मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना

महाभारत आदि पर्व के ‘मय दर्शन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 232 के अनुसार मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

मन्दपाल का अपने बच्चों और जरिता के लिए विलाप करना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! मन्दपाल भी अपने पुत्रों की चिन्ता में पड़े थे। यद्यपि वे (उनकी रक्षा के लिये) अग्निदेव से प्रार्थना कर चुके थे, तो भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पुत्रों के लिये संतप्त होते हुए वे लपिता से बोले - ‘लपिते! मेरे बच्चे अपने घोंसले में कैसे बच सकेंगे ? ‘जब अग्नि का वेग बढे़गा और हवा तीव्र गति से चलने लगेगी, उस समय मेरे बच्चे अपने को आग से बचाने में असमर्थ हो जायँगे। ‘उनकी तपस्विनी माता स्वयं असमर्थ हे, वह बेचारी उनकी रक्षा कैसे करेगी ? अपने बच्चों के बचने का कोई उपाय न देखकर वह शोक से आतुर हो जायेगी। ‘मेरे बच्चे उड़ने और पंख फड़फड़ाने में असमर्थ हैं। उन्हें उस दशा में देखकर संतप्त हो बार-बार चीत्कार करती और दौड़ती हुई जरिता किस दशा में होगी ? ‘मेरा बेटा जरितारि कैसे होगा, सारिसृक्क की क्या अवस्था होगी, स्तम्बमित्र और द्रोण कैसे होंगे ? तथा वह तपस्विनी जरिता किस हालत में होगी ?’ भारत! मन्दपाल मुनि जब इस प्रकार वन में (अपनी स्त्री एवं बच्चों के लिये) विलाप कर रहे थे।[1]

लपिता द्वार मन्दपाल का तिरस्कार करना

उस समय लपिता ने ईर्ष्यापूर्वक कहा- ‘तुम्हें पुत्रों को देखने की चिन्ता नहीं है। तुमने जिन ऋषियों के नाम लिये हैं, वे तेजस्वी अैर शक्तिशाली हैं, उन्हें अग्नि से तनिक भी भय नहीं है। ‘मेरे पास ही तुमने अग्निदेव को स्वयं अपने पुत्र सौंपे थे और उन महात्मा अग्नि ने भी उनकी रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी। ‘वे लोकपाल हैं। जब बात दे चुके हैं, तब उसे झूठी नहीं करेंगे। अतः स्वस्थ पुरुष! तुम्हारा मन अपने बच्चों की रक्षारूप बन्धुजनोचित कर्तव्य के पालने के लिये उत्सुक नहीं है। ‘तुम तो मेरी दुश्मनी उसी जरिता सौत के लिये चिन्ता करते हुए संतप्त हो रहे हो। पहले जरिता में तुम्हारा जैसा स्नेह था वैसा अवश्य ही मुझपर नहीं है। ‘जो सहायकों से सम्पन्न और शक्तिशाली हैं’ वह मुझ जैसे अपने सुहृद व्यक्ति पर स्नेह नहीं रखे और अपने आत्मीय जन को पीड़ित देखकर उसकी उपेक्षा करे, यह किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। ‘अतः अब तुम उस जरिता के पास ही जाओ, जिसके लिये तुम इतने संतप्त हो रहे हो। मैं भी दुष्ट पुरुष के आश्रय में पड़ी हुई स्त्री की भाँति अकेली ही विचरूँगी’।[1]

मन्दपाल का लपिता से नाराज होना

मन्दपाल ने कहा - अरी! तू जैसा समझती है, उस भाव से मैं इस संसार में नहीं विचरता हूँ। मेरा विचरना तो केवल संतान के लिये होता है। मेरी वह संतान संकट में पड़ी हुई है। जो पैदा हुए बच्चों का परित्याग कर भविष्य में होने वालों का भरोसा करता है, वह मूर्ख है; सब लोग उसका अनादर करते हैं; तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा कर। यह प्रज्वलित आग सारे वृक्षों को अपनी लपटों में लपेटती हुई मेरे उद्विग्न हृदय में अमंगलसूचक संताप उत्पन्न कर रही है।[1]

जरिता का अपने बच्चों से मिलना

वैशम्पायन जी कहते है - जब अग्निदेव उस स्थान से हट गये, तब पुत्रों की लालसा रखने वाली जरिता पुनः शीघ्रतापूर्वक अपने बच्चों के पास गयी।[1] उसने देखा, सभी बच्चे आग से बच गये हैं और सकुशल है। उन्हें कुछ भी कष्ट नहीं हुआ और वे वन में जोर जोर से चहक रहे हैं। उन्हें बार-बार देखकर वह नेत्रों से आँसू बहाने लगी और बारी-बारी से पुकारकर वह सभी बच्चों से मिली।[2]-

मन्दपाल का अपने बच्चों और जरिता से मिलना

भारत! इतने में ही मन्दपाल मुनि भी सहसा वहाँ आ पहुँचे; किंतु उन बच्चों में से किसी ने भी उस समय उनका अभिनन्दन नहीं किया। वे एक-एक बच्चे से बोलते और जरिता को भी बार-बार बुलाते, परंतु वे लोग उन मुनि से भला या बुरा कुछ भी नहीं बोले। मन्दपाल ने पूछा - प्रिये! तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र कौन है, उससे छोटा कौन है, मझला कौन है और सबसे छोटा कौन है ? मैं इस प्रकार दुःख से आतुर होकर तुमसे पूछ रहा हूँ,, तुम मुझे उत्तर क्यों नहीं देती ? यद्यपि मैंने तुम्हें त्याग दिया था, तो भी यहाँ से जाने पर मुझे शान्ति नहीं मिलती थी।[2]

जरिता और मन्दपाल का संवाद

जरिता बोली - तुम्हें ज्येष्ठ पुत्र से क्या काम है, उसके बाद वाले से भी क्या लेना है, मझले अथवा छोटे पुत्र से भी तुम्हें क्या प्रयोजन है ? पहले तुम मुझे सबसे हीन समझकर त्यागकर जिसके पास चले गये थे, उसी मनोहर मुसकानवाली तरुणी लपित के पास जाओ। मन्दपाल ने कहा - परलोक में स्त्रियों के लिये परपुरुष से सम्बन्ध और सौतियाडाह को छोड़कर दूसरा कोई दोष उनके परमार्थ का नाश करने वाला नहीं है यह सौतियाडाह बैर की आग को भड़काने वाला और अत्यन्त उद्वेग में डालने वाला है। समस्त प्राणियों में विख्यात और उत्तम व्रत का पालन करने वाली कल्याणमयी अरून्धती ने उन महात्मा वसिष्ठ पर भी शंका की थी, जिनका हृदय अत्यन्त विशुद्ध है, जो सदा उनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं और सप्तर्षि मण्डल के मध्य में विराजमान होते हैं। ऐसे धैर्यवान् मुनि का भी उन्होंने सौतियाडाह के कारण तिरस्कार किया था। इस अशुभ चिन्तन के कारण उनकी अंगकान्ति धूम और अरुण के समान (मंद) हो गयी। वे कभी लक्ष्य और कभी अलक्ष्य रहकर प्रच्छन्न वेष में मानो कोई निमित्त् देखा करती हैं। मैं पुत्रों से मिलने के लिये आया हूँ, तो भी तुम मेरा तिरस्कार करती हो और इस प्रकार अभिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर जैसे तुम मेरे साथ संदेहयुक्त व्यवहार करती हो, वैसा ही लपिता भी करती है। यह मेरी भार्या है, ऐसा मानकर पुरुष को किसी प्रकार भी स्त्री पर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि नारी पुत्रवती हो जाने पर पतिसेवा आदि अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देती। वैशम्पायन जी कहते है - तदनन्तर वे सभी पुत्र यथोचित रूप से अपने पिता के पास आ बैठे और वे मुनि भी उन सब पुत्रों को आश्वासन देने के लिये उद्यत हुए।[2]

मन्दपाल का पत्नी व बच्चों के साथ दूसरे देश जाना

मन्दपाल बोले - मैंने अग्निदेव से यह प्रार्थना की थी कि वे तुम लोगों को दाह से मुक्त कर दें। महात्मा अग्नि ने भी वैसा करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। अग्नि के दिये हुए वचन को स्मरण करके, तुम्हारी माता की धर्मज्ञता को जानकर और तुम लोगों में भी महान् शक्ति है, इस बात को समझकर ही मैं पहले यहाँ नहीं आया था। बच्चों! तुम्हें मेरे प्रति अपने हृदय में संताप नहीं करना चाहिये। तुम लोग ऋषि हो, यह बात अग्निदेव भी जानते हैं। क्योंकि तुम्हें ब्रह्मतत्त्व का बोध हो चुका है। वैशम्पायन जी कहते है - जनमेजय! इस प्रकार आश्वस्त किये हुए अपने पुत्रों और पत्नी जरिता को साथ ले द्विज मन्दपाल उस देश से दूसरे देश में चले गये।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत आदि पर्व अध्याय 232 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 232 श्लोक 18-32
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 233 श्लोक 1-18

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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