माद्री के साथ पाण्डु का विवाह

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 112 के अनुसार माद्री के साथ पाण्डु का विवाह तथा राजा पाण्डु की दिग्विजय का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय तदनन्‍तर शान्‍तनुनन्‍दन परम बुद्धिमान भीष्‍म जी ने यशस्‍वी राजा पाण्‍डु के द्वितीय विवाह के लिये विचार किया। वे बूढ़े मन्त्रियों, ब्राह्मणों, महर्षियों, तथा चतुरंगिणी सेना के साथ मद्रराज की राजधानी में गये। वाहीक शिरो‍मणि राजा शल्‍य भीष्‍म जी का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये नगर से बाहर आये और यथोचित स्‍वागत-सत्‍कार करके उन्‍हें राजधानी के भीतर ले गये। वहाँ उनके लिये सुन्‍दर आसन, पाद्य, अर्घ्‍य तथा मधुपर्क अर्पण करके मद्रराज ने भीष्‍म जी से उनके आगमन का प्रयोजन पूछा। तब कुरुकुल का भार बहन करने वाले भीष्‍म जी ने मद्रराज से इस प्रकार कहा- ‘शत्रुदमन तुम मुझे कन्‍या के लिये आया समझो। ‘सुना है, तुम्‍हारी एक यशस्विनी बहिन है, जो बड़े साधु स्‍वभाव की है; उसका नाम माद्री है। मैं उस यशस्विनी माद्री का अपने पाण्‍डु के लिये वरण करता हूँ। ‘राजन तुम हमारे यहाँ सम्‍बन्‍ध करने में सर्वथा योग्‍य हो और हम भी तुम्‍हारे योग्‍य हैं। नरेश्वर यों विचार कर तुम हमें विधिपूर्वक अपनाओ।’ भीष्‍म जी के यों कहने पर मद्रराज ने उत्तर दिया- ‘मेरा विश्वास है कि आप लोगों से श्रेष्ठ वर मुझे ढूंढुने से भी नहीं मिलेगा। ‘परंतु इस कुल में पहले के श्रेष्ठ राजाओं ने कुछ शुल्‍क लेने का नियम चला दिया है। वह अच्‍छा हो या बुरा, मैं उसका उल्‍लंघन नहीं कर सकता। ‘यह बात सब पर प्रकट है, नि:संदेह आप भी इसे जानते होंगे। साधुशिरोमणे इस दशा में आपके लिये यह कहना उचित नहीं है कि मुझे कन्‍या दे दो। ‘वीर वह हमारा कुलधर्म है और हमारे लिये वही परम प्रमाण है। शत्रुदमन इसीलिये मैं आपसे निश्चित रुप से यह नहीं कह पाता कि कन्‍या दे दूंगा।’ यह सुनकर जनेश्वर भीष्‍म जी ने मद्रराज को इस प्रकार उत्तर दिया - ‘राजन यह उत्तम धर्म है। स्‍वयं स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा जी ने इसे धर्म कहा है। ‘यदि तुम्‍हारे पूर्वजों ने इस विधि को स्‍वीकार कर लिया है तो इसमें कोई दोष नहीं है। शल्‍य साधु पुरुषों द्वारा सम्‍मानित तुम्‍हारी कुल मार्यादा हम सबको विदित है।’ यह कहकर महातेजस्‍वी भीष्‍म जी ने राजा शल्‍य को सोना और उसके बने हुए आभूषण तथा सहस्रों विचित्र प्रकार के रत्न भेंट किये। बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ, वस्त्र, अलंकार और मणि-मोती और मूंगे भी दिये। वह सारा धन लेकर शल्‍य का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्‍होंने अपनी बहिन को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके राजा पाण्‍डु के लिये कुरुश्रेष्ठ भीष्‍म जी को सौंप दिया। परम बुद्धिमान गंगा नन्‍दन भीष्‍म माद्री को लेकर हस्तिनापुर में आये। तदनन्‍तर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा अनुमोदित शुभ दिन और सुन्‍दर मुहूर्त आने पर राजा पाण्‍डु ने माद्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। इस प्रकार विवाह-कार्य सम्‍पन्न हो जाने पर करुनन्‍दन राजापाण्‍डु ने अपनी कल्‍याणमयी भार्या को सुन्‍दर महल में ठहराया। राजाओं में श्रेष्ठ महाराज पाण्‍डु ने अपनी दोनों पत्नियों कुन्‍ती और माद्री के साथ यथेष्ट विहार करने लगे। जनमेजय कुरुवंशी राजा पाण्‍डु तीस रात्रियों तक विहार करके सचूची पृथ्‍वी पर विजय प्राप्त करने की इच्‍छा लेकर राजधानी से बाहर निकले। उन्‍होंने भीष्‍म आदि बड़े-ब़ढ़ों के चरणों में मस्‍तक झुकाया। कुरुनन्‍दन धृतराष्ट्र तथा अन्‍य श्रेष्ठ कुरुवंशियों को प्रणाम करके उन सब की आज्ञा ली और उनका अनुमोदन मिलने पर मंगलाचार युक्त आशीर्वादों से अभिनन्दित हो हाथी, घोड़ों तथा रथ समुदाय से युक्त विशाल सेना के साथ प्रस्‍थान किया।

राजा पाण्डु की दिग्विजय

राजापाण्‍डु देव कुमार के सामन तेजस्‍वी थे। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी पर विजय पाने की इच्‍छा से हृष्ट-पुष्ट सैनिकों के साथ अनेक शत्रुओं पर धावा किया। कौरवकुल के सुयश को बढ़ाने वाले, मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी राजा पाण्‍डु ने सबसे पहले पूर्व के अपराधी दशाणों[2] पर धावा करके उन्‍हें युद्ध में परास्‍त किया।[1] तत्‍पश्चात वे नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं से युक्त और बहुसंख्‍यक हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदलों से भरी हुई भारी सेना लेकर मगध देश में गये। वहाँ राजग्रह में अनेक राजाओं का अपराधी बलाभिमानी मगधराज दीर्घ उनके हाथ से मारा गया। उसके बाद भारी खजाना और वाहन आदि लेकर पाण्‍डु ने मिथिला पर चढ़ाई की और विदेहवंशी क्षत्रियों को युद्ध में परास्‍त किया। नरेश्रेष्ठ जनमेजय इस प्रकार वे पाण्‍डु काशी, सुह्य तथा पुण्‍ड देशों पर विजय पाते हुए अपने बाहुवल और पराक्रम से कुरुकुल के यश का विस्‍तार करने लगे। उस समय शत्रुदमन राजा पाण्‍डु प्रज्‍वलित अग्नि के समान सुशोभित थे। बाणों के समुदाय उनकी शस्त्र लपटों के समान प्रतीत होते थे। उनके पास आकर बहुत से राजा भस्‍म हो गये। सेना सहित राजा पाण्‍डु ने सामने आये हुए सैन्‍यसहित नरपतियों की सारी सेनाऐं नष्ट कर दीं और उन्‍हें अपने अधीन करके कौरवों के आज्ञा पालन में नियुक्त कर दिया। पाण्‍डु के द्वारा परास्‍त हुए समस्‍त भूपालगण देवताओं में इन्‍द्र की भाँति इस पृथ्‍वी पर सब मनुष्‍यों में एक मात्र उन्‍हीं को शूरवीर मानने लगे। भूतल के समस्‍त राजाओं ने उनके सामने हाथ जोड़कर मस्‍तक टेक दिये और नाना प्रकार के रत्न एवं धन लेकर उनके पास आये। राजाओं के दिये हुए ढ़रे-के-ढ़ेर मणि, मोती, मूंगे, स्‍वर्ण, चांदी, गौरत्न, अश्‍वरत्न, रथरत्न, हाथी, गदहे, ऊंट, भैंसे, बकरे, भेंड़ें, कम्‍बल, मृगचर्म, रत्न, रंकुमृग के चर्म से बने हुए बिछौने आदि जो कुछ भी सामान प्राप्त हुए, उन सबको हस्तिनापुराधीश राजा पाण्‍डु ने ग्रहण कर लिया। वह सब लेकर महाराज पाण्‍डु अपने राष्ट्र के लोगों का हर्ष बढ़ाते हुए पुन: हस्तिनापुर चले आये। उस समय उनकी सवारी के अश्व आदि भी बहुत प्रसन्न थे। राजाओं में सिंह के समान पराक्रमी शान्‍तनु तथा परम बुद्धिमान भरत की कीर्ति-कथा जो नष्ट-सी हो गयी थी, उसे महाराज पाण्डु ने पुनरुज्‍जीवित कर दिया। जिन राजाओं ने पहले कुरुदेश के धन तथा कुरुराष्ट्र का अपहरण किया था, उनको हस्तिनापुर के सिंह पाण्‍डु ने करद बना दिया। बहुत-से राजा तथा राजमन्‍त्री एकत्र होकर इस तरह की बातें कर रहे थे। उनके साथ नगर और जनपद के लोग भी इस चर्चा में सम्मिलित थे। उन सबके हृदय में पाण्‍डु के प्रति विश्‍वास तथा हर्षोल्‍लास छा रहा था। राजापाण्‍डु जब नगर के निकट आये, तब भीष्‍म आदि सब कौरव उनकी अगवानी के लिये आगे बढ़ आये। उन्‍होंने प्रसन्नतापूर्वक देखा, राजा पाण्‍डु और उनका दल बड़े उत्‍साह के साथ आ रहे हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानों वे लोग हस्तिनापुर से थोड़ी ही दूर जाकर वहाँ से लौट रहे हों, उनके साथ भाँति-भाँति के धन एवं नाना प्रकार के वाहनों पर लादकर लाये हुए छोटे-बड़े रत्न, श्रेष्ठ हाथी, घोड़े, रथ, गौऐं, ऊंट तथा भेड़ आदि भी थे। भीष्‍म के साथ कौरवों ने वहाँ जाकर देखा, तो उस धन-वैभव का कहीं अन्‍त नहीं दिखाई दिया। कौसल्‍या[3] का आनन्‍द बढ़ाने वाले पाण्‍डु ने निकट आकर पितृव्‍य भीष्‍म के चरणों में प्रणाम किया और नगर तथा जनपद के लोगों का भी यथायोग्‍य सम्‍मान किया। शत्रुओं के राज्‍यों को धूल में मिलाकर कृतकृत्‍य होकर लौटे हुए अपने पुत्र पाण्‍डु का आलिंगन करके भीष्‍म जी हर्ष के आंसू बहाने लगे। सैकड़ो शंख, तुरही एवं नगारों की तुमुल ध्‍वनि से समस्‍त पुरवासियों को आनन्दित करते हुए पाण्‍डु ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-25
  2. विन्ध्यपर्वत के पूर्व-दक्षिण की ओर स्थित उस प्रदेश का प्राचीन नाम दशार्ण है, जिससे होकर घसान नदी बहती है। विदिशा (आधुनिक भिलसा) इसी प्रदेश की राजधानी थी।
  3. काशिराज कोसल की कन्या होने से अम्बिका और अम्बालिका दोनों ही कौसल्या कहलाती थी।
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 112 श्लोक 26-45

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विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव 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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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