द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म

महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 165 के अनुसार द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म का वर्णन इस प्रकार है[1]-

आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है - राजा द्रुपद अमर्ष में भर गये थे, अत: उन्‍होंने कर्मसिद्ध श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को ढूढ़ने के लिये बहुत-से ब्रह्मर्षियों के आश्रमों में भ्रमण किया। वे अपने लिये एक श्रेष्‍ठ पुत्र चाहते थे। उनका चित्त शोक से व्‍याकुल रहता था। वे रात-दिन चिन्‍ता में पड़े रहते थे कि मेरे कोई श्रेष्‍ठ संतान नहीं है। जो पुत्र या भाई-बन्‍धु उत्‍पन्‍न हो चुके थे, उन्‍हें वे खेदवश धिक्‍कारते रहते थे। द्रोण से बदला लेने की इच्‍छा रखकर राजा द्रुपद सदा लंबी सांसें खींचा करते थे। जनमेजय नृपश्रेष्‍ठ द्रुपद द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिये यत्‍न करने पर भी उनके प्रभाव, विनय, शिक्षा एवं चरित्र का चिन्‍तन करके क्षात्रबल के द्वारा उन्‍हें परास्‍त करने का कोई उपाय न जान सके। वे कृष्‍णवर्णा यमुना तथा गंगा दोनों के तटों पर घूमते हुए ब्राह्मणों की एक पवित्र बस्‍ती में जा पहुँचे। वहाँ उन महाभाग नरेश ने एक भी ऐसा ब्राह्मण नहीं देखा, जिसने विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करके वेद-वेदांग की शिक्षा प्राप्‍त न की हो।

इस प्रकार उन महाभाग ने वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले दो ब्रह्मर्षियों को देखा, जिनके नाम ये याज और उपयाज। वे दोनों ही परम शान्‍त और परमेष्‍ठी ब्रह्मा के तुल्‍य प्रभावशाली थे। वे वैदिक संहिता के अध्‍ययन में सदा संलग्‍न रहते थे। उनका गोत्र काश्‍यप था। वे दोनों ब्राह्मण सूर्यदेव के भक्‍त, बड़े ही योग्‍य तथा श्रेष्‍ठ ऋषि थे। उन दोनों की शक्ति को समझकर आलस्‍य रहित राजा द्रुपद ने उन्‍हें सम्‍पूर्ण मनोवांछित भोग पदार्थ अर्पण करने का संकल्‍प लेकर निमन्त्रित किया। उन दोनों में से जो छोटे उपयाज थे, वे अत्‍यन्‍त उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले थे। द्रुपद एकान्‍त में उनसे मिले और इच्‍छानुसार भोग्‍य वस्‍तुएं अर्पण करके उन्‍हें अपने अनुकूल बनाने की चेष्‍टा करने लगे। सम्‍पूर्ण मनोभिलषित पदार्थों को देने की प्रतिज्ञा करके प्रिय वचन बोलते हुए द्रुपद मुनि के चरणों की सेवा में लग गये और यथायोग्‍य पूजन करके उपयाज से बोले- ‘विप्रवर उपयाज जिस कर्म से मुझे ऐसा पुत्र प्राप्‍त हो, जो द्रोणाचार्य को मार सके। उस कर्म के पूरा होने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गायें दूंगा। द्विजश्रेष्‍ठ इसके सिवा और भी जो आपके मन को अत्‍यन्‍त प्रिय लगने वाली वस्‍तु होगी, वह सब आपको अर्पित करुंगा, इसमें कोई संशय नहीं है।’ द्रुपद के यों कहने पर ऋषि उपयाज ने उन्‍हें जवाब दे दिया, ‘मैं ऐसा कार्य नही करुंगा। ‘परंतु द्रुपद उन्‍हें प्रसन्‍न करने का निश्‍चय करके पुन: उनकी सेवा में लगे रहे। तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर द्विजश्रेष्‍ठ उपयाज ने उपयुक्‍त अवसर पर मधुर वाणी में द्रुपद से कहा - ‘राजन मेरे बड़े भाई याज एक समय घने वन में विचर रहे थे। उन्‍होंने एक ऐसी जमीन पर गिरे हुए फल को उठा लिया, जिसकी शुद्धि के सम्‍बन्‍ध में कुछ भी पता नहीं था। ‘मैं भी भाई के पीछे-पीछे जा रहा था; अत: मैंने उनके इस अयोग्‍य कार्य को देख लिया और सोचा कि ये अपवित्र वस्‍तु को ग्रहण करने में कभी कोई विचार नहीं करते।[1] ‘जिन्‍होंने देखकर भी फल के पाप जनक दोषों की ओर दृष्टिपात नहीं किया, जो किसी वस्‍तु को लेने में शुद्धि-अशुद्धि का विचार नहीं करते, वे दूसरे कार्यों में भी कैसा बर्ताव करेंगे, कहा नहीं जा सकता। ‘गुरुकुल में रहकर संहिताभाग का अध्‍ययन करते हुए भी जो दूसरों की त्‍यागी हुई भिक्षा को जब-तब खा लिया करते थे ओर घृणाशून्‍य होकर बार-बार उस अन्‍न के गुणों का वर्णन करते रहते थे, उन अपने भाई को जब मैं तर्क की दृष्टि से देखता हूं, तो वे मुझे फल के लोभी जान पड़ते हैं। ‘राजन तुम उन्‍हीं के पास जाओ। वे तुम्‍हारा यज्ञ करा देंगे। ‘राजा द्रुपद उपयाज की बात सुनकर याज के इस चरित्र की मन-ही-मन निन्‍दा करने लगे, तो भी अपने कार्य का विचार करके याज के आश्रम पर गये और पूज्‍यनीय याज मुनि का पूजन करके तब उनसे इस प्रकार बोले- ‘भगवन मैं आपको अस्‍सी हजार गौएं भेंट करता हूँ। आप मेरा यज्ञ करा दीजिये। मैं द्रोण के वैर से संतप्‍त हो रहा हूँ। आप मुझे प्रसन्‍नता प्रदान करें’। ‘द्रोणाचार्य ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्‍ठ और ब्रह्मास्‍त्र के प्रयोग में भी सर्वोत्‍तम हैं; इसलिये मित्र मानने-न-मानने के प्रश्‍न को लेकर होने वाले झगड़े में उन्‍होंने मुझे पराजित कर दिया है। ‘परम बुद्धिमान भरद्वाजनन्‍दन द्रोण इन दिनों कुरुवंशी राजकुमारों के प्रधान आचार्य हैं। इस पृथ्‍वी पर कोई भी ऐसा क्षत्रिय नहीं है, जो अस्‍त्रविद्या में उनसे आगे बढ़ा हो। ‘द्रोणाचार्य के बाणसमूह प्राणियों के शरीर का संहार करने वाले हैं। उनका छ: हाथ का लंबा धनुष बहुत बड़ा दिखायी देता है। इसमें संदेह नहीं कि महान धनुर्धर महामना द्रोण ब्राह्मण-वेश में (अपने ब्राह्मतेज के द्वारा) क्षत्रिय तेज को प्रतिहत कर देते हैं। ‘मानो जमदग्रिनन्‍दन परशुराम जी की भाँति क्षत्रियों का संहार करने के लिये उनकी सृष्टि हुई है। उनका अस्‍त्र बल बड़ा भंयकर है। पृथ्‍वी के सब मनुष्‍य मिलकर भी उसे दबा नहीं सकते। ‘घी की आहुति से प्रज्‍वलित हुई अग्नि के समान वे प्रचण्‍ड ब्राह्मतेज धारण करते हैं और युद्ध में क्षात्रधर्म को आगे रखकर विपक्षियों से भिड़त होने पर वे उन्‍हें भस्‍म कर डालते हैं। ‘यद्यपि द्रोणाचार्य में ब्राह्मतेज के साथ-साथ क्षात्रतेज भी विद्यमान है, तथापि आपका ब्राह्मतेज उनसे बढ़कर है। मैं केवल क्षात्रबल के कारण द्रोणाचार्य से हीन हूं; अत: मैंने आपके ब्राह्मतेज की शरण ली है। ‘आप वेदवेत्ताओं में सबसे श्रेष्‍ठ होने के कारण द्रोणाचार्य से बहुत बढ़े-चढ़े हैं। मैं आपकी शरण लेकर एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूं, जो युद्ध में दुर्जय और द्रोणाचार्य का विनाशक हो। ‘याज जी मेरे इस मनोरथ को पूर्ण करने वाला यज्ञ कराइये। उसके लिये मैं आपको एक अर्बुद गौएं दक्षिणा में दूंगा। ‘तब याजने ‘तथास्‍तु’ कहकर यजमान की अभीष्‍ट सिद्धि के लिये आवश्‍यक यज्ञ और उसके साधनों का स्‍मरण किया। ‘यह बहुत बड़ा कार्य है’ ऐसा विचार करके याज ने इस कार्य के लिये किसी प्रकार की कामना न रखने वाले उपयाज को भी प्रेरित किया तथा याज ने द्रोण के विनाश के लिये वैसा पुत्र उत्‍पन्‍न करने की प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद महातपस्‍वी उपयाज ने राजा द्रुपद को अभीष्‍ट पुत्र रुपी फल की सिद्धि के लिये आवश्‍यक यज्ञकर्म का उपदेश किया।[2] और कहा - ‘राजन इस यज्ञ से तुम जैसा पुत्र चाहते हो, वैसा ही तुम्‍हें होगा। तुम्‍हारा वह पुत्र महान पराक्रमी, महातेजस्‍वी और महाबली होगा।’ तदनन्‍तर द्रोण के घातक पुत्र का संकल्‍प लेकर राजा द्रुपद ने कर्म की सिद्धि के लिये उपयाज के कथनानुसार सारी व्‍यवस्‍था की। हवन के अन्‍त में याज ने द्रुपद की रानी को आज्ञा दी - ‘पृषत की पुत्रवधु महारानी शीघ्र मेरे पास हविष्‍य ग्रहण करने के लिये आओ। तुम्‍हें एक पुत्र और एक कन्‍या की प्राप्ति होने वाली है, वे कुमार और कुमारी अपने पिता के कुल की वृद्धि करने वाले होंगे।’ रानी बोली - ब्रह्मन अभी मेरे मुख में ताम्‍बूल आदि का रंग लगा है। मैं अपने अंगों में दिव्‍य सुगन्धित अंगराग धारण कर रही हूं, अत: मुंह धोये और स्‍नान किये बिना पुत्र दायक हविष्‍य का स्‍पर्श करने के योग्‍य नहीं हूं, इसलिये याज जी मेरे इस प्रिय कार्य के लिये थोड़ी देर ठहर जाइये।

याजने कहा - इस हविष्‍य को स्‍वयं याजने पकाकर तैयार किया है और उपयाज ने इसे अभिमन्त्रित किया है; अत: तुम आओ या वहीं खड़ी रहो, यह हविष्‍य यजमान की कामना को पूर्ण कैसे नहीं करेगा? ब्राह्मण कहता हैं - यों कहकर याज ने उस संस्‍कार युक्‍त हविष्‍य की आहुति ज्‍यों ही अग्नि में डाली, त्‍यों ही उस अग्नि से देवता के समान तेजस्‍वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्‍वाला के समान उद्रासित हो रही थी। उसका रुप भय उत्‍पन्‍न करने वाला था। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसने अंगों में उत्‍तम कवच धारण कर रखा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था। वह कुमार उसी समय एक श्रेष्‍ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो उसके द्वारा युद्ध के लिये यात्रा कर रहा हो। यह देखकर पाञ्चालों को बड़ा हर्ष हुआ और वे जोर-जोर से बोल उठे, ‘बहुत-अच्‍छा’, ‘बहुत अच्‍छा।’ उस समय हर्षोल्‍लास से भरे हुए इन पाञ्चालों का भार यह पृथ्‍वी नहीं सह सकी। आकाश में कोई अदृश्‍य महाभूत इस प्रकार कहने लगा - ‘यह राजकुमार पाञ्चालों के भय को दूर करके उनके यश की वृद्धि करने वाला होगा। यह राजा द्रुपद का शोक-दूर करने वाला है। द्रोणाचार्य के वध के लिये ही इसका जन्‍म हुआ है।’ तत्‍पश्‍चात यज्ञ की वेदी में से एक कुमारी कन्‍या भी प्रकट हुई, जो पाञ्चाली कहलायी। वह बड़ी सुन्‍दरी एवं सौभाग्‍य शालिनी थी। उसका एक-एक अंग देखने ही योग्‍य था। उसकी श्‍याम आंखें बड़ी-बड़ी थीं। उसके शरीर की कान्ति श्‍याम थी। नेत्र ऐसे जान पड़ते मानो खिले हुए कमल के दल हों। केश काले-काले और घुंघराले थे। नख उभरे हुए और लाल रंग के थे। भौंहें बड़ी सुन्‍दर थीं। दोनों उरोज स्‍थूल और मनोहर थे। वह ऐसी जान पड़ती मानो साक्षात देवी दुर्गा ही मानव शरीर धारण करके प्रकट हुई हों। उसके अंगों से नील कमल की सी सुगन्‍ध प्रकट होकर एक कोस तक चारों ओर फैल रही थी। उसने परम सुन्‍दर रुप धारण कर रखा था। उस समय पृथ्‍वी पर उसके-जैसी सुन्‍दर स्‍त्री दूसरी नहीं थी। देवता, दानव और यक्ष भी उस देवोपम कन्‍या को पाने के लिये लालायति थे।[3]

सुन्‍दर कटिप्रदेश वाली उस कन्‍या के प्रकट होने पर भी आकाशवाणी हुई - ‘इस कन्‍या का नाम कृष्‍णा है। यह समस्‍त युवतियों में श्रेष्‍ठ और सुन्‍दरी है और क्षत्रियों का संहार करने के लिये प्रकट हुई है। ‘यह सुमध्‍यमा समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवों को बहुत बड़ा भय प्राप्‍त होगा।’ वह आकाशवाणी सुनकर समस्‍त पाञ्चाल सिंहों के समुदाय की भाँति गर्जना करने लगे। उस समय हर्ष में भरे हुए उन पाञ्चालों का वेग पृथ्‍वी नहीं सह सकी। उन दोनों पुत्र और पुत्री को देखकर पुत्र की इच्‍छा रखने वाली राजा पृषवत की पुत्र वधु महर्षि याज की शरण में गयी और बोली - ‘भगवन आप ऐसी कृपा करें, जिससे ये दोनों बच्‍चे मेरे सिवा और किसी को अपनी माता न समझें।’ तब राजा का प्रिय करने की इच्‍छा से याज ने कहा - ‘ऐसा ही होगा। ‘उस समय सम्‍पूर्ण द्विजों ने सफल-मनोरथ होकर उन बालकों के नामकरण किये। यह द्रुपदकुमार धृष्‍ट, अमर्षशील तथा द्युम्‍न (तेजोमय कवच-कुण्‍डल एवं क्षात्रतेज) आदि के साथ उत्‍पन्‍न होने के कारण ‘धृष्‍टद्युम्‍न‘ नाम से प्रसि‍द्ध होगा। तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने कुमारी का नाम कृष्‍णा रखा; क्‍योंकि वह शरीर में कृष्‍ण (श्‍याम) वर्ण की थी। इस प्रकार द्रुपद के महान यज्ञ में वे जुड़वीं संतानें उत्‍पन्‍न हुई। परम बुद्धिमा प्रतापी भरद्वाजनन्‍दन द्रोण यह सोचकर कि प्रारब्‍ध के भावी विधान को टालना असम्‍भव है, पाञ्चालराज कुमार धृष्‍टद्युम्‍न को अपने घर ले आये और उन्‍होंने उसे अस्‍त्रविद्या देकर उनका बड़ा उपकार किया। द्रोणाचार्य ने अपनी कीर्ति की रक्षा के लिये वह उदारतापूर्ण कार्य किया।

आगन्‍तुक ब्राह्मण कहते है - लाक्षागृह में पाण्‍डवों के साथ जो घटना घटित हुई थी, उसे सुनकर ब्राह्मणों तथा पुरोहितों ने पाञ्चालराज द्रुपद से इस प्रकार कहा- ‘राजन धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने अपने मन्त्रियों के साथ परस्‍पर सलाह करके पाण्‍डवों के विनाश का विचार कर लिया था। ऐसा क्रूरतापूर्ण विचार दूसरों के लिए अत्‍यन्‍त कठिन है। दुर्योधन के भेजे हुए उसके पुरोचन नामक सेवक ने वारणावत नगर में जाकर एक विशाल लाक्षागृह निर्माण कराया था। उस भवन में पाण्‍डव अपनी माता कुन्‍ती के साथ पूर्ण विश्‍वस्‍त होकर रहते थे। महाराज एक दिन आधी रात के समय पुरोचन ने लाक्षागृह में आग लगा दी। वह नीच और नृशंस पुरोचन स्‍वयं भी उसी आग में जलकर भस्‍म हो गया। यह समाचार सुनकर कि ‘पाण्‍डव जल गये’ अम्बिका-नन्‍दन धृतराष्‍ट्र को अपने भाई-बन्‍धुओं के साथ बड़ा हर्ष हुआ। धृतराष्‍ट्र की आत्‍मा हर्ष से खिल उठी थी, तो भी ऊपर से कुछ शोक का प्रदर्शन करते हुए उन्‍होंने विदुर जी से बड़ी करुण भाषा में यह वृत्तान्‍त बताया और आज्ञा दी कि ‘महामते पाण्‍डवों का श्राद्ध और तर्पण करो। विदुर पाण्‍डवों के मरने से मुझे ऐसा दु:ख हुआ है मानो मेरे भाई पाण्‍डु आज ही स्‍वर्गवासी हुए हों। अत: गंगा जी के तट पर चलकर उनके लिये श्राद्ध और तर्पण की व्‍यवस्‍था करो। अहो भाग्‍यवश ही बेचारे पाण्‍डव यमलोक को चले गये।’ यों कहकर धृतराष्‍ट्र और शकुनि फूट-फूटकर रोने लगे। भीष्‍म जी ने यह समाचार सुनकर उनका विधि‍पूर्वक और्ध्‍वदैहिक संस्‍कार सम्‍पन्‍न किया है। इस प्रकार दुरात्‍मा दुर्योधन ने पाण्‍डवों के विनाश के लिये यह भयंकर षडयन्‍त्र किया था। आज से पहले हमने किसी को ऐसा नहीं देखा या सुना था जो इस तरह का जघन्‍य कार्य कर सके। महाराज पाण्‍डवों के सम्‍बन्‍ध में यह वृत्तान्‍त हमारे सुनने में आया है।’ ब्राह्मण और पुरोहित का यह वचन सुनकर परम बुद्धिमान राजा द्रुपद शोक में डूब गये। जैसे अपने सगे पुत्र की मृत्‍यु होने पर उसके पिता को शोक होता है उसी प्रकार पाण्‍डवों के नष्‍ट होने का समाचार सुनकर पाञ्चालराज को पीड़ा हुई। उन्‍होंने अपने भाई-बन्‍धुवों के साथ समस्‍त प्रजा को बुलवाया और बड़ी करुणा से यह बात कही।।[4]

द्रुपद बोले - बन्‍धुओ अर्जुन का रुप अद्भुत था। उनका धैर्य आश्‍चर्य जनक था। उनका पराक्रम और उनकी अस्‍त्र-दीक्षा भी अलौकिक थी। मैं दिन-रात अर्जुन की ही चिन्‍ता में डूबा रहता हूँ। हाय वे अपने भाईयों और माता के साथ आग में जल गये। संसार में इससे बढ़कर आश्‍चर्य की बात और क्‍या हो सकती है? सच है, काल का उल्‍लघन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। मेरी तो प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। अब मैं लोगों से क्‍या कहूंगा। आन्‍तरिक दु:ख से दिन-रात दग्‍ध होता रहता हूँ। मैंने निष्‍पाप याज और उपयाज का सत्‍कार करके उनसे दो संतानों की याचना की थी। एक तो ऐसा पुत्र मांगा, जो द्रोणाचार्य का वध कर सके और दूसरी ऐसी कन्‍या के लिये प्रार्थना की, जो वीर अर्जुन की पटरानी बन सके। मेरे इस उद्देश्‍य को सब लोग जानते हैं और महर्षि याज ने भी यही घोषित किया था। उन्‍होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करके धृष्‍टद्युम्‍न और कृष्‍णा को उत्‍पन्‍न किया था। इन दोनों संतानों को पाकर मुझे बड़ा संतोष हुआ। अब क्‍या करुं? कुन्‍ती सहित पाण्‍डव तो नष्‍ट हो गये।। आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है -ऐसा कहकर पाञ्चालराज द्रुपद अत्‍यन्‍त दुखी एवं शोकातुर हो गये। पाञ्चालराज के गुरु बड़े सात्त्विक और विशिष्‍ट विद्वान थे। उन्‍होंने राजा को भारी शोक में डूबा देखकर कहा। गुरु बोले - महाराज पाण्‍डव लोग बड़े-बूढ़ों के आज्ञा पालन में तत्‍पर रहने वाले तथा धर्मात्‍मा हैं। ऐसे लोग न तो नष्‍ट होते हैं और न पराजित ही होते हैं। नरेश्‍वर मैंने जिस सत्‍य का साक्षात्‍कार किया है, वह सुनिये। ब्राह्मणों ने तो इस सत्‍य का प्रतिपादन किया ही है, वेद के मन्‍त्रों में भी मैंने इसका श्रवण किया है। पूर्वकाल में इन्‍द्राणी ने बृहस्‍पति जी के मुख से उपश्रुति की महिमा सुनी थी। उत्तरायण की अधिष्‍ठात्री देवी उपश्रुति ने ही अद्दष्‍ट हुए इन्‍द्र का कमलनाल की ग्रन्थि में दर्शन कराया था।

महाराज इसी प्रकार मैंने भी पाण्‍डवों के विषय में उपश्रुति सुन रखी है। वे पाण्‍डव कहीं-न-कहीं अवश्‍य जीवित हैं, इसमें संशय नहीं है। मैंने ऐसे (शुभ) चिह्न देखे हैं, जिनसे सूचित होता है कि पाण्‍डव यहाँ अवश्‍य पधारेंगे। नरेश्‍वर वे जिस निमित्त से यहाँ आ सकते हैं, वह सुनिये - क्षत्रियों के लिये कन्‍यादान का श्रेष्‍ठ मार्ग स्‍वयंवर बताया गया है। नृपश्रेष्‍ठ आप सम्‍पूर्ण नगर में स्‍वयंवर की घोषणा करा दें। फिर पाण्‍डव अपनी माता कुन्‍ती के साथ दूर हों, निकट हों अथवा स्‍वर्ग में ही क्‍यों न हों-जहाँ कहीं भी होंगे, स्‍वयंवर का समाचार सुनकर यहाँ अवश्‍य आयेंगे, इसमें संशय नहीं है। अत: राजन आप (सर्वत्र) स्‍वयंवर की सूचना करा दें, इसमें विलम्‍ब न करें। आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है - पुरोहित की बात सुनकर पञ्जालराज को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन्‍होंने नगर में द्रौपदी का स्‍वयंवर घोषित करा दिया। पौषमास के शुक्‍लपक्ष में शुभ तिथि (एकादशी) को रोहिणी नक्षत्र में वह स्‍वयंवर होगा, जिसके लिये आज से पचहत्तर दिन शेष हैं। ब्राह्मणी (कुन्‍ती) देवता, गन्‍धर्व, यक्ष और तपस्‍वी ऋषि भी स्‍वयंवर देखने के लिये अवश्‍य जाते हैं। तुम्‍हारे सभी महात्‍मा पुत्र देखने में परम सुन्‍दर हैं। पञ्जालराज पुत्री कृष्‍णा इनमें से किसी को अपनी इच्‍छा से पति चुन सकती है अथवा तुम्‍हारे मंझले पुत्र को अपना पति बना सकती है। संसार में विधाता के उत्‍तम विधान को कौन जान सकता है? अत: यदि मेरी बात तुम्‍हें अच्‍छी लगे, तो तुम अपने पुत्रों के साथ पाञ्चाल देश में अवश्‍य जाओ। तपोधने पञ्जालदेश में सदा सुभिक्ष रहता है। राजा यज्ञसेन सत्‍यप्रतिज्ञ होने के साथ ही ब्राह्मणों के भक्‍त हैं। वहाँ के नागरिक भी ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले हैं। उस नगर के ब्राह्मण भी अतिथियों के बड़े प्रेमी हैं। वे प्रतिदिन बिना मांगे ही न्‍यौता देंगे। मैं भी अपने इन शिष्‍यों के साथ वहीं जाता हूँ। ब्राह्मणी यदि ठीक जान पड़े तो चलो। हम सब लोग एक साथ ही वहाँ चले चलेंगे। वैशपाम्‍यनजी कहते हैं - इतना कहकर वे ब्राह्मण चुप हो गये।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-2
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-3
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-4
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-5

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सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण | महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन | देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन | दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन | दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना | दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना | तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन | दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश | दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप | शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना | विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना | मेनका-विश्वामित्र का मिलन | कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण | शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह | कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन | शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति | पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना | आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन | भरत का राज्याभिषेक | दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति | पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन | कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना | देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध | देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह | शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना | देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप | शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना | शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना | शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना | सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार | ययाति और देवयानी का विवाह | ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति | ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन | देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद | शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना | ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह | ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना | ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना | ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य | ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना | ययाति की तपस्या | ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना | ययाति का स्वर्ग से पतन | ययाति और अष्टक का संवाद | अष्टक और ययाति का संवाद | ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद | ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना | ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना | ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना | पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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