भ से उन्‍हें ’अरिह’ नामक पुत्र हुआ। अरिह ने अंग देश की राजकुमारी से विवाह किया और उसके गर्भ से उन्‍हें महाभौम नामक पुत्र प्राप्त हुआ। महाभौम ने प्रसेनजित की पुत्री सुयज्ञा से विवाह किया उसके गर्भ से उन्‍हें अयुतनायी नामक पुत्र प्राप्त हुआ; जिसने दस हजार पुरुषमेध ‘यज्ञ’ किये। अयुत यज्ञों का आनयन (अनुष्ठान) करने के कारण ही उनका नाम अयुतनायी हुआ।[1]

अयुतनायी ने पृथुश्रवा की पुत्री कामा से विवाह किया, जिसके गर्भ से अक्रोधन का जन्‍म हुआ। अक्रोधन ने कलिंग देश की राजकुमारी करम्‍भा से विवाह किया। जिसके गर्भ से उनके देवातिथि नामक पुत्र का जन्‍म हुआ। देवातिथि ने विदेह राजकुमारी मर्यादा से विवाह किया, जिसके गर्भ से अरहि नामक पुत्र उत्‍पन्न हुआ। अरिह ने अंग राजकुमारी सुदेवा के साथ विवाह किया, और उसके गर्भ से ऋक्ष नामक पुत्र को जन्‍म दिया। ॠक्ष ने तक्षक की पुत्री ज्‍वाला के साथ विवाह किया, उसके गर्भ से मतिनार नामक पुत्र उत्‍पन्न किया। मतिनार ने सरस्‍वती के तट पर उत्तम गुणों से युक्त द्वाद्वश वार्षिक यज्ञ का अनुष्‍ठान किया। उसके समाप्त होने पर सरस्‍वती ने उनके पास आकर उन्‍हें पति रूप में वरण किया। मतिनार ने उसके गर्भ से तंसु नामक पुत्र उत्‍पन्न किया। यहाँ वंश परम्‍परा का सूचक श्लोक इस प्रकार है- सरस्‍वती ने मतिनार से तंसु नामक पुत्र उत्‍पन्न किया और कलिंग राजकुमारी के गर्भ से ईलिन नामक पुत्र को जन्‍म दिया। ईलिन ने रथन्तरी के गर्भ से दुष्यन्त आदि पांच पुत्र उत्‍पन्न किये। दुष्‍यन्‍त ने विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला के साथ विवाह किया; जिसके गर्भ से उनके पुत्र भरत का जन्‍म हुआ। यहाँ वंश परम्‍परा के सूचक दो श्लोक हैं- ‘माता तो भाथी (धौंकनी) के समान हैं। वास्‍तव में पुत्र पिता का ही होता है; जिससे उसका जन्‍म होता है, वही उस बालक के रूप में प्रकट होता है। दुष्‍यन्‍त तुम अपने पुत्र का भरण-पोषण करो; शकुन्‍तला का अपमान न करो। ‘गर्भाधान करने वाला पिता ही पुत्ररूप में उत्‍पन्न होता है। नरदेव पुत्र यम लोक से पिता का उद्धार कर देता है। तुम्‍ही इस गर्भ के आधान करने वाले हो। शकुन्‍तला का कथन सत्‍य है।’ आकाश वाणी ने भरण-पोषण के लिये कहा था, इसलिये उस बालक का भरत हुआ। भरत ने राजा सर्वसेन की पुत्री सुनन्दा से विवाह किया। वह काशी की राजकुमारी थी उसके गर्भ से भरत के भुमन्यु नामक पुत्र हुआ। भुमन्‍यु ने दशार्ह कन्‍या विजया से विवाह किया; जिसके गर्भ से सुहोत्र का जन्‍म हुआ। सुहोत्र ने इक्ष्‍वाकु कुल की कन्‍या सुवर्णा से विवाह किया। उसके गर्भ से उन्‍हें हस्‍ती नामक पुत्र हुआ; जिसने यह हस्तिनापुर नामक नगर बसाया था। हस्‍ती के बसाने से ही यह नगर ‘हस्तिनापुर’ कहलाया। हस्ति ने त्रिगर्तराज की पुत्री यशोधरा के साथ विवाह किया और उसके गर्भ से विकुण्ठन नामक पुत्र उत्‍पन्न हुआ। विकुण्‍ठन ने दशार्ह कुल की कन्‍या सुदेवा से विवाह किया और उसके गर्भ से उन्‍हें अजमीढ़ नामक पुत्र प्राप्त हुआ। अजमीढ के कैकेयी, गांधारी, विशाला तथा ॠक्षा से एक सौ चौबीस पुत्र हुए। वे सब पृथक्-पृथक् वंश प्रर्वतक राजा हुए। इनमें राता संवरण कुरुवंश के प्रर्वतक हुए। संवरण ने सूर्य कन्‍या तपती से विवाह किया; जिसके गर्भ से कुरु का जन्‍म हुआ। कुरु ने दशार्हकुल की कन्‍या शुभांगी से विवाह किया। उसके गर्भ से कुरु के विदूर नामक पुत्र हुआ। विदूर ने मधुवंश की कन्‍या सम्प्रिया से विवाह किया; जिसके गर्भ से उन्हें अनश्वा नामक पुत्र प्राप्त हुआ। अनश्वा ने मगध राजकुमारी अमृता को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से उनके परिक्षित नामक पुत्र उत्‍पन्न हुआ।[2]

परिक्षित के बाहुदराज की पुत्री सुयशा के साथ विवाह किया: जिससे उनके भीमसेन नामक पुत्र हुआ। भीमसेन ने केकय देश की राजकुमारी कुमारी को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से प्रतिश्रवा का जन्‍म हुआ। प्रतिश्रवा से प्रतीप उत्‍पन्न। उसने शिवि देश की राजकन्‍या सुनन्दा से विवाह किया और उसके गर्भ से देवापि, शान्‍तनु तथा वाह्लीक -इन तीन पुत्रों को जन्‍म दिया। देवापि बाल्‍यवस्‍था में ही वन को चले गये, अत: शान्‍तनु राजा हुए। शान्‍तनु के विषय में यह अनुवंश श्‍लोक उपलब्‍ध होता है- वे जिस-जिस बूढ़े को अपने दोनों हाथों से छू देते थे, वह बड़े सुख और शान्ति का अनुभव करता था तथा पुन: नौजवान हो जाता था। इसीलिये ये लोग उन्‍हें शान्‍तनु के रुप में जानने लगे। यही उनके शान्‍तनु नाम पड़ने का कारण हुआ। शान्‍तनु ने भागीरथी गंगा को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से उन्‍हें देवव्रत नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे लोग ‘भीष्‍म’ कहते हैं। भीष्‍म ने अपने पिता का प्रिय करने की इच्‍छा से उनके साथ माता सत्यवती का विवाह कराया; जिसे गन्धकाली भी कहते हैं। सत्‍यवती के गर्भ से पहले कन्‍यावस्‍था में महर्षि पराशर से द्वैपायन व्यास उत्‍पन्न हुए थे। फि‍र उसी सत्‍यवती के राजा शान्‍तनु द्वारा दो पुत्र और हुए। जिनका नाम था, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। उनमें से चित्रांगद युवावस्‍था में पदार्पण करने से पहले ही एक गन्‍धर्व के द्वारा मारे गये; परंतु विचित्रवीर्य राजा हुए। विचित्रवीर्य ने अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया। वे दोनों काशिराज की पुत्रियां थीं और उनकी माता का नाम कौसल्‍या था। विचित्रवीर्य के अभी कोई संतान नहीं हुई थी, तभी उनका देहवसान हो गया। तब सत्‍यवती को यह चिन्‍ता हुई कि ‘राजा दुष्‍यन्‍त का यह वंश नष्ट न हो जाय।’ उसने मन-ही-मन द्वैयापन महर्षि व्‍यास का चिन्‍तन किया। फि‍र तो व्‍यासजी उसके आगे प्रकट हो गये और बोले- ‘क्‍या आज्ञा है?’ सत्‍यवती ने उनसे कहा- ‘बेटा तुम्‍हारे भाई विचित्रवीर्य संतानहीन अवस्‍था में ही स्‍वर्गवासी हो गये। अत: उनके वंश की रक्षा के लिये उत्तम संतान उत्‍पन्न करो।’ उन्‍होंने ‘तथास्‍तु’ कहकर धृतराष्ट्र, पाण्‍डु और विदुर- इन तीन पुत्रों को उत्‍पन्न किया। उनमें से राजा धृतराष्ट्र के गान्‍धारी के गर्भ से व्‍यासजी के दिये हुए वरदान के प्रभाव से सौ पुत्र हुए। धृतराष्ट्र के उन सौ पुत्रों में चार प्रधान थे- दुर्योधन, दु:शासन, विकर्ण और चित्रसेन। पाण्‍डु की दो पत्नियां थीं; कुन्तिभोज की कन्‍या पृथा और माद्री ये दोनों ही स्त्रियों में रत्नस्‍वरुपा थीं। एक दिन राजा पाण्‍डु ने शिकार खेलते समय एक मृग रुपधारी ऋषि को मृगी रुपधारिणी अपनी पत्‍नी के साथ मैथुन करते देखा। वह अद्भुत मृग अभी काम-रस का आस्‍वादन नहीं कर सका था। उसे अतृप्त अवस्‍था में ही राजा ने बाण से मार दिया। बाण से घायल होकर उस मुनि ने पाण्‍डु से कहा- ‘तुम भी इस मैथुन धर्म का आचरण करने वाले तथा काम-रस के ज्ञाता हो, तो भी तुमने मुझे उस दशा में मारा है, जबकि मैं काम-रस से तृप्त नहीं हुआ था। इस कारण इसी अवस्‍था में पहुँचकर काम-रस का आस्‍वादन करने से पहले ही शीघ्र मृत्‍यु को प्राप्त हो जाओगे। यह सुनकर राजा पाण्‍डु उदास हो गये और शाप का परिहार करते हुए पत्नियों के सहवास से दूर रहने लगे। उन्‍होंने कहा।[3]

‘देवियो अपनी चपलता के कारण मुझे यह शाप मिला है। सुनता हूं, संतान हीन को पुण्‍यलोक नहीं प्राप्त होते हैं। अत: तुम मेरे लिये पुत्र उत्‍पन्न करो। ‘यह बात उन्‍होंने कुन्‍ती से कही। उनके ऐसा करने पर कुन्‍ती ने तीन पुत्र उत्‍पन्न किये- धर्मराज से युधिष्ठिर को, वायुदेव से भीमसेन को और इन्‍द्र से अर्जुन को जन्‍म दिया। इससे पाण्‍डु को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्‍होंने कुन्‍ती से कहा- ‘यह तुम्‍हारी सौत माद्री तो संतान हीन ही रह गयी, इसके गर्भ से भी सुन्‍दर संतान उत्‍पन्न होने की व्‍यवस्‍था करो। ‘ऐसा ही हो’ कहकर कुन्‍ती ने अपनी वह विद्या (‍जिससे देवता आकृष्ट होकर चले आते थे) माद्री को भी दे दी। माद्री के गर्भ से अश्विनीकुमारों ने नकुल और सहदेव को उत्‍पन्न किया। एक दिन माद्री को श्रृंगार किये देख पाण्‍डु उसके प्रति आसक्त हो गये और उनका स्‍पर्श होते ही उनका शरीर छूट गया। तदनन्‍तर वहाँ चिता की आग में स्थित पति के शव के साथ माद्री चिता पर आरूढ़ हो गयी और कुन्‍ती से बोली - ‘बहिन मेरे जुड़वें बच्चों के भी लालन-पालन में तुम सदा सावधान रहना’। इसके बाद तपस्‍वी मुनियों ने कुन्‍ती सहित पाण्‍डवों को वन से हस्तिनापुर में लाकर भीष्‍म तथा विदुर जी को सौंप दिया। साथ ही समस्‍त प्रजावर्ग के लोगों को भी सारे समाचार बताकर वे तपस्‍वी उन सब के देखते-देखते वहाँ से अन्‍तर्धान हो गये। उन ऐश्वर्यशाली मुनियों की बात सुनकर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और देवताओं की दुन्‍दुभियां बज उठीं। भीष्‍म और धृतराष्ट्र के द्वारा अपना लिये जाने पर पाण्‍डवों ने उनसे अपने पिता की मृत्‍यु का समाचार बताया, तत्‍पश्चात् पिता की और्घ्‍वदैहिक क्रिया को विधि पूर्वक सम्‍पन्न करके पाण्‍डव वहीं रहने लगे। दुर्योधन को बाल्‍यावस्‍था से ही पाण्‍डवों का साथ रहना सहन नहीं हुआ। पापाचारी दुर्योधन राक्षसी बुद्धि का आश्रय ले अनेक उपायों से पाण्‍डवों की जड़ उखाड़ने का प्रयत्न करता रहता था। परंतु जो होने वाली बात है, वह होकर ही रहती है; इसलिये दुर्योधन आदि पाण्‍डवों को नष्ट करने में सफल न हो सके। इसके बाद धृतराष्ट्र ने किसी बहाने से पाण्‍डवों को जब वारणावत नगर में जाने के लिये प्रेरित किया, तब उन्‍होंने वहाँ से जाना स्‍वीकार कर लिया। वहाँ भी उन्‍हें लाक्षाग्रह में जला डालने का प्रयत्न किया गया; किंतु पाण्‍डवों के विदुरजी की सलाह के अनुसार काम करने के कारण विरोधी लोग उनको दग्‍ध करने में समर्थ न हो सके। पाण्‍डव वारणावत से अपने को छिपाते हुए चल पड़े और मार्ग में हिडिम्ब राक्षस का वध करके वे एकचक्रा नगरी में पहुँचे। एकचक्रा में भी बक नाम वाले राक्षस का संहार करके वे पाञ्चाल नगर में चले गये। वहाँ पाण्‍डवों ने द्रौपदी को पत्नी रुप में प्राप्त किया और फि‍र अपनी राजधानी हस्तिनापुर में लौट आये।[4]

वहाँ कुशलर्वक रहते हुए उन्‍होंने द्रौपदी से पांच पुत्र उत्‍पन्न किये। युधिष्ठिर ने प्रतिविन्‍घ्‍य को, भीमसेन ने सुतसोम को, अर्जुन ने श्रुतकीर्ति को, नकुल ने शतानीक को और सहदेव ने श्रुतकर्मा को जन्‍म दिया। युधिष्ठिर ने शिबिदेश के राजा गोवासन की पुत्री देविका को स्‍वयंवर में प्राप्त किया और उसके गर्भ से एक पुत्र को जन्‍म दिया; जिसका नाम यौधेय था। भीमसेन ने भी काशिराज की कन्‍या बलन्धरा के साथ विवाह किया; उसे प्राप्त करने के लिये बल एवं पराक्रम का शुल्‍क रखा गया था अर्थात यह शर्त थी कि जो अधिक बलवान हो, वही उसके साथ विवाह कर सकता है। भीमसेन से उसके गर्भ से एक पुत्र उत्‍पन्न किया, जिसका नाम सर्वग था। अर्जुन ने द्वारिका में जाकर मंगलमय वचन बोलने वाली वासुदेव की बहिन सुभद्रा को पत्नी रुप में प्राप्त किया और उसे लेकर कुशलता पूर्वक अपनी राजधानी में चले आये। वहाँ उसके गर्भ से अत्‍यन्‍त गुण सम्‍पन्न अभिमन्‍यु नामक पुत्र को उत्‍पन्न किया; जो वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण को बहुत प्रिय था। नकुल ने चेदि नेरश की पुत्री करेणुमती को पत्नी रुप में प्राप्त किया और उसके गर्भ से निरमित्र नामक पुत्र को जन्‍म दिया। सहदेव ने भी मद्रदेश की राजकुमारी विजया को स्‍वयंवर में प्राप्त किया। वह मद्रराज द्युतिमान की पुत्री थी। उसके गर्भ से उन्‍होंने सुहोत्र नामक पुत्र को जन्‍म दिया। भीमसेन ने पहले ही हिडिम्बा के गर्भ से घटोत्कच नामक राक्षस जातीय पुत्र को उत्‍पन्न किया था। इस प्रकार ये पाण्‍डवों के ग्‍यारह पुत्र हुए। इनमें से अभिमन्यु का ही वंश चला। अभिमन्‍यु ने विराट की पुत्री उत्तरा के साथ विवाह किया था। उसके गर्भ से अभिमन्‍यु के एक पुत्र हुआ; जो मरा हुआ था। पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्‍ण के आदेश से कुन्‍ती ने उसे अपनी गोद में ले लिया। उन्‍होंने यह आश्वासन दिया कि छ: महीने के इस मरे हुए बालक को मैं जीवित कर दूंगा। अश्वत्‍थामा के अस्त्र की अग्नि से झुलसकर वह असमय में (समय से पहले) ही पैदा हो गया था। उसमें बल, वीर्य और पराक्रम नहीं था। परंतु भगवान कृष्‍ण ने उसे अपने तेज से जीवित कर दिया। इसको जीवित करके वे इस प्रकार बोले- ‘इस कुल के परिक्षण (नष्ट) होने पर इसका जन्‍म हुआ है; अत: यह बालक परिक्षित नाम से विख्‍यात हो।’ परिक्षित ने तुम्‍हारी माता माद्रवती के साथ विवाह किया, जिसके गर्भ से तुम जनमेजय नामक पुत्र उत्‍पन्न हुए। तुम्‍हारी पत्नी वपुष्टमा के गर्भ से दो पुत्र उत्‍पन्न हुए हैं- शतानीक और शंक्कुकर्ण। शतानीक की पत्नी विदेह राजकुमारी के गर्भ से उत्‍पन्न हुए पुत्र का नाम है अश्वेधदत्त। यह पूरु तथा पाण्‍डवों के वंश का वर्णन किया गया; जो धन और पुण्‍य की प्राप्ति कराने वाला एवं परम पवित्र है, नियम पारयण ब्राह्मणों, अपने धर्म में स्थित प्रजापालक क्षत्रियों, वैश्‍यों तथा तीनों वर्णों की सेवा करने वाले श्रद्धालु शूद्रों को भी सदा इसका श्रवण एवं स्‍वाध्‍याय करना चाहिये। जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य मन को वश में करके ईर्ष्‍या छोड़कर सबके प्रति मैत्रीभाव रखते हुए वेदपरायण हो इस सम्‍पूर्ण पुण्‍यमय इतिहास को सुनायेंगे अथवा सुनेंगे वे स्‍वर्गलोक के अधिकारी होंगे और देवता, ब्राह्मण तथा मनुष्‍यों के लिये सदैव आदरणीय तथा पूजनीय होंगे। जो ब्राह्मण आदि वर्णों के लोग मात्‍सर्यरहित, मैत्रीभाव से संयुक्त और वेदाध्‍ययन से सम्‍पन्न हो श्रद्धापूर्वक भगवान व्‍यास के द्वारा कहे हुए इस परम पावन महाभारत ग्रन्‍थ को सुनेंगे, वे भी स्‍वर्ग के अधिकारी और पुण्‍यात्‍मा होंगे तथा उनके लिये इस बात का शोक नहीं रह जायगा कि उन्‍होंने अमुक कर्म क्‍यों किया और अमुक कर्म क्‍यों नहीं किया। इस विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है- ‘यह महाभारत वेदों के समान पवित्र, उत्तम तथा धन, यश और आयु की प्राप्ति कराने वाला है। मन को वश में रखने वाले साधु पुरुषों को सदैव इसका श्रवण करना चाहिये।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-20
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 21-41
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 42-60
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 61-75
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 76-90

संबंधित लेख

महाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँ


पर्वसंग्रह पर्व
समन्तपंचक क्षेत्र | अक्षोहिणी सेना | महाभारत में वर्णित पर्व
पौष्य पर्व
जनमेजय को सरमा का शाप | जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित पद | आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति | उत्तंक का सर्पयज्ञ
पौलोम पर्व
महर्षि च्यवन का जन्म | भृगु द्वारा अग्निदेव को शाप | अग्निदेव का अदृश्य होना | प्रमद्वरा का जन्म | प्रमद्वरा की सर्प के काटने से मृत्यु | प्रमद्वरा और रुरु का विवाह | रुरु-डुण्डुभ संवाद | डुण्डुभ की आत्मकथा | जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा
आस्तीक पर्व
पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति ‎ | जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण | आस्तीक का जन्म | कद्रु-विनता को पुत्र प्राप्ति | मेरु पर्वत पर भगवान नारायण का समुद्र-मंथन के लिए आदेश | भगवान नारायण का मोहिनी रूप | देवासुर संग्राम | कद्रु और विनता की होड़ | कद्रु द्वारा अपने पुत्रों को शाप | नाग और उच्चैश्रवा | विनता का कद्रु की दासी होना | गरुड़ की उत्पत्ति | गरुड़ द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच | कद्रु द्वारा इंद्रदेव की स्तुति | गरुड़ का दास्यभाव | गरुड़ का अमृत के लिए जाना और निषादों का भक्षण | कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाना | गरुड़ का कश्यप जी से मिलना | इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का अपमान | अरुण-गरुड़ की उत्पत्ति | गरुड़ का देवताओं से युद्ध | गरुड़ का विष्णु से वर पाना | इन्द्र और गरुड़ की मित्रता | इन्द्र द्वारा अमृत अपहरण | शेषनाग की तपस्या | जरत्कारु का जरत्कारु मुनि के साथ विवाह | जरत्कारु की तपस्या | परीक्षित का उपाख्यान | श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को शाप | तक्षक नाग और कश्यप | जनमेजय का राज्यभिषेक और विवाह | जरत्कारु को पितरों के दर्शन | जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह | जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह | परीक्षित के धर्ममय आचार | परीक्षित द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार | श्रृंगी ऋषि का परिक्षित को शाप | जनमेजय की प्रतिज्ञा | जनमेजय के सर्पयज्ञ का उपक्रम | सर्पयज्ञ के ऋत्विजों की नामावली | तक्षक का इंद्र की शरण में जाना | आस्तीक का सर्पयज्ञ में जाना | आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, अग्निदेव आदि की स्तुति | सर्पयज्ञ में दग्ध हुए सर्पों के नाम | आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना
अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन | व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना | कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत | महाभारत की महत्ता | उपरिचर का चरित्र | सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा | ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि | असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना | ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण | महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन | देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन | दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन | दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना | दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना | तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन | दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश | दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप | शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना | विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना | मेनका-विश्वामित्र का मिलन | कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण | शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह | कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन | शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति | पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना | आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन | भरत का राज्याभिषेक | दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति | पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन | कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना | देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध | देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह | शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना | देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप | शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना | शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना | शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना | सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार | ययाति और देवयानी का विवाह | ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति | ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन | देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद | शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना | ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह | ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना | ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना | ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य | ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना | ययाति की तपस्या | ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना | ययाति का स्वर्ग से पतन | ययाति और अष्टक का संवाद | अष्टक और ययाति का संवाद | ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद | ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना | ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना | ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना | पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः