- महाभारत आदि पर्व के ‘जतुगृह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 140 के अनुसार पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय तदनन्तर सुबल पुत्र शकुनि, राजा दुर्योधन, दु:शासन और कर्ण ने (आपस में) एक दुष्टता पूर्ण गुप्त सलाह की। उन्होंने कुरुनन्दन महाराज धृतराष्ट्र से आज्ञा लेकर पुत्रों सहित कुन्ती को आग में जला डालने का विचार किया। तत्त्व ज्ञानी विदुर उनकी चेष्टाओं से उनके मन का भाव समझ गये और उनकी आकृति ही उन दुष्टों की गुप्त मन्त्रणा का भी उन्होंने पता लगा लिया। विदुर जी ने मन-ही-मन जानने योग्य सभी बातें जान लीं। वे सदा पाण्डवों के हित में संलग्न रहते थे, अत: निष्पाप विदुर ने यही निश्चय किया कि कुन्ती अपने पुत्रों के साथ यहाँ से भाग जाय। उन्होंने एक सुदृढ़ नाव बनवायी, जिसे चलाने के लिये उसमें यन्त्र[2] लगाया था। वह वायु के वेग और लहरों के थपेड़ों का सामना करने में समर्थ थी। उसमें झंडियां और पताकाऐं फहरा रही थीं। उस नाव को तैयार कराके विदुरजी ने कुन्ती से कहा-। ‘देवि राजा धृतराष्ट्र इस कुरुकुल की कीर्ति एवं वंशपरम्परा का नाश करने वाले पैदा हुए हैं। इनका चित्त पुत्रों के प्रति ममता से व्याप्त हुआ है, इसलिये ये सनातन धर्म का त्याग कर रहे हैं। शुभे जल के मार्ग में यह नाव तैयार है, जो हवा और लहरों के वेग को भलीभाँति सह सकती है। इसी के द्वारा (कहीं अन्यत्र जाकर) तुम पुत्रों सहित मौत की फांसी से छूट सकोगी।’ भरतश्रेष्ठ यह बात सुनकर यशस्विनी कुन्ती को बड़ी व्यथा हुई। वे पुत्रों सहित (वारणावत के लाक्षागृह से बचकर) नाव पर जा चढ़ीं और गंगाजी की धारा पर यात्रा करने लगीं। तदनन्तर विदुर जी के कहने से पाण्डवों ने नाव को वहीं डुबा दिया और उन कौरवों के लिये हुए धन को लेकर विघ्न-बाधाओं से रहित वन में प्रवेश किया। वारणावत के उस लाक्षागृह में निषाद जाति की एक स्त्री किसी कारण वश अपने पांच पुत्रों के साथ आकर ठहर गयी थी। वह बेचारी निरपराध होने पर भी उसमें पुत्रों सहित जलकर भस्म हो गयी। म्लेच्छों में (भी) नीच पापी पुरोचन भी उसी घर में जल मरा और धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र अपने सेवकों सहित धोखा खा गये। विदुर की सलाह के अनुसार काम करने वाले महात्मा कुन्ती पुत्र अपनी माता के साथ मृत्यु से बच गये। उन्हें किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँची। साधारण लोगों को उनके जीवित रहने की बात ज्ञात न हो सकी। तदनन्तर वारणावत नगर में वहाँ के लोगों ने लाक्षागृह को दग्ध हुआ देख (अत्यन्त) दु:खी हो पाण्डवों के लिये (बड़ा) शोक किया। तथा राजा धृतराष्ट्र के पास यथावत समाचार कहने के लिये किसी को भेजकर कहलाया- ‘कुरुनन्दन तुम्हारा महान मनोरथ पूरा हो गया। पाण्डवों को तुमने जला दिया। सब तुम कृतार्थ हो जाओ और पुत्रों के साथ राज्य भोगो’ यह सुनकर पुत्र सहित धृतराष्ट्र शोकमग्न हो गये। उन्होंने, विदुर जी ने तथा कुरुकुल शिरोमणि भीष्म जी ने भी भाई-बन्धुओं के साथ (पुतल-विधि से) पाण्डवों के प्रेतकार्य (दाह और श्राद्ध आदि) सम्पन्न किये।
जनमेजय बोले - विप्रवर मैं लाक्षागृह जलने और पाण्डवों के उससे बच जाने का वृत्तान्त पुन: विस्तार से सुनना चाहता हूँ।[1] क्रूर कणिक के उपदेश किया हुआ कौरवों का यह कर्म अत्यन्त निर्दयता पूर्ण था। आप उसका ठीक-ठीक वर्णन कीजिये। मुझे यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। वैशम्पायनजी ने कहा - शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश मैं लाक्षागृह के जलने और पाण्डवों का उससे बच जाने का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहता हूं, सुनो। भीमसेन को सबसे अधिक बलवान और अर्जुन का अस्त्र-विद्या में सबसे श्रेष्ठ देखकर दुर्योधन सदा संतप्त होता रहता था। उसके मन में बड़ा दु:ख था। तब सूर्य पुत्र कर्ण और सुबल कुमार शकुनि आदि अनेक उपायों से पाण्डवों को मारने की इच्छा करने लगे। पाण्डवों ने भी जब जैसा संकट आया, सबका निवारण किया और विदुर की सलाह मानकर वे कौरवों के षडयन्त्र का कभी भंडाफोड़ नहीं करते थे। भारत उन दिनों पाण्डवों को सर्वगुण सम्पन्न देख नगर के निवासी भरी सभाओं में उनके सद्गुणों की प्रशंसा करते थे। वे जहाँ कहीं चौराहों पर और सभाओं में इकट्ठे होते वहीं पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को राज्य प्राप्ति के योग्य बताते थे। वे कहते, ‘प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन होने के कारण जब पहले ही राज्य न पा सके, तब (अब) वे कैसे राजा हो सकते हैं। ‘महान व्रत का पालन करने वाले शंतनुनन्दन भीष्म तो सत्यप्रतिज्ञ हैं। वे पहले ही राज्य ठुकरा चुके हैं, अत: अब उसे कदापि ग्रहण न करेंगे। ‘पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर यद्यपि अभी तरुण है, तो भी उनका शील-स्वभाव वृद्धों के समान है। वे सत्यवादी, दयालु और वेदवेत्ता हैं; अत: अब हम लोग उन्हीं का विधिपूर्वक राज्यभिषेक करें। ‘महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मज्ञ हैं। वे शन्तनुनन्दन भीष्म तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्र का आदर करते हुए उन्हें नाना प्रकार के भोगों से सम्पन्न रखेंगे।’ युधिष्ठिर में अनुरक्त हो उपर्युक्त उद्गगार प्रकट करने वाले लोगों की बातें सुनकर खोटी बुद्धि वाला दुर्योधन भीतर-ही-भीतर जलने लगा। इस प्रकार संतप्त हुआ वह दुष्टात्मा लोगों की बातों को सहन न कर सका। वह ईर्ष्या की आग से जलता हुआ धृतराष्ट्र के पास आया। वहाँ अपने पिता को अकेला पाकर पुरवासियों के युधिष्ठिर विषयक अनुराग से दुखी हुए दुर्योधन ने पहले पिता के प्रति आदर प्रदर्शित किया तत्पश्चात् इस प्रकार कहा।
दुर्योधन बोला - पिता जी मैंने परस्पर वार्तालाप करते हुए पुरवासियों के मुख से (बड़ी) अशुभ बातें सुनी हैं। वे आपका और भीष्म जी का अनादर करके पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर को राजा बनाना चाहते हैं। भीष्म जी तो इस बात को मान लेंगे; क्योंकि वे स्वयं राज्य भोगना नहीं चाहते। परंतु नगर के लोग हमारे लिये बहुत बड़े कष्ट का आयोजन करना चाहते हैं। पाण्डु ने अपने सद्गुणों के कारण पिता से राज्य प्राप्त कर लिया और आप अंधे होने के कारण अधिकार प्राप्त राज्य को भी न पा सके। यदि ये पाण्डु कुमार युधिष्ठिर पाण्डु के राज्य को, जिसका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है, प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही उनके बाद उनका पुत्र ही इस राज्य का अधिकारी होगा और उसके बाद पुन: उसी की पुत्र परम्परा में दूसरे-दूसरे लोग इसके अधिकारी होते जायेंगे। महाराज ऐसी दशा में हम लोग अपने पुत्रों सहित राज्य परम्परा से वचिंत होने के कारण सब लोगों की अवहेलना के पात्र बन जायेंगे। राजन आप कोई ऐसी नीति काम में लाइये जिससे हमें दूसरों के दिये हुए अन्न से गुजारा करके सदा नरक तुल्य कष्ट न भोगना पड़े। राजन! यदि पहले ही आपने यह राज्य पा लिया होता तो आज हम अवश्य ही इसे प्राप्त कर लेते; फिर तो लोगों का कोई वश नहीं चलता।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-17
- ↑ इससे महाभारतकाल में यंत्रयुक्त नौकाओं (जहाजों) का निर्माण सूचित किया है।
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 140 श्लोक 18-38
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| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
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| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
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| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
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| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
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| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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