- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 118 के अनुसार पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय उन मृगरुपधारी मुनि को मरा हुआ छोड़कर राजा पाण्डु जब आगे बढ़े, तब पत्नी सहित शोक और दु:ख से आतुर हो अपने सगे भाई-बन्धु की भाँति उनके लिये विलाप करने लगे तथा अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए कहने लगे।
पाण्डु बोले - खेद की बात है कि श्रेष्ठ पुरुषों के उत्तम कुल में उत्पन्न मनुष्य भी अपने अन्त:करण पर वश न होने के कारण काम के फंदे में फंसकर विवेक खो बैठते हैं और अनुचित कर्म करके उसके द्वारा भारी दुर्गति में पड़ जाते हैं। हमने सुना है, सदा धर्म में मन लगाये रहने वाले महाराज शान्तनु से जिनका जन्म हुआ था, वे मेरे पिता विचित्रवीर्य भी काम भोग में आसक्त चित्त होने के कारण ही छोटी अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उन्हीं कामासक्त नरेश की पत्नी से वाणी पर संयम रखने वाले ऋषिप्रवर भगवान श्रीकृष्ण द्वैयापन ने मुझे उत्पन्न किया। मैं शिकार के पीछे दौड़ता रहता हूं; मेरी इसी अनीति के कारण जान पड़ता है देवताओं ने मुझे त्याग दिया है। इसीलिये तो ऐसे विशुद्ध वंश में उत्पन्न होने पर भी आज व्यसन में फंसकर मेरी यह बुद्धि इतनी नीच हो गयी। अत: अब मैं इस निश्चय पर पहुँच रहा हूँ कि मोक्ष के मार्ग पर चलने से ही अपना कल्याण है। स्त्री-पुत्र आदि का बन्धन ही सबसे महान दु:ख है। आज मैं अपने पिता वेदव्यास जी का उस उत्तम वृत्ति का आश्रय लूंगा, जिससे पुण्य का कभी नाश नहीं होता। मैं अपने शरीर और मन को नि:संदेह अत्यन्त कठोर तपस्या में लगाऊंगा। इसलिये अब अकेला (स्त्री रहित) ओर एकाकी (सेवक आदि से भी अलग) रहकर एक-एक वृक्ष के नीचे फल की भिक्षा मांगूंगा। सिर झुकाकर मौनी संन्यासी हो इन वानप्रस्थियों के आश्रमों में विचरूंगा। उस समय मेरा शरीर धूल से भरा होगा और निर्जन एकान्त स्थान में मेरा निवास होगा। अथवा वृक्षों का तल ही मेरा निवास गृह होगा। मैं प्रिय एवं अप्रिय सब प्रकार की वस्तुओं को त्याग दूंगा। न मुझे किसी के वियोग का शोक होगा और न किसी की प्राप्ति या संयोग से हर्ष ही होगा। निन्दा और स्तुति दोनों मेरे लिये समान होंगी। न मुझे आर्शीवाद की इच्छा होगी नमस्कार की। मैं सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों से रहित और संग्रह-परिसंग्रह से दूर रहूंगा। न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा और न क्रोध से किसी पर भौंहें टेढ़ी करूंगा। मेरे मुख पर प्रसन्नता छायी रहेगी तथा सब भूतों के हित साधन में मैं संलग्न रहूंगा। (स्वेद्रज, उद्भिज्ज, अण्डज, जरायुज) चार प्रकार के जो चराचर प्राणी हैं, उनमें से किसी की भी मैं हिंसा नहीं करूंगा। जैसे पिता अपनी अनेक संतानों में सर्वदा समभाव रखता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों के प्रति मेरा सदा समान भाव होगा। (पहले कहे अनुसार) मैं केवल एक समय वृक्षों से भिक्षा मांगूंगा अथवा यह सम्भव न हुआ तो दस-पांच घरों में घूमकर (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षा ले लूंगा।[1] अथवा यदि भिक्षा मिलनी असम्भव हो जाय, तो कई दिन तक उपवास ही करता चलूंगा। (भिक्षा मिल जाने पर भी) भोजन थोड़ा-थोड़ा ही करूंगा। ऊपर बताये हुए एक प्रकार से भिक्षा न मिलने पर ही दूसरे प्रकार आश्रय लूंगा। ऐसा तो कभी न होगा कि लोभवश दूसरे-दूसरे बहुत से घरों में जाकर भिक्षा लूं। यदि कहीं कुछ न मिला तो भिक्षा की पूर्ति के लिये सात घरों पर फेरी लगा लूंगा। यदि मिला तो और न मिला तो, दोनों ही दशाओं में समान दृष्टि रखते हुए भारी तपस्या में लगा रहूंगा। एक आदमी बसूले से मेरी एक बांह काटता हो और दूसरा मेरी दूसरी बांह पर चन्दन छिड़कता हो तो उन दोनों में से एक के अकल्याण का और दूसरे के कल्याण का चिन्तन नहीं करूंगा। जीने अथवा मरने की इच्छा वाले मनुष्य जैसी चेष्टाऐं करते हैं, वैसी कोई चेष्टा मैं नहीं करूंगा। न जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मृत्यु से द्वेष। जीवित पुरुषों द्वारा अपने अभ्युदय के लिये जो-जो कर्म किये जा सकते हैं, उन समस्त सकाम कर्मों को मैं त्याग दूंगा; क्योंकि वे सब काल से सीमित हैं।
अनित्य फल देने वाली क्रियाओं के लिये जो सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा चेष्टा की जाती है, उस चेष्टा को भी मैं सर्वथा त्याग दूंगा; धर्म के फल को भी छोड़ दूंगा। अपने अन्त:करण के मल को सर्वथा धोकर शुद्ध हो जाऊंगा। मैं सब पापों से सर्वथामुक्त हो अविद्याजनित समस्त बन्धनों को लांघ जाऊंगा। किसी के वश में न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचरूंगा। सदा इस प्रकार की धृति (धारणा) द्वारा उक्त रूप से व्यवहार करता हुआ भयरहित मोक्षरहित मोक्षमार्ग में स्थित होकर इस देह का विसर्जन करूंगा। मैं संतानोत्पादन की शक्ति से रहित हो गया हूँ। मेरा गृहस्थाश्रम संतानोत्पादन आदि धर्म से सर्वथा शून्य है और मेरे लिये अपने वीर्य क्षय के कारण सर्वथा शोचनीय हो रहा है; अत: अत्यन्त दीनतापूर्ण मार्ग पर अब मैं नहीं चल सकता। जो सत्कार या तिरस्कार पाकर दीनतापूर्ण दृष्टि से देखता हुआ दूसरे पुरुष के पास जीविका की आशा से जाता है, वह कामात्मा मनुष्य तो कुत्तों के मार्ग पर चलता है।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
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| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
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| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
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वैवाहिक पर्व
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| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
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