- महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 169 के अनुसार अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता का वर्णन इस प्रकार है[1]-
अर्जुन बोले - दुर्भते समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी के तटपर रात, दिन अथवा संध्या के समय किसका अधिकार सुरक्षित है? आकाशचारी गन्धर्व सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाजी के तट पर आने के लिये यह नियम नहीं है कि यहाँ कोई खाकर आये या बिना खाये, रात में आये या दिन में। इसी प्रकार काल आदि का भी कोर्इ नियम नहीं है। अरे ओ क्रूर हम लोग तो शक्ति सम्पन्न हैं। असमय में भी आकर तुम्हें कुचल सकते हैं। जो युद्ध करने में असमर्थ हैं, वे दुर्बल मनुष्य ही तुम लोगों की पूजा करते हैं।[1] प्राचीन काल में हिमालय के स्वर्ण शिखर से निकली हुई गंगा सात धाराओं में विभक्त हो समुन्द्र में जाकर मिल गयी हैं। जो पुरुष गंगा, यमुना, प्लक्ष की जड़ से प्रकट हुई सरस्वती, रथस्था, सरयू, गोमती और गण्ड की-इन सात नदियों का जल पीते हैं, उनके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह गंगा बड़ी पवित्र नदी हैं। एकमात्र आकाश ही इनका तट है। गन्धर्व ये आकाश मार्ग से विचरती हुई गंगा देवलोक में अलकनन्दा नाम धारण करती हैं। ये ही वैतरणी होकर पितृलोक में बहती हैं। वहाँ पापियों के लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है। इस लोक में आकर इनका नाम गंगा होता है। यह श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास जी का कथन है। ये कल्याणमयी देवनदी सब प्रकार की विघ्न–बाधाओं से रहित एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाली हैं। तुम उन्हीं गंगा जी पर किस लिये रोक लगाना चाहते हो? यह सनातन धर्म नहीं है। जिसे कोई रोक नहीं सकता, जहाँ पहुँचने में कोई बाधा नहीं है, भागीरथी के उस पावन जल का तुम्हारे कहने से हम अपने इच्छानुसार स्पर्श क्यों न करें ?
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय अर्जुन की यह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित हो गया और धनुष नवाकर विषैले सांपों की भाँति तीखे बाण छोड़ने लगा। यह देख पाण्डु नन्दन धनंजय ने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढाल से रोककर उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये।
अर्जुन ने कहा - गन्धर्व जो अस्त्रविद्या के विद्वान हैं, उन पर तुम्हारी यह घुड़ की नहीं चल सकती। अस्त्रविद्या के मर्मज्ञों पर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेन की तरह विलीन हो जायगी। गन्धर्व मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये मैं तुम्हारे साथ माया से नहीं, दिव्यास्त्र से युद्ध करुंगा। गन्धर्व यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकाल में इन्द्र के माननीय गुरु बृहस्पति जी ने भरद्वाज मुनि को दिया था। भरद्वाज से इसे अग्निवेश्य ने और अग्निवेश्य से मेरे गुरु द्रोणाचार्य ने प्राप्त किया है। फिर विप्रवर द्रोणाचार्य ने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो गन्धर्व पर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्र ने गन्धर्व के रथ को जलाकर भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्र के तेज से मूढ़ होकर नीचे मुंह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुन ने उसके फूल की मालाओं से सुशोभित केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। अस्त्र के आघात से वह गन्धर्व अचेत हो गया था। उस गन्धर्व की पत्नी का नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पति के जीवन की रक्षा के लिये महाराज युधिष्ठिर की शरण ली।। गन्धर्वी बोली - महाभाग मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेव को आप छोड़ दीजिये। प्रभो मैं गन्धर्व पत्नी कुम्भीनसी आपकी शरण में आयी हूँ।
युधिष्ठिर ने कहा - शत्रुसूदन अर्जुन यह गन्धर्व युद्ध में हार गया और अपना यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रु को कौन मारता है? इसे जीवित छोड़ दो। अर्जुन बोले - गन्धर्व जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं।[2]
गन्धर्व ने कहा - अर्जुन मैं परास्त हो गया, अत: अपने पहले नाम अंगार पर्ण को छोड़ देता हूँ। अब मैं जनसमुदाय में अपने बल की श्र्लाघा नहीं करुंगा और न इस नाम से अपना परिचय ही दूंगा। (आज की पराजय से) मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने दिव्यास्त्रधारी अर्जुन को (मित्ररुप में) प्राप्त किया है और अब मैं इन्हें गन्धर्वों की माया से संयुक्त करना चाहता हूँ। इनके दिव्यास्त्र अग्नि से मेरा यह विचित्र एवं उत्तम रथ दग्ध हो गया है। पहले मैं विचित्र रथ के कारण ‘चित्ररथ’ कहलाता था; परंतु अब मेरा नाम ‘दग्धरथ’ हो गया। मैंने पूर्वकाल में यहाँ तपस्या द्वारा जो यह विद्या प्राप्त की है, उसे आज अपने प्राणदाता महात्मा मित्र को अर्पित करुंगा।। जिन्होंने अपने वेग से शत्रु की शक्ति को कुण्ठित करके उस पर विजय पायी और फिर जब वह शत्रु शरण में आ गया, तब जो उसे प्राणदान दे रहे हैं, वे किस कल्याण की प्राप्ति के अधिकारी नहीं है? यह चाक्षुसी नामक विद्या है, जिसे मनु ने सोम को दिया। सोम ने विश्वासु को दिया और विश्वासु ने मुझे प्रदान किया है। यह गुरु की दी हुई विद्या यदि किसी कायर को मिल गयी तो नष्ट हो जाती है। (इस प्रकार) मैंने इसके उपदेश की परम्परा का वर्णन किया है। अब इसका बल भी मुझसे सुन लीजिये। तीनों लोकों में जो कोई भी वस्तु हैं, उसमें से जिस वस्तु को आंख से देखने की इच्छा हो, उसे रथ इस विद्या के प्रभाव से कोई भी देख सकता है और जिस रुप में देखना चाहे, उसी रुप में देख सकता है। जो एक पैर से छ: महीने तक खड़ा रहकर तपस्या करे, वही इस विद्या को पा सकता है। परंतु आपको इस व्रत का पालन या तपस्या किये बिना ही मैं स्वयं उक्त विद्या की प्राप्ति कराऊंगा। राजन इस विद्या के बल से ही हम लोग मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जाते हैं और देवताओं के तुल्य प्रभाव दिखा सकते हैं। पुरुषशिरोमणि मैं आपको और आपके भाइयों को अलग-अलग गन्धर्व लोक के सौ-सौ घोड़े भेंट करता हूँ। वे घोड़े देवताओं और गन्धर्वों के वाहन हैं। उनके शरीर की क्रान्ति दिव्य है। वे मन के समान वेगशाली और आवश्यकता के अनुसार दुबले-मोटे होते हैं; किंतु उनका वेग कभी कम नहीं होता। पूर्वकाल में वृत्रासुर का संहार करने के निमित्त इन्द्र के लिये जिस व्रज का निर्माण किया गया था, वृत्रासुर के मस्तक पर पड़ते ही उसके दस बड़े और सौ टुकड़े हो गये। तब से अनेक भागों में बंटे हुए उस व्रज के प्रत्येक भाग की देवता लोग उपासना करते हैं। लोक में उत्कृष्ट धन और यश आदि जो कुछ भी वस्तु है, उसे वज्र का स्वरुप माना गया है। (अग्नि में आहुति देने के कारण) ब्राह्मण का दाहिना हाथ वज्र है। अप्रिय का रथ वज्र है। वैश्य लोग जो दान करते हैं, वह भी वज्र है और शुद्र लोग जो सेवाकार्य करते हैं, उसे भी वज्र ही समझना चाहिये। क्षत्रिय के रथरुपी वज्र का एक विशिष्ट अंग होने से घोड़ों को अवध्य बताया गया है। गन्धर्व देश की घोड़ी रथ को वहन करने वाले रथ-स्वरुप (वज्रस्वरुप) घोड़े को जन्म देती है। वे घोड़े सब अश्वों में शूरवीर माने जाते हैं।[3] गन्धर्व देश के घोड़ो की यह विशेषता है कि वे इच्छानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। सवार की इच्छा के अनुसार अपने वेग को घटा-बढ़ा सकते हैं। जब आवश्यकता या इच्छा हो, तभी वे उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे गन्धर्व-देशीय घोड़े आपकी इच्छा पूर्ण करते रहेंगे।
अर्जुन ने कहा - गन्धर्व यदि तुमने प्रसन्न होकर अथवा प्राणसंकट से बचाने के कारण मुझे विद्या, धन अथवा शास्त्र प्रदान किया है तो मैं इस तरह का दान लेना पसंद नहीं करता।
गन्धर्व बोला - महापुरुषों के साथ जो समागम होता है, वह प्रीति को बढ़ाने वाला होता है - ऐसा देखने में आता है। आपने मुझे जीवनदान दिया है, इससे प्रसन्न होकर मैं आपको चाक्षुषी विद्या भेंट करता हूँ। साथ ही आपसे भी मैं उत्तम आग्नेयास्त्र ग्रहण करुंगा। भरतकुल भूषण अर्जुन ऐसा करने से हम दोनों में दीर्घकाल तक समुचित सौहार्द बना रहेगा।
अर्जुन ने कहा - ठीक है, मैं यह अस्त्र विद्या देकर तुमसे घोड़े ले लूंगा। हम दोनों की मैत्री सदा बनी रहे। सखे गन्धर्वराज बताओं तो सही, तुम लोगों से हम मनुष्यों को क्यों भय प्राप्त होता है? गन्धर्व हम सब लोग वेदवेत्ता हैं और शत्रुओं का दमन करने की शक्ति रखते हैं; फिर भी रात में यात्रा करते समय जो तुमने हम लोगों पर आक्रमण किया है, इसका क्या कारण है ? इस पर भी प्रकाश डालो? गन्धर्व बोला - पाण्डुकुमारो आप लोग (विवाहित न होने के कारण) त्रिविध अग्रियों की सेवा नहीं करते। (अध्ययन पूरा करके समावर्तन संस्कार से सम्पन्न हो गये हैं, अत:) प्रतिदिन अग्नि को आहुति भी नहीं देते। आपके आगे कोई ब्राह्मण पुरोहित भी नहीं है। इन्हीं कारणों से मैंने आप पर आक्रमण किया है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अर्जुन इसीलिये मैंने आप लोगों के तेज और कुलोचित्त प्रभाव को जानते हुए भी आप पर आक्रमण करने का विचार किया। भरतश्रेष्ठ आप लोग महान तेजस्वी हैं। आपने अपने गुणों से जिस शोभाशाली श्रेष्ठ यश का विस्तार किया है, उसे तीनों लोकों में कौन नहीं जानता। बुद्धिमान यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, नाग और दानव कुरुकुल की यशोगाथा का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। वीर नारद आदि देवर्षियों के मुख से भी मैंने आपके बुद्धिमान पूर्वजों का गुणगान सुना है। तथा समुन्द्र से घिरी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरते हुए मैंने स्वयं भी आप के उत्तम कुल का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा है। अर्जुन तीनों लोकों में विख्यात यशस्वी भरद्वाजनन्दन द्रोण को भी, जो आपके वेद और धनुर्वेद के आचार्य रहे हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूँ। कुरुश्रेष्ठ धर्म, वायु, इन्द्र, दोनों अश्र्विनिकुमार तथा महाराज पाण्डु-ये छ: महापुरुष कुरुवंश की वृद्धि करने वाले हैं। पार्थ ये देवताओं तथा मनुष्यों के सिरमौर छहो व्यक्ति आप लोगों के पिता हैं। मैं इन सबको जानता हूँ। आप सब भाई देवस्वरुप, महात्मा, समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ शूरवीर हैं तथा आप लोगों ने ब्रह्मचर्य का भलीभाँति पालन किया है। आप लोगों का अन्त:करण शुद्ध है, मन और बुद्धि भी उत्तम है। पार्थ आपके विषय में यह सब कुछ जानते हुए भी मैंने यहाँ आक्रमण किया था। कुरुनन्दन इसका कारण यह है कि अपने बाहुबल का भरोसा रखने वाला कोई भी पुरुष जब स्त्री के समीप अपना तिरस्कार होता देखता है, तब उसे सहन नहीं कर पाता।[4]
कुन्तीनन्दन इसके सिवा एक बात यह भी है कि रात के समय हम लोगों का बल बहुत बढ़ जाता है। इसी से स्त्री के साथ रहने के कारण मुझमें क्रोध का आवेश हो गया था। तपती के कुल की वृद्धि करने वाले अर्जुन आपने जिस कारण युद्ध में मुझे पराजित किया है, उसे (भी) बतलाता हूं; सुनिये। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा धर्म है और वह तुममें निश्चितकाल रुप से विद्यमान है। कुन्तीनन्दन इसीलिये युद्ध में मैं तुमसे हार गया हूँ। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर यदि दूसरा कोई कामा सक्त क्षत्रिय रात में मुझसे युद्ध करने आता तो किसी प्रकार जीवित नहीं बच सकता था। किंतु कुन्तीकुमार कामासक्त होने पर भी यदि कोई पुरुष किसी ब्राह्मण को आगे करके चले तो वह समस्त निशाचरों पर विजय पा सकता है; क्योंकि उस दशा में उसका सारा भार पुरोहित पर होता है। अत: तपतीनन्दन मनुष्यों को इस लोक में जो भी कल्याणकारी कार्य करना अभीष्ट हो, उसमें वह मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले पुरोहितों को नियुक्त करे। जो छहों अंगोंसहित वेद के स्वाध्याय में तत्पर, र्इमानदार, सत्यवादी, धर्मात्मा ओर मन को वश में रखने वाले हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाओं के पुरोहित होने चाहिये। जिसके यहाँ धर्मज्ञ, वक्ता, शीलवान और ईमानदार ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजा को इस लोक में निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और मरने के बाद उसे स्वर्गलोक मिलता है। राजा को किसी अप्राप्त वस्तु या धन को प्राप्त करने अथवा उपलब्ध धन आदि की रक्षा करने के लिये गुणवान ब्राह्मण को पुरोहित बनाना चाहिये। जो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार चाहे या अपने लिये ऐश्वर्य पाना चाहे, उसे पुरोहित की आज्ञा के अधीन रहना चाहिये। कोई भी राजा कहीं भी पुरोहित की सहायता के बिना केवल अपने बल अथवा कुलीनता के भरोसे भूमि पर विजय नहीं पाता। अत: कौरवों के कुल की वृ्द्धि करने वाले अर्जुन आप यह जान लें कि जहाँ विद्वान ब्राह्मणों की प्रधानता हो, उसी राज्य की दीर्घकाल तक रक्षा की जा सकती है।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 19-37
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 38-53
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 54-68
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 69-80
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| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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