- महाभारत आदि पर्व के ‘वकवध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 157 के अनुसार ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
ब्राह्मणी का ब्राह्मण को समझाना
ब्राह्मणी बोली-प्राणनाथ! आपको साधारण मनुष्यों की भाँति कभी संताप नहीं करना चाहिये। आप विद्वान हैं, आपके लिये यह संताप का अवसर नहीं है। एक-न-एक दिन संसार में सभी मनुष्यों को अवश्य मरना पड़ेगा। अत: जो बात अवश्य होने वाली है, उसके लिये यहाँ शोक करने की आवश्यकता नहीं है। पत्नी,पुत्र और पुत्री-ये सब अपने लिये अभीष्ट होते हैं। आप उत्तम बुद्धि विवेक का आश्रय लेकर शोक-संताप छोड़िये। मैं स्वयं वहाँ (राक्षस के समीप) चली जाऊंगी। पत्नी के लिये लोक में सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्य है कि वह अपने प्राणों को भी निछावर करके पति की भलाई करे। पति के हित के लिये किया हुआ मेरा वह प्राणोत्सर्गरुप कर्म आपके लिये तो सुखकारक होगा ही, मेरे लिये भी परलोक में अक्षय सुख का साधक और इस लोक में यश की प्राप्ति करानेवाला होगा। यह सबसे बड़ा धर्म है, जो मैं आपसे बता रही हूँ। इसमें आपके लिये अधिक से अधिक स्वार्थ और धर्म का लाभ दिखायी देता है। जिस उद्देश्य से पत्नी की अभिलाषा की जाती हैं, आपने वह उद्देश्य मुझसे सिद्ध कर लिया है। एक पुत्री और एक पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार आपने मुझे भी उऋण कर दिया है। इन दोनों संतानों का पालन-पोषण और संरक्षण करने में आप समर्थ हैं। आपकी तरह मैं इन दोनों के पालन-पोषण तथा रक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकूंगी। मेरे सर्वस्व स्वामी प्राणेश्वर! आपके न रहने पर मेरे इन दोनों बच्चों की क्या दशा होगी ? मैं किस तरह इन बालकों का भरण-पोषण करुंगी ? मेरा पुत्र अभी बालक है, आपके बिना मैं अनाथ विधवा सन्मार्ग पर स्थित रहकर इन दोनों बच्चों को कैसे जिलाऊंगी। जो आपके यहाँ सम्बन्ध करने के सर्वथा अयोग्य हैं, ऐसे अहंकारी और घमंडी लोग जब मुझसे इस कन्या को मांगेंगे, तब मैं उनसे इसकी रक्षा कैसे कर सकूंगी। जैसे पृथ्वी पर डाले हुए मांस के टुकड़े को लेने के लिये झपटते हैं, उसी प्रकार सब लोग विधवा स्त्री को वश में करना चाहते हैं। द्विजश्रेष्ठ! दुराचारी मनुष्य जब बार-बार मुझसे याचना करते हुए मुझे मर्यादा से विचलित करने की चेष्टा करेंगे, उस समय मैं श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा अभिलषित मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकूंगी। आपके कुल की इस एकमात्र निपराध बालिका को मैं बाप-दादों के द्वारा पालित धर्म मार्ग पर लगाये रखने में कैसे समर्थ होऊंगी। आप धर्म के ज्ञाता हैं, आप जैसे अपने बालक को सद्रुणी बना सकते हैं, उस प्रकार मैं आपके न रहने पर सब ओर से आश्रयहीन हुए इस अनाथ बालक में वाञ्छनीय उत्तम गुणों का आधान कैसे कर सकूंगी। जैसे अनधिकारी शुद्र वेद की श्रुति को प्राप्त करना चाहता हो, उसी प्रकार अयोग्य पुरुष मेरी अवहेलना करके आपकी इस अनाथ बालिका को भी ग्रहण करना चाहेंगे। आपके ही उत्तम गुणों से सम्पन्न अपनी इस पुत्री को यदि मैं उन अयोग्य पुरुषों के हाथ में न देना चाहूंगी तो वे बलपूर्वक इसे उसी प्रकार ले जायंगें, जैसे कौए यज्ञ से हविष्य का भाग लेकर उड़ जायं।[1]
ब्राह्मणी का ब्राह्मण से अनुरोध करना
ब्रह्मन्! आपके इस पुत्र को आपके अनुरुप न देखकर और आपकी इस पुत्री को भी अयोग्य पुरुष के वश में पड़ी देखकर तथा लोक में घमंडी मनुष्यों द्वारा अपमानित हो अपने को पूर्ववत् सम्मानित अवस्था में न पाकर मैं प्राण त्याग दूंगी, इसमें संशय नहीं है। जैसे पानी सूख जाने पर वहाँ की मछलियां नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार मुझसे और आप से रहित होकर अपने ये दोनों बच्चे निस्संदेह नष्ट हो जायंगे। नाथ! इस प्रकार आपके बिना मैं और वे दोनों बच्चे-तीनों ही सर्वथा विनष्ट हो जायंगे-इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिये आप केवल मुझे त्याग दीजिये। ब्रह्मन्! पुत्रवती स्त्रियां यदि अपने पति से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जायं तो यह उनके लिये परम सौभाग्य की बात है। धर्मज्ञ विद्वान ऐसा ही मानते हैं। पिता,माता और पुत्र ये सब परिमित मात्रा में ही सुख देते हैं, अपरिमित सुख को देने वाला तो केवल पति है। ऐसे पति का कौन स्त्री आदर नहीं करेगी ? आर्यपुत्र! आपके लिये मैंने यह पुत्र और पुत्री भी छोड़ दी, समस्त बन्धु-बान्धवों को भी छोड़ दिया और अब अपना यह जीवन को भी त्याग देने को उद्यत हूँ। स्त्री यदि सदा अपने स्वामी के प्रिय और हित में लगी रहे तो यह उसके लिये बड़े-बड़े यज्ञों, तपस्याओं, नियमों और नाना प्रकार के दानों से भी बढ़कर है। अत: मैं जो यह कार्य करना चाहती हूं, यह श्रेष्ठ पुरुषों से सम्मत धर्म हैं और आपके तथा इस कुल के लिये सर्वथा अनुकूल एवं हितकारक है। अनुकूल संतान, धन, प्रिय सुहृदय तथा पत्नी-ये सभी आपद्धर्म से छूटने के लिये ही वाञ्छनीय हैं; ऐसा साधु पुरुषों का मत है। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा स्त्री की रक्षा करे और स्त्री तथा धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे। पत्नी, पुत्र और धन और घर-ये सब वस्तुएं द्दष्ठ और अद्दष्ट फल (लौकिक और पारलौकिक) के लिये संग्रहणीय हैं। विद्वानों का यह निश्चय है। एक और सम्पूर्ण कुल हो और दूसरी ओर उस कुल की वृद्धि करने वाला शरीर हो तो उन दोनों की तुलना करने पर वह सारा कुल उस शरीर के बराबर नहीं हो सकता; यह विद्वानों का निश्चय है। आर्य! अत: आप मेरे द्वारा अभीष्ट कार्य की सिद्धि कीजिये और स्वयं प्रयत्न करके अपने को इस संकट से बचाइये। मुझे राक्षस के पास जाने की आज्ञा दीजिये और मेरे दोनों बच्चों का पालन कीजिये। धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म-निर्णय के प्रसंग में नारी को अवध्य बताया है। राक्षसों को भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं। इसीलिये सम्भव है, वह राक्षस भी मुझे स्त्री, समझकर न मारे। पुरुष वहाँ जायं, तो वह राक्षस उनका वध कर ही डालेगा इसमें संशय नहीं हैं; परंतु स्त्रियों के वध में संदेह है। (यदि राक्षस ने धर्म का विचार किया तो मेरे बच जाने की आशा है) अत: धर्मज्ञ आर्यपुत्र! आप मुझे ही वहाँ भेजें।[2]
मैंने सब प्रकार के भोग भोग लिये, मन का प्रिय लगने-वाली वस्तुएं प्राप्त कर ली, महान् धर्म का अनुष्ठान भी पूरा कर लिया और आपसे प्यारी संतान भी प्राप्त कर ली। अब यदि मेरी मृत्यु भी हो जाय तो उससे मुझे दु:ख न होगा।। मुझसे पुत्र उत्पन्न हो गया, मैं बूढ़ी भी हो चली और सदा आपका प्रिय करने की इच्छा रखती आयी हूँ। इन सब बातों पर विचार करके ही अब मैं मरने का निश्चय कर रही हूँ। आर्य! मुझे त्याग करके आप दूसरी स्त्री भी प्राप्त कर सकते हैं। उससे आपका गृहस्थ-धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो जायगा।। कल्याणस्वरुप हृदयेश्वर! बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करने वाले पुरुषों को भी पाप नहीं लगता। परंतु स्त्रियों को अपने पूर्वपति का उल्लघंन करने पर बड़ा भारी पाप लगता है। इन सब बातों को विचार करके और अपने देह के त्याग को निन्दित कर्म मानकर आप अब शीघ्र ही अपने को, अपने कुल को और इन दोनों बच्चों को भी संकट से बचा लीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं-भारत! ब्राह्मणी के यों कहने पर उसके पति ब्राह्मणदेवता अत्यन्त दुखी हो उसे हृदय से लगाकर उसके साथ ही धीरे-धीरे आंसू बहाने लगे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 157 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 157 श्लोक 18-32
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 157 श्लोक 33-38
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| नागलोक से भीम का आगमन
| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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