सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा

महाभारत आदि पर्व के ‘अंशावतरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 63 के अनुसार सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

सत्‍यवती ने कहा- भगवन आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्‍या हूँ। निष्‍पाप महर्षे! आपके संयोग से मेरा कन्‍या भाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ कन्‍या भाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान मुनिश्‍वर अपने कन्‍यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन इस बात पर भलिभां‍ति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये। सत्‍यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्‍या ही रहोगी। भामिनी तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्‍यर्थ नहीं गया है।’ महर्षि के ऐसा कहने पर सत्‍यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्‍ध होने का वरदान मांगा। भगवान पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया।[1]

तदनन्‍तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्‍यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्‍नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम किया। उसके शरीर से उत्तम गन्‍ध फैलने के कारण पृथ्‍वी पर उसका गन्धवती नाम विख्‍यात हो गया। इस पृथ्‍वी पर एक योजन दूर के मनुष्य भी उसी दिव्य सुगन्ध का अनुभव करते थे इस कारण उसका दूसरा नाम योजनगन्धा हो गया। इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लास के भरी हुई सत्यवती ने महर्षि पराशर का संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशु को जन्म दिया। यमुना के द्वीप (यमुना द्वीप) में अत्यन्त शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए। उन्होंने माता से यह कहा- ‘आवश्‍यकता पड़ने पर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्‍य दर्शन दूंगा।’ इतना कहकर माता की आज्ञा ले व्यास जी ने तपस्या में ही मन लगाया। इस प्रकार महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन व्यासजी का जन्म हुआ। वे बाल्यावस्था में ही यमुना के द्वीप में छोड़ दिये गये, इसलिये ‘द्वैपायन’ नाम से प्रसिद्ध हुए। तदनन्तर सत्यवती प्रसन्ना पूर्वक अपने घर पर गयी। उस दिन से भूमण्डल के मनुष्य एक योजन दूर से ही उसकी दिव्य गन्ध का अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी उसकी गन्ध सूंघकर बहुत प्रसन्न हुआ।

दाशराज ने पूछा - बेटी! तेरे शरीर से मछली की-सी दुर्गन्ध आने के कारण लोग तुझे ‘मत्स्यगन्धा’ कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहाँ से आ गयी? किसने यह मछली की दुर्गन्ध दूर कर तेरे शरीर को सुगन्ध प्रदान की है?

सत्यवती बोली - पिताजी! महर्षि शक्ति के पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुनाजी के तट पर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गन्धता की ओर लक्ष्य करके मुझ पर कृपा की और मेरे शरीर से मछली की गन्‍ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक योजन दूर तक अपना प्रभाव रखती है। महर्षि का यह कृपा प्रसाद देखकर सब लोक बड़े प्रसन्न हुए। विद्वान द्वैपायनजी ने देखा कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा हैं। मनुष्यों की आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युग की ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह सब सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने की इच्छा से वेदों का व्यास (विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नाम से विख्यात हुए। सर्वश्रेष्ठ वरदयाक भगवान व्यास ने चारों वेदों तथा पांचवे वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनी, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया। फिर उन सबने पृथक-पृथक महाभारत की संहिताऐं प्रकाशित की। अमित तेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म आठवें वसु के अंश से गंगा जी के गर्भ से उत्पन्न हुए। वे महान पराक्रमी और यशस्वी थे। पूर्व काल की बात है वेदार्थों के ज्ञाता, महान यशस्वी, पुरातन मुनि, ब्रह्मर्षि भगवान अणीमाण्डव्य चोर न होते हुए भी चोर के संदेह से शूली पर चढा दिये गये। परलोक में जाने पर उन महायशस्वी महर्षि ने पहले धर्म को बुलाकर इस प्रकार कहा-।[2]

‘धर्मराज पहले कभी मैंने बाल्यवस्था के कारण सींक से एक चिडि़ये के बच्चे को छेद दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पाप का मुझे स्मरण नहीं है। ‘मैंने अगणित सहस्र गुणा तप किया है। फिर उस तप ने मेरे छोट-से पाप को क्यों नहीं नष्ट कर दिया। ब्राह्मण का वध समस्त प्राणियों के वध से बड़ा है। ‘(तुमने मुझे शूली पर चढ़वाकर वही पाप किया है) इसलिये तुम पापी हो। अतः पृथ्वी पर शूद्र की योनि में तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा। ‘अणीमाण्डव्य के उस शाप से धर्म भी शूद्र की योनि में उत्पन्न हुए। पाप रहित विद्वान विदुर के रूप में धर्मराज का शरीर ही प्रकट हुआ था। उसी समय गवल्गण से संजय नामक सूत का जन्म हुआ, जो मुनियों के समान ज्ञानी और धर्मात्मा थे। राजा कुन्तिभोज की कन्या कुन्ती के गर्भ से सूर्य के अंश से महाबली कर्ण की उत्पत्ति हुई। वह बालक जन्म के साथ ही कवच धारी था। उस मुख शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए कुण्डल की प्रभा से प्रकाशित होता था। उन्हीं दिनों विश्‍ववन्दित महायशस्वी भगवान विष्णु जगत की जीवों पर अनुग्रह करने के लिये वसुदेव जी के द्वारा देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। वे भगवान आदि-अन्त से रहित, धुतिमान, सम्पूर्ण जगत के कर्ता तथा प्रभु हैं। उन्हीं को अव्यक्त अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं।

आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरुष (अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्तवगुण से प्राप्त होने वाले तथा प्रणवाक्षर वे ही हैं; उन्हीं को अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, निरगुण, विश्‍वरूप, अनादि, जन्म रहित और अविकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परम पुरुष परमात्मा, सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतों के पितामह हैं। उन्होंने ने ही धर्म की वृद्धि के लिये अन्धक और वृष्णि कुल में बलराम और श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, महापराक्रमी और समस्त शास्त्रों के ज्ञान में परम प्रवीण थे। सत्य से सात्यकि और हृदिक से कृतवर्मा का जन्म हुआ था। वे दोनों अस्त्र विद्या में अत्यन्त निपुण और भगवान श्रीकृष्ण के अनुगामी थे। एक समय उग्र तपस्वी महर्षि भारद्वाज का वीर्य किसी द्रोणी (पर्वत की गुफा) में स्खलित होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। उसी से द्रोण का जन्म हुआ।

किसी समय गौतम गोत्रीय शरद्वान का वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरा और दो भागों में बंट गया। उसी से एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। कन्या का कृपि था, जो अश्‍वत्थामा की जननी हुई। पुत्र महाबली कृप के नाम से विख्यात हुआ। तदनन्तर द्रोणाचार्य से महाबली अश्‍वत्थामा का जन्म हुआ। इसी प्रकार यज्ञ कर्म का अनुष्ठान करते समय प्रज्वलित अग्नि से धृष्टद्युम्न का प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात अग्निदेव के समान तेजस्वी था। पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये धनुष लेकर प्रकट हुआ था। उसी यज्ञ की वेदी से शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुई, जो परम उत्तम रूप धारण करके अपने सुन्दर शरीर से अत्यन्त शोभा पा रही थी।[3]

प्रहलाद का शिष्‍य नग्नजित राजा सुबल के रूप में प्रकट हुआ। देवताओं के कोख से उसकी संतति (शकुनि) धर्म का नाश करने वाली हुई। गान्धार राज का सुबल का पुत्र शकुनि एवं सौबल नाम से विख्यात हुआ तथा उनकी पुत्री गान्धारी दुर्योधन की माता थी। ये दोनों भाई-वहिन अर्थ-शास्त्र के ज्ञान में निपुण थे। राजा विचित्र वीर्य की क्षेत्रभूता अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा राजा धृतराष्ट्र और महाबली पाण्डु का जन्म हुआ। द्वैपायन व्यास से ही शूद्र जातीय स्त्री के गर्भ से विदुर जी का जन्म हुआ था। वे धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण, बुद्धिमान, मेधावी और निष्पाप थे। पाण्डु से दो स्त्रियों के द्वारा पृथक-पृथक पांच पुत्र उत्पन्न हुये, जो सब-के-सब देवताओं के समान थे।

उन सबमें सबसे बड़े युधिष्ठिर थे। वे उत्तम गुणों में भी सबसे बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर धर्म से भीमसेन वायु देवता से, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीमान अर्जुन इन्द्र देव से तथा सुन्दर रूप वाले नकुल और सहदेव अश्विनी कुमारों उत्पन्न हुए थे। वे जुड़वे पैदा हुये थे। नकुल और सहदेव सदा गुरुजनों की सेवा में तत्पर रहते थे। परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए। इनके अतिरिक्त युयुत्सु भी उन्हीं का पुत्र था। वह वैश्‍य जातिय माता से उत्पन्न होने के कारण ‘करण’ कहलाता था। भरतवंशी जनमेजय! धृतराष्ट्र के पुत्रों में दुर्योधन, दुःशासन, दुःसह, दुर्मर्षण, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति, जय, सत्यव्रत, पुरूमित्र तथा वैश्‍यापुत्र युयुत्सु- ये ग्यारह महारथी थे। अर्जुन द्वारा सुभद्रा के गर्भ से अभिमन्यु का जन्म हुआ। वह महात्मा पाण्डु का पौत्र और भगवान श्रीकृष्ण का भान्जा था।

पाण्डवों द्वारा द्रौपदी के गर्भ से पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो बड़े ही सुन्दर और सब शास्त्रों में निपुण थे। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक तथा सहदेव से प्रतापी श्रुतसेन का जन्म हुआ था। भीमसेन के द्वारा हिडिम्बा से वन में घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा द्रुपद से शिखण्डी नाम की एक कन्या हुई, जो आगे चलकर पुत्ररूप में परिणित हो गयी। स्थूणाकर्ण नामक यक्ष ने उसका प्रिय करने की इच्छा से उसे पुरुष बना दिया था। कौरवों के उस महासमर में युद्ध करने के लिये राजाओं के कई लाख योद्वा आये थे। दस हजार वर्षों तक गिनती की जाये तो भी उन असंख्य योद्वाओं के नाम पूर्णतः नहीं बताये जा सकते। यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य राजाओं के नाम बताये गये हैं, जिनके चरित्रों से इस महाभारत-कथा का विस्तार हुआ है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 63-80
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 81-92
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 93-110
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 111-127

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
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स्वयंवर पर्व
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वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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