- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 137 के अनुसार अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-
विषय सूची
द्रुपद और अर्जुन का युद्ध
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! उस समय द्रोणाचार्य का प्रिय करने के लिये उद्यत हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन द्रुपद पर बाण समूहों की बर्षा करते हुए उन पर चढ़ आये। वे रणभूमि में घोड़ो, रथों और हाथियों के झुंडों का सब ओर से संहार करते हुए प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उनके बाणों से घायल हुए पाञ्चाल और सृज्जय वीरों ने तुरंत ही नाना प्रकार के बाणों की बर्षा करके अर्जुन को सब ओर से ढक दिया और मुख से सिंहनाद करते हुए उनसे लोहा लेना आरम्भ किया। वह युद्ध अत्यन्त भयानक और देखने में बड़ा ही अद्भुत था। शत्रुओं का सिंहनाद सुनकर इन्द्रकुमार अर्जुन उसे सहन न कर सके। उस युद्ध में किरीटधारी पार्थ ने बाणों का बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर पाञ्चालों को आच्छादित और मोहित-सा करते हुए उन पर सहसा आक्रमण किया। यशस्वी अर्जुन बड़ी फुर्ती से बाण छोड़ते और निरन्तर नये-नये बाणों का संधान करते थे। उनके धनुष पर बाण रखने और छोड़ने में थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखाई पड़ता था। महाराज! उस युद्ध में न तो दिशाओं का पता चलता था न आकाश और न पृथ्वी अथवा और कुछ भी ही दिखायी देता था। बलवान् वीर गाण्डीवधारी अर्जुन अपने बाणों द्वारा घोर अन्धकार फैला दिया था। उस समय पाण्डव-दल में साधुवाद के साथ-साथ सिंहनाद हो रहा था। उधर पाञ्चालराज द्रुपद ने अपने भाई सत्यजित को साथ लेकर तीव्र गति से अर्जुन पर धावा किया, ठीक उसी तरह जैसे शम्बरासुर ने देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया था। परंतु कुन्तीनन्दन अर्जुन ने बाणों की भारी बौछार करके पंचालनरेश को ढक दिया। और जैसे महासिंह हाथियों की यूथपति को पकड़ने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार अर्जुन द्रुपद को पकड़ना चाहते थे कि पाञ्चालों की सेना में हाहाकार मच गया। सत्यपराक्रमी सत्यजित् ने देखा कि कुन्तीपुत्र धनञ्जय पंचालनरेश को पकड़ने के लिये निकट बढ़े आ रहे हैं, तो वे उनकी रक्षा के लिये अर्जुन पर चढ़ आये; फिर तो इन्द्र और बलि की भाँति अर्जुन और पाञ्चाल सत्यजित् ने युद्ध के लिये आमने-सामने आकर सारी सेनाओं को क्षोभ में डाल दिया। तब अर्जुन ने दस मर्मभेदी बाणों द्वारा सत्यजित् पर बलपूर्वक गहरा आघात करके उन्हें घायल कर दिया। यह अद्भुत–सी बात हुई। फिर पाञ्चाल वीर सत्यजित् ने भी शीघ्र ही सौ बाण मारकर अर्जुन को पीड़ित कर दिया। उनके बाणों की वर्षा से आच्छादित होकर महान् वेगशाली महारथी अर्जुन ने धनुष की प्रत्यञ्चा को झाड़-पोंछकर बड़े वेग से बाण छोड़ना आरम्भ दिया और सत्यजित् के धनुष को काटकर वे राजा द्रुपद पर चढ़ आये। तब सत्यजित् ने दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर तुरंत ही घोड़े, सारथि एवं रथ सहित अर्जुन को बींध डाला। युद्ध में पाञ्चाल और सत्यजित् से पीड़ित हो अर्जुन उनके पराक्रम को न सह सके और उनके विनाश के लिये उन्होंने शीघ्र ही बाणों की झड़ी लगादी। सत्यजित् के घोड़े, ध्वजा, धनुष, मुट्ठी तथा पार्श्वरक्षक एवं सारथि दोनों को अर्जुन ने क्षत-विक्षत कर दिया। इस प्रकार बार-बार धनुष के छिन्न-भिन्न होने और घोड़ों के मारे जाने पर सत्यजित् समर भूमि से भाग गये। राजन्! उन्हें इस तरह युद्ध से विमुख हुआ देख पंचाल नरेश द्रुपद ने पाण्डुनन्दन अर्जुन पर बड़े वेग से बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। तब विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने उनसे बड़ा भारी युद्ध प्रारम्भ किया।[1]
अर्जुन व पाडंव सेना द्वारा द्रुपद को परास्त कर बंदी बनाना
उन्होंने पंचालराज का धनुष काटकर उनकी ध्वजा को भी धरती पर काट गिराया। फिर पांच बाणों से उनके घोड़ों और सारथि को घायल कर दिया। तत्पश्चात् उस कटे हुए धनुष को त्यागकर जब वे दूसरा धनुष और तूणीर लेने लगे, उस समय अर्जुन ने म्यान से तलवान निकालकर सिंह के समान गर्जना की। और सहसा पंचाल नरेश के रथ के डंडे पर कूद पड़े। इस प्रकार द्रुपद के रथ पर चढ़कर निर्भीक अर्जुन जैसे गुरुड़ समुद्रको क्षुब्ध करके सर को पकड़ लेता है, उसी प्रकार उन्हें अपने काबू में कर लिया। तब समस्त पाञ्चाल सैनिक (भयभीत हो) दसों दिशाओं में भागने लगे। समस्त सैनिकों को अपना बाहुबल दिखाते हुए अर्जुन सिंहनाद करके वहाँ से लौटे। अर्जुन को आते देख समस्त राजकुमार एकत्र हो महात्मा द्रुपद के नगर का विध्वंस करने लगे। तब अर्जुन ने कहा-भैया भीमसेन! राजाओं में श्रेष्ठ द्रुपद कौरव वीरों के सम्बन्धी हैं, अत: इनकी सेना का संहार न करो; केवल गुरुदक्षिणा के रूप में द्रोण के प्रति महाराज द्रुपद को ही दे दो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उस समय अर्जुन के मना करने पर महाबली भीमसेन युद्धधर्म से तृप्त नहोने पर भी उससे निवृत्त हो गये। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उन पाण्डव ने यज्ञसेन द्रुपद को मन्त्रियों सहित संग्राम भूमि में बंदी बनाकर द्रोणाचार्य को उपहार के रूप में दे दिया।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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वकवध पर्व
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| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
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| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
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| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
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