वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति

महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 172 के अनुसार वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वसिष्‍ठ जी की सहायता से राजा संवरण को तपती की प्राप्ति गन्‍धर्व कहता है - अर्जुन यों कहकर वह अनित्‍द्य सुन्‍दरी तपती तत्‍काल ऊपर (आकाश में) चली गयी और वे राजा संवरण फिर वहीं (मूर्च्छित हो) पृथ्‍वी पर गिर पड़े। इधर उनके मन्‍त्री सेना और अनुचरों को साथ लिये उन श्रेष्‍ठ नरेश को खोजते हुए आ रहे थे। उस महान वन में पहुँचकर मन्‍त्री ने राजा को देखा। वे समय पाकर गिरे हुए ऊंचे इन्‍द्रध्‍वज की भाँति पृथ्‍वी पर पड़े थे। तपती से विमुक्‍त उन महान धनुर्धर महाराज को इस प्रकार पृथ्‍वी पर पड़ा देख राजमन्‍त्री ऐसे व्‍याकुल हो उठे मानो उनके शरीर में आग लग गयी हो। वे तुरंत उनके पास जा पहुँचे। स्‍नेहवश उनके हृदय में घबराहट पैदा हो गयी थी। राजमन्‍त्री अवस्‍था में तो बड़े-बूढ़े थे ही, बुद्धि, कीर्ति और नीति में बढ़े-चढ़े थे। उन्‍होंने जैसे‍ पिता अपने गिरे हुए पुत्र को धरती से उठा ले, उसी प्रकार काम वेदना से मूर्च्छित हुए भूमिपालों के भी स्‍वामी महाराज संवरण को शीघ्रतापूर्वक पृथ्‍वी पर से उठा लिया। राजा को उठाकर और उन्‍हें जीवित पाकर उनकी चिन्‍ता दूर हो गयी। वे उठकर बैठे हुए महाराज से कल्‍याणमयी मधुर वाणी में बोले - 'नरश्रेष्‍ठ आप डरें नहीं। अनघ आपका कल्‍याण हो।' युद्ध में शत्रुदल को पृथ्‍वी पर गिरा देने वाले नरेश को भूमि पर गिरा देख मन्‍त्री ने यह अनुमान लगाया कि ये भूख-प्‍यास से पीड़ित एवं थके-मांदे हैं। गिरने पर राजा का मुकुट छिन्‍न-भि‍न्‍न नहीं हुआ था। (इससे अनुमान होता था कि राजा युद्ध में घायल नहीं हुए हैं।) मन्‍त्री ने राजा के मस्‍तक को कमल की सुगन्‍ध से युक्त ठंडे जल से सींचा। उससे राजा को चेत हो आया। बलवान नरेश ने एकमात्र अपने मन्‍त्री के सिवा सारी सेना को लौटा दिया। महाराज की आज्ञा से तुरंत वह विशाल सेना राजधानी की ओर चल दी; परंतु वे राजा संवरण फिर उसी पर्वत शिखर पर जा बैठे। तदनन्‍तर उस श्रेष्‍ठ पर्वत पर स्‍नानादि से पवित्र हो भगवान सूर्य की आराधना करने के लिये हाथ जोड़ ऊपर की ओर मुंह किये वे भूमि पर खड़े हो गये। उस समय शत्रुओं का नाश करने वाले राजा संवरण ने अपने पुरोहित मुनिवर वसिष्‍ठ का मन-ही-मन स्‍मरण किया। वे रात-दिन एक ही जगह खड़े होकर तपस्‍या में लगे रहे। तब बारहवें दिन महर्षि‍ वसिष्‍ठ का (वहां) शुभागमन हुआ। विशुद्ध अन्‍त:करण वाले महर्षि‍ वसिष्‍ठ दिव्‍यज्ञान से पहले बात जान गये कि सूर्य कन्‍या तपती ने राजा का चित्त चुरा लिया है। इस प्रकार मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर तपस्‍या में लगे हुए उक्‍त नरेश से धर्मात्‍मा मुनिवर वसिष्‍ठ ने उन्‍हीं की कार्य-सिद्धि के लिये कुछ बातचीत की।[1] उक्त महाराज के देखते-देखते सूर्य के समान तेजस्‍वी भगवान वसिष्ठ मुनि सूर्यदेव से मिलने के लिये ऊपर को गये। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ दोनों हाथ जोड़कर सहस्‍त्रों किरणों से सुशोभि‍त भगवान सूर्यदेव के समीप गये और 'मैं वसिष्ठ हूं' यों कहकर उन्‍होंने बड़ी प्रसन्‍नता से अपना समाचार निवेदित किया। फिर वसिष्ठजी बोले - जो अजन्‍मा, तीनों लोकों को पवित्र करने वाले, समस्‍त प्राणियों के अन्‍तर्यामी, किरणों के अधिपति, धर्मस्‍वरुप, सृष्ठि और प्रलय के अधि‍ष्‍ठान तथा परम दयालु देवताओं में सर्वश्रेष्‍ठ हैं, उन भगवान सूर्य को नमस्‍कार है। जो ज्ञानियों के अन्‍तरात्‍मा, जगत को प्रकाशित करने वाले, संसार के हितैषी, स्‍वयम्‍भू तथा सहस्‍त्रों उद्दीप्‍त नेत्रों से सुशोभि‍त हैं, उन अमित तेजस्‍वी सुरश्रेष्‍ठ भगवान सूर्य को नमस्‍कार है। जो जगत के एकमात्र नेत्र हैं, संसार की सृष्टि, पालन ओर संहार के हेतु हैं, तीनों वेद जिनके स्‍वरुप हैं, जो त्रिगुणात्‍मक स्‍वरुप धारण करके ब्रह्म, विष्‍णु और शिव नाम से प्रसिद्ध हैं, उन भगवान सविता को नमस्‍कार है। तब महातेजस्‍वी भगवान सूर्य ने मुनिवर वसिष्ठ से कहा - 'महर्षे तुम्‍हारा स्‍वागत है। तुम्‍हारी जो अभिलाषा हो, उसे कहो। 'वक्ताओं में श्रेष्‍ठ महाभाग तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, तुम्‍हारी वह अभीष्‍ट वस्‍तु कितनी हो दुर्लभ क्‍यों न हो, तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा। 'उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे तुमने जो मेरा स्‍तवन किया है, इसके लिये मैं वर देने का उद्यत हूं, कोई वर मांगो। तुम्‍हारे द्वारा कही हुई वह स्‍तुति भक्तों के लिये निरन्‍तर जप करने योग्‍य है। मैं तुम्‍हें वर देना चाहता हूँ। उनके यों कहने पर महातपस्‍वी मुनिवर वसिष्ठ मरीचि माली भगवान भास्‍कर को प्रणाम करके इस प्रकार बोले।

वसिष्ठ जी ने कहा - विभावसो यह जो आपकी तपती नाम की पुत्री एवं सावित्री की छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरण के लिये मांगता हूँ। उस राजा की कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा उदार बुद्धि वाले हैं; अत: आकाशचारी सूर्यदेव महाराज संवरण आपकी पुत्री के लिये सुयोग्‍य पति होंगे। वसिष्ठ जी यों कहने पर अपनी कन्‍या देने का निश्‍चय करके भगवान सूर्य ने ब्रह्मर्षि का अभिनन्‍दन किया और इस प्रकार कहा-। मुने संवरण राजाओं में श्रेष्‍ठ हैं, आप महर्षियों में उत्तम हैं और तपती युवतियों में सर्वश्रेष्‍ठ है; अत: उसके दान से श्रेष्‍ठ और क्‍या हो सकता है। तदनन्‍तर साक्षात भगवान सूर्य ने अनिन्‍द्य सुन्‍दरी तपती को राजा संवरण की पत्‍नी होने के लिये महात्‍मा वसिष्ठ को अर्पित कर दिया। ब्रहर्षि‍ वसिष्ठ ने उस कन्‍या को ग्रहण किया और वहाँ से विदा होकर वे तपती के साथ पुन: उस स्‍थान पर आये, जहाँ विख्‍यात कीर्ति, कुरुवंशियों में श्रेष्‍ठ राजा संवरण काम के वशीभूत हो मन-ही-मन तपती का चिन्‍तन करते हुए बैठे थे। मनोहर मुस्‍कान वाली देव कन्‍या तपती को वसिष्ठ जी के साथ आती देख राजा संवरण अत्‍यन्‍त हर्षोल्‍लास से युक्त हो अधिक शोभा पाने लगे। सुन्‍दर भौंहों वाली तपती आकाश से पृथ्‍वी पर आते समय गिरी हुई बिजली के समान सम्‍पूर्ण दिशाओं को अपनी प्रभा से प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही थी। राजा ने क्‍लेश सहन करते हुए बारह रात तक एकाग्रचित्त होकर ध्‍यान लगाया था। तब विशुद्ध अन्‍त:करण वाले भगवान वसिष्ठमुनि राजा के पास आये थे। सबके अधीश्‍वर वरदायक देवशिरोमणी भगवान सूर्य को तपस्‍या द्वारा प्रसन्‍न करके महाराज संवरण ने वसिष्ठ जी के ही तेज से तपती को पत्‍नी रुप में प्राप्‍त किया। तदनन्‍तर उन नरश्रेष्‍ठ ने देवताओं और गन्‍धर्वों से सेवित उस उत्तम पर्वत पर विधि‍पूर्वक तपती का पाणिग्रहण किया। उसके बाद वसिष्ठ जी की आज्ञा लेकर राजर्षि संवरण ने उसी पर्वत पर अपने पत्‍नी के साथ विहार करने की इच्‍छा की।[2]

उन दिनों भूपाल ने नगर, राष्‍ट्र, वन तथा उपवनों की देख-भाल एवं रक्षा के लिये मन्‍त्री को ही आदेश देकर विदा किया। वसिष्‍ठ जी भी राजा से विदा ले अपने स्‍थान को चले गये। तदनन्‍तर राजा संवरण उस पर्वत पर देवता की भाँति विहार करने लगे। वे उसी पर्वत के वनों और काननों में अपनी पत्‍नी के साथ उसी प्रकार बाहर वर्षों तक रमण करते रहे। अर्जुन उन दिनों महाराज संवरण के राज्‍य और नगर में इन्‍द्र ने बाहर वर्षों तक वर्षा नहीं की। शत्रुसूदन उन अनावृष्टि के समय प्राय: स्‍थावर एवं जगम सभी प्रकार की प्रजा का क्षय होने लगा। ऐसे भयंकर समय में पृथ्‍वी पर ओस की एक बूंद तक न गिरी। परिणाम यह हुआ कि खेती उगती ही नहीं थी। तब सभी लोगों का चित्त व्‍याकुल हो उठा। मनुष्‍य भूख के भय से पीड़ित हो घरों को छोड़कर दिशा-विदिशाओं में मारे-मारे फिरने लगे। फिर तो उस नगर और राष्‍ट्र के लोग क्षुधा से पीड़ित हो सनातन मर्यादा को छोड़कर स्‍त्री, पुत्र एवं परिवार आदि का त्‍याग करके परस्‍पर एक दूसरे को मारने और लूटने-खंसोट ने लगे। राजा का नगर ऐसे लोगों से भर गया, जो भूख से आतुर हो उपवास करते-करते मुर्दों के समान हो रहे थे। उन नर-कंकालों से परिपूर्ण वह नगर प्रेतों से घिरे हुए यमराज के निवास-स्‍थान सा जान पड़ता था। प्रजा की ऐसी दुरवस्‍था देख धर्मात्‍मा मुनिश्रेष्‍ठ भगवान वसिष्‍ठ ने ही (अपने तपोबल से) उस राज्‍य में वर्षा की। साथ ही वे नृपश्रेष्‍ठ संवरण को, जो बहुत वर्षों से प्रवासी हो रहे थे, तपती के साथ नगर में लग लाये। उन के आने पर दैत्‍यहन्‍ता देवराज इन्‍द्र वहाँ पूर्ववत वर्षा करने लगे। उन श्रेष्‍ठ राजा के नगर में प्रवेश करने पर भगवान इन्‍द्र ने वहाँ अन्‍न का उत्‍पादन बढ़ाने के लिये पुन: अच्‍छी वर्षा की। तब से शुद्ध अन्‍तकरण वाले नृपश्रेष्‍ठ संवरण के द्वारा पालित सब लोग प्रसन्‍न रहने लगे। उस राज्‍य और नगर में बड़ा आनन्‍द छा गया। तदनन्‍तर तपती के सहित महाराज संवरण ने शची के साथ इन्‍द्र के समान सुशोभित होते हुए बारह वर्षों तक यज्ञ किया।

गन्‍धर्व कहता है - कुन्‍तीनन्‍दन इस प्रकार भगवान सूर्य की पुत्री महाभागा तपती आपके पूर्वपुरुष संवरण की पत्‍नी हुई थी, जिससे मैंने आपको तपतीनन्‍दन माना है। तपस्‍वीजनों में श्रेष्‍ठ अर्जुन महाराज संवरण ने तपती के गर्भ से कुरु को उत्‍पन्‍न किया था; अत: उसी वंश में जन्‍म लेने के कारण आप लोग तापत्‍य हुए। भरतश्रेष्‍ठ उन्‍हीं कुरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण आप सब लोग कौरव तथा कुरुवंशी कहलाते हैं। इसी प्रकार पूरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण पौरव, अजमीढ़ कुल में जन्‍म लेने से आजमीढ़ तथा भरतकुल में उत्‍पन्‍न होने से भारत कहलाते हैं। इस प्रकार आप लोगों की वंश जननी तपती का सारा पुरातन वृत्तान्‍त मैंने बता दिया। अब आप लोग पुरोहित को आगे रखकर इस पृथ्‍वी का पालन एवं उपभोग करें।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 17-34
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 35-50

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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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