दुर्योधन का भीम को विष खिलाना

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 127 के अनुसार दुर्योधन का भीम को विष खिलाने की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

दुर्योधन द्वारा भीम को मारने की योजना बनाना

धृतराष्ट्र का प्रतापी पुत्र दुर्योधन यह जानकर कि भीमसेन में अत्‍यन्‍त विख्‍यात बल है, उनके प्रति दुष्टभाव प्रदर्शित करने लगा। वह सदा धर्म से दूर रहता और पाप कर्मों पर ही दृष्टि रखता था। मोह और ऐश्वर्य के लोभ से उसके मन में पापपूर्ण विचार भर गये थे। वह अपने भाइयों के साथ विचार करने लगा कि ‘यह मध्‍यम पाण्‍डु पुत्र कुन्‍ती नन्‍दन भीम बलवानों में सबसे बढ़कर है। इसे धोखा देकर कैद कर लेना चाहिये। ‘यह बलवान् और पराक्रमी तो है ही, महान् शौर्य से भी सम्‍पन्न है। भीमसेन अकेला ही हम सब लोगों से होड़ बद लेता है। ‘इसलिये नगरोद्यान में जब वह सो जाय, तब उसे उठाकर हम लोग गंगाजी में भी फेंक दें। इसके बाद उसके छोटे भाई अर्जुन और बड़े भाई युधिष्ठिर को बलपूर्वक कैद में डालकर मैं अकेला ही सारी पृथ्‍वी का शासन करूंगा।’[1]

दुर्योधन द्वारा गंगातट पर गृह बनवाना

ऐसा निश्चय करके पापी दुर्योधन ने गंगातट पर जल-विहार के लिये ऊनी और सूती कपड़ों के विचित्र एवं विशाल गृह तैयार कराये। वे गृह सब प्रकार की अभीष्ट सामग्रियों से भरे-पूरे थे। उनके ऊपर ऊंची-ऊंची पताकाऐं फहरा रही थीं। उनमें उसने अलग-अलग अनेक प्रकार के बहुत-से कमरे बनवाये थे। भारत! गंगा तटवर्ती प्रमाण कोटि तीर्थ में किसी स्‍थान पर जाकर दुर्योधन ने यह सारा आयोजन करवाया था। उसने उस स्‍थान का नाम रक्‍खा था उदकक्रीडन। वहाँ रसोई के काम में कुशल कितने ही मनुष्‍यों ने जुटकर खाने-पीने के बहुत-से [2]भक्ष्‍य, भोज्‍य, पेय, चोष्‍य और लेह्य पदार्थ तैयार किये। तदनन्‍तर राजपुरुषों ने दुर्योधन को सूचना दी कि ‘सब तैयारी पूरी हो गयी है।’[1]

दुर्योधन का युधिष्ठिर से गंगा तट पर विहार का आग्रह

तब खोटी बुद्धिवाले दुर्योधन ने पाण्‍डवों से कहा-। ‘आज हम लोग भाँति-भाँति के उद्यान और वनों से सुशोभित गंगाजी के तट पर चलें। वहाँ हम सब भाई एक साथ जल विहार करेंगे’। यह सुनकर युधिष्ठिर ने ‘एवमस्‍तु’ कहकर दुर्योधन की बात मान ली। फिर वे सभी शूरवीर कौरव पाण्‍डवों के साथ नगराकार रथों तथा स्‍वदेश में उत्‍पन्न श्रेष्ठ हाथियों पर सवार हो नगर से निकले और उद्यान-वन के समीप पहुँचकर साथ आये हुए प्रजावर्ग के बड़े-बड़े लोगों को विदा करके जैसे सिंह पर्वत की गुफा में प्रवेश करे, उसी प्रकार वे सब वीर भ्राता उद्यान की शोभा देखते हुए, उसमें प्रविष्ट हुए।[1]

पाण्डवों और कौरवों का गंगातट पर बने गृह में प्रवेश

वह उद्यान राजाओं की गोष्ठी और बैठक के स्‍थानों से, श्‍वेत वर्ण के छज्जों से, जालियों और झरोखों से तथा इधर-उधर ले जाने योग्‍य जलवर्षक यन्‍त्रों से सुशोभित हो रहा था। महल बनाने वाले शिल्पियों ने उस उद्यान एवं क्रीडाभवन को झाड़-पोंछकर साफ कर दिया था। चित्रकारों ने वहाँ चित्रकारी की थी। जल से भरी बाबलियों तथा तालाबों द्वारा उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। खिले हुए कमलों से आच्‍छादित वहाँ का जल बड़ा सुन्‍दर प्रतीत होता था। ॠतु के अनुकूल खिलकर झड़े हएु फूलों से वहाँ की सारी पृथ्‍वी ढंक गयी थी। वहाँ पहुँचकर समस्‍त कौरव और पाण्‍डव यथायोग्‍य स्‍थानों पर बैठ गये और स्‍वत: प्राप्त हुए नाना प्रकार के भोगों का उपभोग करने लगे।[3]

दुर्योधन का भीम के भोजन में विष डालना

तदनन्‍तर उस सुन्‍दर उद्यान में क्रीडा के लिये आये हुए कौरव और पाण्‍डव एक-दूसरे के मुंह से खाने की वस्‍तुऐं डालने लगे। उस समय पापी दुर्योधन ने भीमसेन को मार डालने की इच्‍छा से उनके भोजन में कालकूट नामक विष डलवा दिया। उस पापात्‍मा का हृदय छूरे के समान तीखा था; परंतु बातें वह ऐसी करता था, मानो उनसे अमृत झरता रहा हो। वह सगे भाई और हितैषी सुहृद् की भाँति स्‍वयं भीमसेन के लिये भाँति-भाँति के भक्ष्‍य पदार्थ परोसने लगा। भीमसेन भोजन के दोष से अपरिचित थे; अत: दुर्योधन ने जितना परोसा, वह सब-का-सब खा गये। यह देख नीच दुर्योधन मन-ही-मन हंसता हुआ-सा अपने-आप को कृतार्थ मानने लगा।[3]
  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 127 श्लोक 20-39
  2. 1.दाँतों से काट-काटकर खाये जाने वाले मालपूए आदि को भक्ष्य कहते है। 2. दाँत का सहारा न लेकर केवल जिह्वा के व्यापार से जिसे भोजन किया जाता है, जैसे हलुआ, खीर आदि। 3. पीने योग्य दुग्ध आदि 4. चूसने योग्य वस्तु जिसका रसमात्र ग्रहण किया जाय और बाकी चीज को त्याग दिया जाय, वह चोण्य है, जैसे ईख-आम आदि। 5. लेह्य - चाटने योग्य चटनी आदि।
  3. 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 127 श्लोक 40-58

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