- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 122 के अनुसार युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-
विषय सूची
- 1 कुन्ती द्वारा धर्म देवता का आवाहन
- 2 युधिष्ठिर का जन्म
- 3 पाण्डु के आग्रह पर कुन्ती द्वारा वायु देवता का आवाहन
- 4 भीम का जन्म
- 5 पाण्डु द्वारा इन्द्र देवता का आवाहन
- 6 पाण्डु के आदेश पर कुन्ती का इन्द्र देवता आवाहन
- 7 अर्जुन का जन्म
- 8 सभी देवताओं द्वारा अर्जुन की प्रसंसा विषयक संवाद
- 9 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 10 संबंधित लेख
कुन्ती द्वारा धर्म देवता का आवाहन
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब गान्धारी को गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्ती ने गर्भ धारण करने के लिये अच्युत स्वरुप भगवान् धर्म का आवाहन किया। देवी कुन्ती ने बड़ी उतावली के साथ धर्म देवता के लिये पूजा के उपहार अर्पित किये। तत्पश्चात् पूर्वकाल में महर्षि दुर्वासा ने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया। तब मन्त्र बल से आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर बैठकर उस स्थान पर आये, जहाँ कुन्ती देवी जप में लगी हुई थी। तब धर्म ने हंसकर कहा- ‘कुन्ती! बोलो, तुम्हें क्या दूं?’ धर्म के द्वारा हास्य पूर्वक इस प्रकार पूछने पर कुन्ती बोली- ‘मुझे पुत्र दीजिये’।[1]
युधिष्ठिर का जन्म
तदनन्तर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्म के साथ समागम करके सुन्दरांगी कुन्ती ने ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला था। तदनन्तर जब चन्द्रमा ज्येष्ठ नक्षत्र पर थे, सूर्य तुला राशि पर विराजमान थे, शुक्ल पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पंचमी तिथी थी और अत्यन्त श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवां मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीदेवी ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया, जो महान् यशस्वी था। उस पुत्र के जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई -। ‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वी पर पराक्रमी एवं सत्यवादी राजा होगा। पाण्डु का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्यात हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याति प्राप्त करेगा; यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा’।[1]
पाण्डु के आग्रह पर कुन्ती द्वारा वायु देवता का आवाहन
उस धर्मात्मा पुत्र को पाकर राजा पाण्डु ने पुन: (आग्रह पूर्वक) कुन्ती से कहा-। प्रिये! क्षत्रिय को बल से बड़ा कहा गया है। अत: एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो। जैसे अश्वमेध सब यज्ञों में श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूर्ण प्रकाश करने वालों में प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्यों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बल में सबसे बढ़-चढ़कर है। अत: सुन्दरी! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से समस्त प्राणियों द्वारा प्रशंसित देव श्रेष्ठ वायु का विधि पूर्वक आवाहन करो। वे हम लोगों के लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्यों में सबसे अधिक प्राण शक्ति से सम्पन्न और बलवान होगा। स्वामी के इस प्रकार कहने पर कुन्ती ने तब वायुदेव का ही आवाहन किया। तब महाबली वायु मृग पर आरुढ़ हो कुन्ती के पास आये और यों बोले- कुन्ती! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्या दूं?।
भीम का जन्म
कुन्ती ने लज्जित होकर मुस्कराते हुए कहा- सुरश्रेष्ठ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये जो महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमण्ड को चूर करने वाला हो।[1] वायुदेव से भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीम का जन्म हुआ। जनमेजय! उस महाबली पुत्र को लक्ष्य करके आकाशवाणी ने कहा- यह कुमार समस्त बलवानों में श्रेष्ठ है। भीमसेन के जन्म लेते ही एक अद्भुत घटना यह हुई कि अपनी माता की गोद से गिरने पर उन्होंने अपने अंगों से एक पर्वत की चट्टान को चूर-चूर कर दिया। बात यह थी कि यदुकुल नन्दनी कुन्ती प्रसव के दसवें दिन पुत्र को गोद में लिये उसके साथ एक सुन्दर सरोवर के निकट गयी और स्नान करके लौटकर देवताओं की पूजा करने के लिये कुटिया से बाहर निकली। भरतनन्दन! वह पर्वत के समीप होकर जा रही थी कि इतने में ही उसको मार डालने की इच्छा से एक बहुत बड़ा व्याघ्र उस पर्वत की कन्दरा से बाहर निकल आया। देवताओं के समान पराक्रमी कुरुश्रेष्ठ पाण्डु ने उस व्याघ्र को दौड़कर आते देख धनुष खींच लिया और तीन बाणों से मारकर उसे विदीर्ण कर दिया। उस समय वह अपनी विकट गर्जना से पर्वत की सारी गुफा का प्रतिध्वनित कर रहा था। कुन्ती बाघ के भय से सहसा उछल पड़ी। उस समय उसे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि मेरी गोदी में भीमसेन सोया हुआ है। उतावले में वह वज्र के समान शरीर वाला कुमार पर्वत के शिखर पर गिर पड़ा। गिरते समय उसने अपने अंगों से उस पर्वत की शिला को चूर्ण-विचूर्ण कर दिया। पत्थर की चट्टान को चूर-चूर हुआ देख महाराज पाण्डु बड़े आश्चर्य में पड़ गये। जब चन्द्रमा मवा नक्षत्र पर विराजमान थे, बृहस्पति सिंह लग्न में सुशोभित थे, सूर्यदेव दोपहर के समय आकाश के मध्य भाग में तप रहे थे, उस समय पुण्यमयी त्रयोदशी तिथी को मैत्र मुहूर्त में कुन्ती देवी ने अविचल शक्ति वाले भीमसेन को जन्म दिया था। भरतश्रेष्ठ भूपाल! जिस दिन भीमसेन का जन्म हुआ था, उसी दिन हस्तिनापुर में दुर्योधन की भी उत्पत्ति हुई।[2]
पाण्डु द्वारा इन्द्र देवता का आवाहन
भीमसेन के जन्म लेने पर पाण्डु ने फिर इस प्रकार विचार किया कि मैं कौनसा उपाय करूं, जिससे मुझे सब लोगों से श्रेष्ठ उत्तम पुत्र प्राप्त हो। यह संसार दैव तथा पुरुषार्थ पर अबलम्बित है। इनमें दैव तभी सुलभ ( सफल ) होता है, जब समय पर उद्योग किया जाय। मैंने सुना है कि देवराज इन्द्र ही सब देवताओं में प्रधान हैं, उनमें अथाह बल और उत्साह है। वे बड़े पराक्रमी एवं अपार तेजस्वी हैं। मैं तपस्या द्वारा उन्हीं को संतुष्ट करके महाबली पुत्र प्राप्त करूंगा। वे मुझे जो पुत्र देंगे, वह निश्चय ही सबसे श्रेष्ठ होगा तथा संग्राम में अपना सामना करने वाले मनुष्यों तथा मनुष्येतर प्राणियों (दैत्य-दानव आदि ) को भी मारने में समर्थ होगा। अत: मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा बड़ी भारी तपस्या करूंगा।[2] ऐसा निश्चय करके कुरुनन्दन महाराज पाण्डु ने महर्षियों से सलाह लेकर कुन्ती को शुभदायक सांवत्सर व्रत का उपदेश दिया। और भारत! वे महाबाहु धर्मात्मा पाण्डु स्वयं देवताओं के ईश्वर इन्द्रदेव की आराधना करने के लिये चित्तवृत्तियों को अत्यन्त एकाग्र करके एक पैर से खड़े हो सूर्य के साथ-साथ उग्र तप करने लगे अर्थात सूर्योदय होने के समय एक पैर से खड़े होते और सूर्यास्त तक उसी रूप में खड़े रहते। इस तरह दीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर इन्द्रदेव उन पर प्रसन्न हो उनके समीप आये और इस प्रकार बोले। इन्द्र ने कहा- राजन्! मैं तुम्हें ऐसा पुत्र दूंगा, जो तीनों लोगों में विख्यात होगा। वह ब्राह्मणों, गौओं तथा सुहृदों के अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करने वाला, शत्रुओं को शोक देने वाला और समस्त बन्धु-वान्ध्वों को आनन्दित करने वाला होगा, मैं तुम्हें सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश करने वाला सर्वश्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा। महात्मा इन्द्र के यों कहने पर धर्मात्मा कुरुनन्दन महाराज पाण्डु बड़े प्रसन्न हुए और देवराज के वचनों का स्मरण करते हुए[3]
पाण्डु के आदेश पर कुन्ती का इन्द्र देवता आवाहन
कुन्ती देवी से बोले- कल्याणि! तुम्हारे व्रत का भावी परिणाम मंगलमय है। देवताओं के स्वामी इन्द्र हम लोगों पर संतुष्ट हैं। यह अलौकिक कर्म करने वाला, यशस्वी, शत्रुदमन, नीतीज्ञ, महामना, सूर्य के समान तेजस्वी, दुधर्ष, कर्मठ तथा देखने में अत्यन्त अद्भुत होगा। सुश्रोणि! अब ऐसे पुत्र को जन्म दो, जो क्षत्रियोचित तेज का भंडार हो। पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती! मैंने देवेन्द्र की कृपा प्राप्त कर ली है। अब तुम उन्हीं का आवाहन करो।[3]
अर्जुन का जन्म
वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज पाण्डु के यों कहने पर यशस्विनी कुन्ती ने इन्द्र का आवाहन किया। तदनन्तर देवराज इन्द्र आये और उन्होंने अर्जुन को जन्म दिया। वह फाल्गुन मास में दिन के समय पूर्वाफल्गुनी और उत्तग-फल्गुनी नक्षत्रों के संधिकाल में उत्पन्न हुआ। फाल्गुन मास ओर फल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उस बालक का नाम फाल्गुन हुआ। कुमार अर्जुन के जन्म लेते ही अत्यन्त गम्भीर नाद से समूचे आकाश को गुंजाती हुई आकाशवाणी ने पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती को सम्बोधित करके समस्त प्राणियों और आश्रमवासियों के सुनते हुए अत्यन्त स्पष्ट भाषा में इस प्रकार कहा-। कुन्ति भोजकुमारी! यह बालक कार्तवीर्य अर्जुन के समान तेजस्वी, भगवान् शिव के समान पराक्रमी और देवराज इन्द्र के समान अजेय होकर तुम्हारे यश का विस्तार करेगा। जैसे भगवान् विष्णु ने वामन रूप में प्रकट होकर देव माता अदिति के हर्ष को बढ़ाया था, उसी प्रकार ये विष्णु तुल्य अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ायेगा। तुम्हारा यह वीर पुत्र मद्र, कुरु, सोमक, चेदि, काशि तथा करूप नामक देशों को वश में करके कुरुवंश की लक्ष्मी का पालन करेगा। वीर अर्जुन उत्तर दिशा में जाकर वहाँ के राजाओं को युद्ध में जीतकर असंख्य धन-रत्नों की राशि लें आयेगा। इसके बाहुबल से खाण्डव वन में अग्निदेव समस्त प्राणियों के मेद का आस्वादन करके पूर्ण तृप्ति लाभ लेंगे। यह महाबली श्रेष्ठ वीर बालक समस्त क्षत्रिय समूह का नायक होगा और युद्ध में भूमिपालों को जीतकर भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। कुन्ती! यह परशुराम के समान वीर योद्धा, भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी, बलवानों में श्रेष्ठ और महान् यशस्वी होगा।[3]
सभी देवताओं द्वारा अर्जुन की प्रसंसा विषयक संवाद
यह युद्ध में देवाधिदेव भगवान् शंकर को संतुष्ट करेगा और संतुष्ट हुए उन महेश्वर से पाशुपत नामक अस्त्र प्राप्त करेगा। निवात कवच नामक दैत्य देवताओं से सदा द्वैष रखते हैं, तुम्हारा यह महाबाहु पुत्र इन्द्र की आज्ञा से उन सब दैत्यों का संहार कर डालेगा। तथा पुरुषों में श्रेष्ठ यह अर्जुन सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों का पूर्ण रुप से ज्ञान प्राप्त करेगा और अपनी खोयी हुई सम्पत्ति को पुन: वापस ले आयेगा। कुन्ती ने सौरी में से ही यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी। उच्चस्वर में उच्चारित वह आकाशवाणी सुनकर शतश्रृंग निवासी तपस्वी मुनियों तथा विमानों पर स्थित इन्द्र आदि देवसमूहों को बड़ा हर्ष हुआ। फिर झुंड-के-झुंड देवता वहाँ एकत्र होकर अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। कद्रू के पुत्र (नाग), निताक के पुत्र (गरुड़ पक्षी), गन्धर्व, अप्सराऐं, प्रजापति, सप्तर्षिगण- भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जगदग्नि, वसिष्ठ तथा जो नक्षत्र के रुप में सर्यास्त होने के पश्चात् उदित होते हैं, वे भगवान् अत्रि भी वहाँ आये मरीचि और अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं प्रजापति दक्ष, गन्धर्व तथा अप्सराऐं भी आयीं। उन सबने दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खे थे। वे सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। अप्सराओं का पूरा दल वहाँ जुट गया था। वे सभी अर्जुन के गुण गाने और नृत्य करने लगीं। महर्षि वहाँ सब ओर खड़े होकर मांगलिक मन्त्रों को जप करने लगे। गन्धर्वों के साथ श्रीमान तुम्बुरु ने मधुर स्वर गीत गाना प्रारम्भ किया। भीमसेन तथा उग्रसेन, ऊर्णायु और अनघ, गोपति एवं धृतराष्ट्र, सूर्यवर्चा, तथा आठवें युगप, तृणप, कार्ष्णि,नन्दि एवं चित्ररथ, तेरहवें शालिशिरा और चौदहवें पर्जन्य, पंद्रहवें कलि और सोलहवें नारद, ॠवा और बृहत्वा, बृहक एवं महामना कराल, ब्रह्मचारी तथा विख्यात गुणवान सुवर्ण, विश्वावसु एवं भुमन्यु, सुचन्द्र और शरु तथा गीत माधुर्य से सम्पन्न सुविख्यात हाहा और हुहु- राजन्! ये सब देव गन्धर्व वहाँ पधारे थे। इसी प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित बडे़-बड़े नेत्रों वाली परम सौभाग्यशालिनी अप्सराऐं भी हर्षोल्लास में भरकर वहाँ नृत्य करने लगीं। उनके नाम इस प्रकार हैं- अनूचाना और अनवद्या, गुणमुख्या एवं गुणावरा, अद्रिका तथा सोमा, मिश्रकेशी और अलम्बुषा, मरीचि और शुचिका, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अम्बिका, लक्षणा, क्षेमा,देवी, रंभा, मनोरमा, असिता और सुबाहु, सुप्रिया एवं वपु, पुण्डरीका एवं सुगन्धा, सुरसा और प्रमाथिनी, काम्या तथा शारद्वती आदि। ये झुंड-की झुंड अप्सराऐं नाचने लगीं। इनमें मेनका, सहजन्या, कर्णिका और पुञ्जिकस्थला, ऋतुस्थली एवं घृताची, विश्वाची और पूर्वचित्ति, उम्लोचा और प्रम्लोचा- ये दस विख्यात हैं। इन्हीं प्रधान अप्सराओं की श्रेणी में ग्यारहवीं उर्वशी है। ये सभी विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियां वहाँ गीत गाने लगीं। धाता और अर्यमा, मित्र और वरुण, अंश एवं भग, इन्द्र, विवस्वान् और पूषा, त्वष्टा एवं सविता, पर्जन्य तथा विष्णु- ये बारह आदित्य माने गये हैं। ये सभी पाण्डुनन्दन अर्जुन का महत्व बढ़ाते हुए आकाश में खड़े थे। शत्रुदमन महाराज! मृगव्याघ और सर्प, महायशस्वी निर्ॠति एवं अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य और पिनाकी, दहन तथा ईश्वर, कपाली एवं स्थाणु तथा भगवान् भग– ये ग्यारह रुद्र भी वहाँ आकाश में आकर खड़े थे। दोनों अश्विनी कुमार तथा आठों वसु, महाबली मरुद्रण एवं विश्वेदेवगण तथा साध्यगण वहाँ सब ओर विद्यमान थे।[4] कर्कोटक सर्प तथा बासुकि नाग, कश्यप और कुण्ड, महा नाग और तक्षक – ये तथा और भी बहुत-से महाबली, महाक्रोधी और तपस्वी वहाँ आकर खड़े थे। ताक्षर्य और अरिष्ट नेमि, गरुड़ एवं असितध्वज, अरुण तथा आरुणि- विनता के ये पुत्र भी उस उत्सव में उपस्थित थे। वे सब देवगण और पर्वत के शिखर पर खड़े थे। उन्हें तप:सिद्ध महर्षि ही देख पाते थे, दूसरे लोग नहीं। वह महान् आश्चर्य देखकर वे श्रेष्ठ मुनिगण बड़े विस्मय में पड़े। तब से पाण्डवों के प्रति उनमें अधिक प्रेम और आदर का भाव पैदा हो गया। तदतन्तर महायशस्वी राजा पाण्डु पुत्र- लोमस से आकृष्ट हो अपनी धर्म पत्नी कुन्ती से फिर कुछ कहना चाहते थे, किंतु कुन्ती उन्हें रोकती हुई बोली-। आर्यपुत्र! आपत्ति काल में भी तीन से अधिक चौथी संतान उत्पन्न करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं दी है। इस विधि के द्वारा तीन से अधिक चौथी संतान चाहने वाली स्त्री स्वैरिणी होती है और पांचवे पुत्र के उत्पन्न होने पर वह कुलटा समझी जाती है।। विद्वन्! आप धर्म को जानते हुए भी प्रमाद से कहने वाले के समान धर्म का लोप करके अब फिर मुझे संतानोत्पत्ति के लिये क्यों प्रेरित कर रहे हैं। पाण्डु ने कहा- प्रिये! वास्तव में धर्मशास्त्र का ऐसा ही मत है। तुम जो कुछ कहती हो, वह ठीक है।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-13
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 14-24
- ↑ 3.0 3.1 3.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 25-43
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 44-70
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 71-78
संबंधित लेख
महाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँ
पर्वसंग्रह पर्व
समन्तपंचक क्षेत्र
| अक्षोहिणी सेना
| महाभारत में वर्णित पर्व
पौष्य पर्व
जनमेजय को सरमा का शाप
| जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित पद
| आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति
| उत्तंक का सर्पयज्ञ
पौलोम पर्व
महर्षि च्यवन का जन्म
| भृगु द्वारा अग्निदेव को शाप
| अग्निदेव का अदृश्य होना
| प्रमद्वरा का जन्म
| प्रमद्वरा की सर्प के काटने से मृत्यु
| प्रमद्वरा और रुरु का विवाह
| रुरु-डुण्डुभ संवाद
| डुण्डुभ की आत्मकथा
| जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा
आस्तीक पर्व
पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति
| जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण
| आस्तीक का जन्म
| कद्रु-विनता को पुत्र प्राप्ति
| मेरु पर्वत पर भगवान नारायण का समुद्र-मंथन के लिए आदेश
| भगवान नारायण का मोहिनी रूप
| देवासुर संग्राम
| कद्रु और विनता की होड़
| कद्रु द्वारा अपने पुत्रों को शाप
| नाग और उच्चैश्रवा
| विनता का कद्रु की दासी होना
| गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच
| कद्रु द्वारा इंद्रदेव की स्तुति
| गरुड़ का दास्यभाव
| गरुड़ का अमृत के लिए जाना और निषादों का भक्षण
| कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाना
| गरुड़ का कश्यप जी से मिलना
| इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का अपमान
| अरुण-गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ का देवताओं से युद्ध
| गरुड़ का विष्णु से वर पाना
| इन्द्र और गरुड़ की मित्रता
| इन्द्र द्वारा अमृत अपहरण
| शेषनाग की तपस्या
| जरत्कारु का जरत्कारु मुनि के साथ विवाह
| जरत्कारु की तपस्या
| परीक्षित का उपाख्यान
| श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को शाप
| तक्षक नाग और कश्यप
| जनमेजय का राज्यभिषेक और विवाह
| जरत्कारु को पितरों के दर्शन
| जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह
| जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह
| परीक्षित के धर्ममय आचार
| परीक्षित द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार
| श्रृंगी ऋषि का परिक्षित को शाप
| जनमेजय की प्रतिज्ञा
| जनमेजय के सर्पयज्ञ का उपक्रम
| सर्पयज्ञ के ऋत्विजों की नामावली
| तक्षक का इंद्र की शरण में जाना
| आस्तीक का सर्पयज्ञ में जाना
| आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, अग्निदेव आदि की स्तुति
| सर्पयज्ञ में दग्ध हुए सर्पों के नाम
| आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना
अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम
जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन
| व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना
| कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत
| महाभारत की महत्ता
| उपरिचर का चरित्र
| सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा
| ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि
| असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना
| ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण
| महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन
| देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन
| दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन
| दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना
| दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना
| तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन
| दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश
| दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप
| शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना
| विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना
| मेनका-विश्वामित्र का मिलन
| कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण
| शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह
| कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन
| शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति
| पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना
| आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन
| भरत का राज्याभिषेक
| दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति
| पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन
| कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना
| देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध
| देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह
| शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना
| देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप
| शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना
| शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना
| शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना
| सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार
| ययाति और देवयानी का विवाह
| ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति
| ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन
| देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद
| शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह
| ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना
| ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य
| ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना
| ययाति की तपस्या
| ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना
| ययाति का स्वर्ग से पतन
| ययाति और अष्टक का संवाद
| अष्टक और ययाति का संवाद
| ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद
| ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना
| ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना
| ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना
| पुरुवंश का वर्णन
| पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन
| महाभिष को ब्रह्माजी का शाप
| शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत
| प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना
| शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक
| शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह
| वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार
| भीष्म का जन्म
| वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा
| शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा
| गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति
| देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा
| सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति
| शान्तनु और चित्रांगद का निधन
| विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक
| भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण
| भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय
| अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह
| विचित्रवीर्य का निधन
| सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह
| भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन
| सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति
| व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति
| महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना
| माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना
| कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन
| धृतराष्ट्र का विवाह
| कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति
| कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म
| कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान
| कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह
| माद्री के साथ पाण्डु का विवाह
| पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास
| विदुर का विवाह
| धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति
| धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति
| दु:शला के जन्म की कथा
| धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली
| पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध
| पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय
| पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश
| पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश
| कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन
| पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन
| युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति
| नकुल और सहदेव की उत्पत्ति
| पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार
| पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण
| ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना
| पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार
| पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ
| दुर्योधन का भीम को विष खिलाना
| भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना
| भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता
| नागलोक से भीम का आगमन
| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज