पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 119 के अनुसार पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश का वर्णन इस प्रकार है[1]-

पाण्डु का ऋषियों के साथ ब्रह्मलोक जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय वहाँ भी श्रेष्ठ तपस्‍या में लगे हुए पराक्रमी राजा पाण्‍डु सिद्ध और चारणों के समुदाय को अत्‍यन्‍त प्रिय लगने लगे- इन्‍हें देखते ही वे प्रसन्न हो जाते थे। भारत वे ऋषि-मुनियों की सेवा करते, अहंकार से दूर रहते और मन को वश में रखते थे। उन्‍होंने सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को जीत लिया था। वे अपनी ही शक्ति से स्‍वर्गलोक में जाने के लिये सदा सचेष्ट रहने लगे। कितने ही ऋषियों का उन पर भाई के समान प्रेम था। कितनों के वे मित्र हो गये थे और दूसरे बहुत-से महर्षि उन्‍हें अपने पुत्र के समान मानकर सदा उनकी रक्षा करते थे। भरतश्रेष्ठ जनमेजय राजा पाण्‍डु दीर्घकाल त‍क पाप रहित तपस्‍या का अनुष्‍ठान करके ब्रह्मर्षियों के समान प्रभावशाली हो गये थे। एक दिन अमावस्‍या तिथि को कठोर व्रत का पालन करने वाले बहुत-से ऋषि-महर्षि एकत्र हो ब्रह्मा जी के दर्शन की इच्‍छा से ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थित हुए। ॠर्षियों को प्रस्‍थान करते देख पाण्‍डु ने उनसे पूछा- ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वरो आप लोग कहाँ जायेंगे? यह मुझे बताइये’।
ऋषि बोले - राजन आज ब्रह्मलोक मे महात्‍मा देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा महामना पितरों का बहुत बड़ा समुह एकत्र होने वाला है। अत: हम वहीं स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा जी का दर्शन करने के लिये जायेंगे। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन यह सुनकर महाराज पाण्‍डु भी महर्षियों के साथ जाने के लिये सहसा उठ खड़े हुए। उनके मन में स्‍वर्ग के पार जाने की इच्‍छा जाग उठी और वे उत्तर की ओर मुंह करके अपनी दोनों पत्नियों के साथ शतश्रंग पर्वत से चल दिये। यह देख गिरिराज हिमालय के ऊपर-ऊपर उत्तराभिमुख यात्रा करने वाले तपस्‍वी मुनियों ने कहा- ‘भरतश्रेष्ठ इस रमणीय पर्वत पर हमने बहुत-से ऐसे प्रदेश देखे है, जहाँ जाना बहुत कठिन है। वहाँ देवताओं, गन्‍धर्वों तथा अप्‍सराओं की क्रीडा भूमि है, जहाँ सैंकड़ों विमान खचाखच भरे र‍हते हैं और मधुर गीतों के स्‍वर गूंजते रहते हैं। इसी पर्वत पर कुबेर के अनेक उधान हैं, जहाँ की भूमि कहीं समतल है और कहीं नीची-ऊंची। ‘इस मार्ग में हमने कई बड़ी-बड़ी नदियों के दुर्गम तट और कितनी ही पर्वतीय घाटियां देखी हैं। यहाँ बहुत-से ऐसे स्‍थल हैं, जहाँ सदा बर्फ जमी रहती है तथा जहाँ वृक्ष, पशु और पक्षियों का नाम भी नहीं है। ‘कहीं-कहीं बहुत गुफाएं हैं, जिनमें प्रवेश करना अत्‍यन्‍त कठिन है। कइयों के तो निकट भी पहुँचना कठिन है। ऐसे स्‍थलों को पक्षी भी नहीं पार कर सकता, फि‍र मृग आदि अन्‍य जीवों की बात ही क्‍या है? ‘इसी मार्ग पर केवल वायु चल सकती है तथा सिद्ध महर्षि भी जा सकते हैं। इस पर्वतराज पर चलती हुई ये दोनों राजकुमारियां कैसे कष्‍ट न पायेंगी? भरतवंश शिरोमणे ये दोनों रानियां दु:ख सहन करने के योग्‍य नहीं हैं; अत: आप न चलिये।’

पाण्डु द्वारा ऋषियों से संतनोत्पत्ति का उपाय पूछना

पाण्‍डु ने कहा - महाभाग महर्षिगण संतानहीन के लिये स्‍वर्ग का दरवाजा बंद रहता है, ऐसा लोग कहते हैं। मैं भी संतानहीन हूं, इसलिये दु:ख से संतप्त होकर आप लोगों से कुछ निवेदन करता हूँ। तपोधनो मैं पितरों के ऋण से अब तक छूट नहीं सका हूं, इसलिये चिन्‍ता से संतप्त हो रहा हूँ।[1] नि:संतान अवस्‍था में मेरे इस शरीर का नाश होने पर मेरे पितरों का पतन अवश्‍य हो जायगा। मनुष्‍य इस पृथ्‍वी पर चार प्रकार के ऋणों से युक्त होकर जन्‍म लेते हैं। (उन ऋणों के नाम ये हैं-) पितृ-ऋण, देव-ऋण, ऋषि-ऋण और मनुष्‍य-ऋण। उन सबका ऋण धर्मत: हमें चुकाना चाहिये। जो मनुष्‍य यथा समय इन ऋणों का ध्‍यान नहीं रखता, उसके लिये पुण्‍यलोक के सुलभ नहीं होते। यह मर्यादा धर्मज्ञ पुरुषों ने स्‍थापित की है। यज्ञों द्वारा मनुष्‍य्‍ देवताओं को तृप्त करता है, स्‍वाध्‍याय और तपस्‍या द्वारा मुनियों को संतोष दिलाता है। पुत्रोत्‍पादन और श्राद्धकर्मों द्वारा पितरों को तथा दयापूर्ण बर्ताव द्वारा वह मनुष्‍यों को संतुष्ट करता है। मैं धर्म की दृष्टि से ऋषि, देव तथा मनुष्‍य- इन तीनों ऋणों से मुक्त हो चुका हूँ। अन्‍य अर्थात पितरों के ऋण का नाश तो इस शरीर के नाश होने पर भी शायद हो सके। तपस्‍वी मुनियों! मैं अब त‍क पितृऋण से मुक्त न हो सका। इस लोक में श्रेष्ठ पुरुष पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्‍पत्ति का प्रयास करते और स्‍वयं ही पुत्ररूप में जन्‍म लेते हैं। जैसे मैं अपने मेरे पिता के क्षेत्र में महर्षि व्‍यास द्वारा उत्‍पन्न हुआ हूं, उसी प्रकार मेरे इस क्षेत्र में भी कैसे संतान की उत्‍पत्ति हो सकती है? ऋषि बोले- धर्मात्‍मा नरेश! तुम्‍हें पापरहित देवोपम शुभ संतान होने का योग्‍य है, यह हम दिव्‍यदृष्टि से जानते हैं। नरव्‍याघ्र! भाग्‍य ने जिसे दे रक्‍खा है, उस फल को प्रयत्न द्वारा प्राप्त कीजिये। बुद्धिमान् मनुष्‍य व्‍यग्रता छोड़कर बिना क्‍लेश के ही अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। राजन्! आपको उस दृष्ट फल के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आप निश्चय ही गुणवान् और हर्षोत्‍पादक संतान प्राप्त करेंगें।[2]

पाण्डु और कुन्ती का पुत्र प्राप्ति विषयक संवाद

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तपस्‍वी मुनियों का यह वचन सुनकर राजा पाण्‍डु बड़े सोच-विचार में पड़ गये। वे जानते थे कि मृगरूपधारी मुनि के शाप से मेरा संतानोत्‍पादन-विषयक पुरुषार्थ नष्ट हो चुका है। एक दिन वे अपनी यशस्विनी धर्म पत्नी कुन्‍ती से एकान्‍त में इस प्रकार बोले- ‘देवि! यह हमारेलिये आपत्तिकाल है, इस समय संतानोत्‍पादन के लिये जो आवश्‍यक प्रयत्न हो, उसका तुम समर्थन करो। ‘सम्‍पूर्ण लोकों में संतान ही धर्ममयी प्रतिष्ठा है- कुन्‍ती! सदा धर्म का प्रतिपादन करने वाले धीर पुरुष ऐसा मानते हैं। संतानहीन मनुष्‍य इस लोक में यज्ञ, दान, तप और नियमों का भली-भाँति अनुष्ठान कर ले, तो भी उसके किये हुए सब कर्म पवित्र नहीं कहे जाते। ‘पवित्र मुस्कान वाली कुन्तिभोजकुमारी! इस प्रकार सोच-समझ कर मैं तो यही देख रहा हूँ कि संतानहीन होने के कारण मुझे शुभ लोकों की प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं निरन्‍तर इसी चिन्‍ता में डूबा रहता हूँ। ‘मेरा मन अपने वश में नहीं, मैं क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाला हूँ। भीरू! इसीलिये मृग के शाप से मेरी संतानोत्‍पादन-शक्ति उसी प्रकार नष्ट हो गयी है, जिस प्रकार मैंने उस मृग का वध करके उसके मैंथुन में बाधा डाली थी। ‘पृथे! धर्मशास्त्रों में ये आगे बताये जाने वाले छ: पुत्र ‘बन्‍धुदायाद’ कहे गये हैं, जो कुटुम्‍बी होने से सम्‍पत्ति के उत्‍राधिकारी होते हैं; और छ: प्रकार के पुत्र ‘अबन्‍धुदायाद’ हैं, जो कुटुम्‍बी न होने पर भी उत्तराधिकारी बताये गये हैं।[3] इन सबका वर्णन मुझसे सुनो।[2]

पाण्डु का कुन्ती को अन्य पुरुष से पुत्र प्राप्ति का आदेश

‘पहला पुत्र वह है, जो विवाहिता पत्नी से अपने द्वारा उत्‍पन्न किया गया हो; उसे ‘स्‍वयं-जात’ कहते हैं। दूसरा प्रणीत कहलाता है, जो अपनी ही पत्नी के गर्भ से किसी उत्तम पुरुष के अनुग्रह से उत्‍पन्न होता है तीसरा जो अपनी पुत्री का पुत्र हो, वह भी उसके समान माना गया है। चौथे प्रकार के पुत्र की पौनर्भव संज्ञा है,[4] जो दूसरी बार ब्‍याही हुई स्त्री से उत्‍पन्न हुआ हो। पांचवें प्रकार के पुत्र की कानीन संज्ञाहै (विवाह से पहले ही जिस कन्‍या को इस शर्त के साथ दिया जाता है कि इसके गर्भ से उत्‍पन्न होने वाला पुत्र मेरा पुत्र समझा जायगा उस कन्‍या के पुत्र को ‘कानीन’ कहते हैं )[5] जो बहिन का पुत्र (भानजा) है, वह छठा कहा गया है। ‘अब छ: प्रकार के अबन्‍धुदायक पुत्र कहे गये हैं- दत्त (जिसे माता-पिता ने स्‍वयं समर्पित कर दिया हो), क्रीत (जिसे धन आदि देकर खरीद लिया गया हो), कृतिम- जो स्‍वयं मैं आपका पुत्र हूं, यों कहकर समीप आया हो, सहेढ़ (जो कन्‍यावस्‍था में ही गर्भवती होकर ब्‍याही गयी हो, उसके गर्भ उत्‍पन्न पुत्र सहोढ़ कहलाता है), ज्ञातिरेता (अपने कुल का पुत्र) तथा अपने से हीन जाति की स्त्री के गर्भ से उत्‍पन्न हुआ पुत्र। ये सभी अबन्‍धुदायक हैं। ‘इनमें से पूर्व-पूर्व के अभाव में ही दूसरे-दूसरे पुत्र की अभिलाषा करें। आपत्तिकाल में नीची जाति के पुरुष श्रेष्ठ पुरुष से भी पुत्रोत्‍पत्ति की इच्‍छा कर सकते हैं। ‘पृथे! अपने वीर्य के बिना भी मनुष्‍य किसी श्रेष्ठ पुरुष के सम्‍बन्‍ध से श्रेष्ठ पुत्र का प्राप्त कर लेते हैं और वह धर्म का फल देने वाला होता है, यह बात स्‍वायम्‍भुव मनु ने कही है। ‘अत: यशस्विनी कुन्‍ती! मैं स्‍वयं संतानोत्‍पादन की शक्ति से रहित होने के कारण तुम्‍हें आज दूसरे के पास भेजूंगा। तुम मरे सदृश अथवा मेरी अपेक्षा भी श्रेष्ठ पुरुष से संतान प्राप्त करो’।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 17-32
  3. बन्धु का अर्थ संस्कृत-शब्दार्थकौस्तुभ में आत्मबन्धु, पितृबन्धु, मातृबन्धु माना गया है, इसलिए बन्धु का अर्थ कुटुम्बी किया है। दायाद का अर्थ उसी कोष में 'उत्तराधिकारी' है। इसलिये बन्धुवाद का अर्थ 'कुटुम्बी होने से 'उत्तराधिकारी' किया है। इसके विपरीत, अबन्धुदायाद का अर्थ अबन्धु यानी कुटुम्बी न होने पर उत्तराधिकारी किया है।
  4. 'पौनभर्व' का अर्थ पद्मचन्द्रकोष के अनुसार दूसरी बार ब्याही हुई स्त्री से उत्पन्न पुत्र लिया गया है।
  5. कानीन- यह अर्थ नीलकण्ठ जी ने अपनी टीका में किया है।
  6. महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 33-37

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पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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